हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी

सिद्धार्थ मिश्र

लगातार कई दिन से हो रहे हंगामे और शोर शराबे ने संसद के काम को बुरी तरह प्रभावित किया । कोलगेट कांड में मुख्य अभियुक्त बन गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सफाई देने में हाथ पांव फूल गए । इस दौरान प्रधानमंत्री ने कई बार बात करने की कोशिश भी पर विपक्ष है कि मानता नहीं । माननीय मनमोहन जी का मानना है कि कैग की रिपोर्ट पूर्णतः गलत है । अब सवाल ये उठता है कि अगर ये रिपोर्ट गलत है तो फिर सही क्या प्रधानमंत्री और सत्ता पक्ष के नेताओं का अलोकतांत्रिक रवैया? कौन भूल सकता कांग्रेस के राज्य सभा सांसद राजीव शुक्ला की सदन की दिन भर के लिए रोक देने की मांग । सवाल फिर उठता है कि जो सत्ता पक्ष मामले के पहले दिन सदन की कार्रवाई रोक देने से आहलादित हो रहा था , वो ही पक्ष अब सदन चलने को लेकर इतना व्यग्र क्यों है ? जवाब साफ है देष भर में हो रही अपनी थुक्का फजीहत को ध्यान में रखते हुए सरकार अब इस पूरे प्रकरण का ठीकरा विपक्ष के सर पे फोड़ने की ठान ली है । प्रश्‍न फिर उठता है कि क्या इस तरह से भोेला भोला बनकर प्रधानमंत्री क्या जनता का मन मोहने में फिर कