मेरी नदी यात्रा

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मेेरी जङें, उत्तर प्रदेश के जिला-अमेठी के एक गांव में हैं। मेरे गांव के दक्षिण से घूमकर उत्तर में फिर दर्शन देने वाली मालती नाम की नदी बहती है। जब भी गांव जाता हूं, इससे मुलाकात होती ही है। बचपन से हो रही है। दिल्ली में पैदा हुआ। पांचवीं के बाद सिविल लाइन्स में आई पी काॅलेज के पीछे स्थित रिंग रोड वाले स्कूल में पढ़ा। अतः घर से स्कूल के रास्ते में पुराने पुल से आते-जाते दिन में दो बार यमुना जी के सलोनी छवि के दर्शन होना लजिमी है। अतः जब दिल्ली ने 1978 में यमुना की बाढ़ देखी, तो मैने भी देखी। माॅडल टाउन और मुखर्जी नगर की इमारतों की पहली मंज़िल पर पानी चढ़ जाने की तस्वीरें की इमारतों की पहली मंज़िल पर पानी चढ़ जाने की तस्वीरें भी देखीं और खबरें भी सुनी। जिनके पास दिल्ली में कहीं और जाने के साधन थे, यमुना पुश्ते के किनारे की कालोनियों के ऐसे लोग अपने-अपने घरों को ताला मारकर अन्यत्र चले गये थे। हमें अपने एक मंजिला मकान की छत से ज्यादा, रेलवे लाइन की ऊंचाई का आसरा था। सो, हम कहीं नहीं गये। रेडियो बार-बार बताता था कि पानी कहां तक पहुंच गया है। हम भी दौङकर देख आते थे। फौज ने उस वक्त बङी मदद की। यमुना पुश्ते को टूटने नहीं दिया। उस समय मैने नदी का एक अलग रूप देखा, किंतु इसे मैं अपनी नदी यात्रा नहीं कह सकता। तब तक न मुझे तैरना आता था और न ही नदी से बात करना। मेरा मानना है कि उतरे तथा बात किए बगैर नदी की यात्रा नहीं की जा सकती।

इस बीच समय  ने मेरे हाथ में कलम और कैमरा थमा दिया। 1991-92 में मैने एक फिल्म लिखी – ‘गंगा मूल में प्रदूषण’। गढ़वाल के मोहम्मद रफी कहे जाने वाले प्रसिद्ध लोकगायक श्री चन्द्रसिंह राही द्धारा निर्देशित इस फिल्म को लिखने के दौरान मैने पहली बार गंगा और इसके किनारों से नजदीक से बात करने की कोशिश की। उस वक्त तक हरिद्वार से ऊपर के शहर गंगा कार्य योजना का हिस्सा नहीं बने थे। सरकार नहीं मानती थी कि ऋषिकेश के ऊपर शहर भी गंगा को प्रदूषित करते हैं। यह फिल्म यह स्थापित करने में सफल रही। कालांतर में ऊपर के शहर भी गंगा कार्य योजना में शामिल किए गये। यहीं से मेरी नदी यात्रा की विधिवत् शुरुआत हुई।

1994 में सिग्नेट कम्युनिकेशन की निर्माता श्रीमती शशि मेहता जी को दूरदर्शन हेतु ‘एचिवर्स’ नामक एक वृतचित्र श्रृंखला का निर्माण करना था। इसकी पहली कङी – ‘सच हुए सपने’ को फिल्माने मैं अलवर के तरुण आश्रम जा पहुंचा। इससे पूर्व राजस्थान के चुरु, झुझनू, सीकर आदि इलाकों में जाने का मौका मिला था। उन इलाकों में मैने रेत की नदी देखी थी; अलवर आकर रेत में पानी की नदी देखी। फिर उसके बाद बार-बार अलवर जाना हुआ। एक तरह से अलवर से दोस्ती सी हो गई। वर्ष – 2000 में देशव्यापी जलयात्रा के दौरान नदियों की दुर्दशा देख राजेन्द्र सिंह व्यथित हुए थे और ‘जलयात्रा’ दस्तावेज को संपादित करते हुए मैं। इसके बाद मैं सिर्फ नदी और पानी का हो गया।

इस बीच विज्ञान पर्यावरण केन्द्र, नई दिल्ली के तत्कालीन प्रमुख स्व. श्री अनिल अग्रवाल और तरुण भारत संघ के श्री राजेन्द्र सिंह की पहल पर ‘जल बिरादरी’ नामक एक अनौपचारिक भाई-चारे की नींव रखी गई। ‘जलबिरादरी’ से मेरा जुङाव कुछ समय बाद समन्वय की स्वैच्छिक जिम्मेदारी में बदल गया। इस जिम्मेदारी ने मुझसे नदी की कई औपचारिक यात्रायें कराईं: गंगा लोकयात्रा, गंगा सम्मान यात्रा, गंगा पंचायत गठन यात्रा, गंगा एक्सप्रेस-वे अध्ययन यात्रा, हिंडन प्रदूषण मुक्ति यात्रा, सई पदयात्रा, उज्जयिनी पदयात्रा, गोमती यात्रा। यमुना, काली, कृष्णी, पांवधोई, मुला-मोथा, सरयू, पाण्डु, चित्रकूट की मंदाकिनी समेत कई छोटी-बङी कई नदियों के कष्ट और उससे दुःखी समाज को देखने का मौका मिला। राजस्थान के जिला अलवर, जयपुर तथा करौली के ग्रामीण समाज के पुण्य से सदानीरा हुई धाराओं को भी मैने जानने की कोशिश की। इसके बाद तो मैने नदी सम्मेलनों में बैठकर भी नदी की ही यात्रा करने की कोशिश की।

मेरी नदी यात्रा में नदियों ने तो मुझे सबक सिखाये ही; श्री राजेन्द्र सिंह जी के शब्द व व्यवहार, प्रो, जी डी अग्रवाल जी की जिजीविषा, मंदाकिनी घाटी की बहन सुशीला भंडारी के शौर्य, यमुना सत्याग्रह के साथी मास्टर बलजीत सिंह जी के निश्छल समर्पण, पांवधोई में पहल के अगुवा साथी रहे आई ए एस अधिकारी श्री आलोक कुमार की लगन, सई नदी के पानी को सूंघकर वापस लौट जाने वाली नीलगाय की समझ और कृष्णी नदी किनारे जिला सहारनपुर के गांव खेमचंद भनेङा के रामचरित मानस पाठ के ज़रिये प्रदूषकों को चुनौती देने के प्रोफेसर प्रकाश के अंदाज़ ने भी कई सबक सिखाये।

खासतौर से विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की सिटीजन रिपोर्ट, श्री अमृतलाल वेंगङ के नर्मदा यात्रा वृतांत, श्री दिनेश कुमार मिश्र की ’दुई पाटन के बीच’ तथा सत्येन्द्र सिंह द्वारा भारत के वेद तथा पौराणिक पुस्तकों से संकलित सामग्री के आधार पर रचित पुस्तकें अच्छी शिक्षक बनकर इस यात्रा में मेरे साथ खड़ी रहीं। सर्वश्री काका साहब कालेलकर, डा. खङक सिंह वाल्दिया, अनुपम मिश्र, रामास्वामी आर. अय्यर, हिमांशु ठक्कर, कृष्ण गोपाल व्यास, श्रीपाद् धर्माधिकारी, अरुण कुमार सिंह और रघु यादव की पुस्तकों, लेखों तथा हिंदी वाटर पोर्टल पर नित् नूतन सामग्री से मैं आज भी सीख रहा हूं।

सच कहूं तो नदी के बारे में मैने सबसे अच्छे सबक हिंडन और सई नदी की पदयात्रा तथा अलग-अलग इलाकों के तालाबों, जंगल और खनन को पैरों से नापते हुए ही सीखे। इसी तरह किसी एक नदी और उसके किनारे के समाज के रिश्ते को समझने का सबसे अच्छा मौका मुझे तब हाथ लगा, जब राजेन्द्र सिंह जी ने मुझे अरवरी संसद के सत्र संवादों को एक पुस्तक का रूप देने का दायित्व सौंपा।

मेरी अब तक की नदी यात्रा ने स्याही बनकर कई किताबें / दस्तावेज लिखे और संपादित किए हैं :  सिर्फ स्नान नहीं है कुभ, क्यों नहीं नदी जोङ ? गंगा क्यों बने राष्ट्रीय नदी प्रतीक ?, गंगा जनादेश, गंगा मांग पत्र, गंगा ज्ञान आयोग अनुशंसा रिपोर्ट 2008, जलबिरादरी: पांचवा सम्मेलन रिपोर्ट, अरवरी संसद, जलयात्रा, जी उठी जहाजवाली और डांग का पानी। मेरी इस यात्रा में गत् पांच वर्षों से इंटरनेट और कम्पयुटर सहायक हो गये हैं। अब मैं लगातार बह रहा हूं और बहते-लिखते हुए तैरना सीख रहा हूं। मेरी नदी यात्रा जारी है।

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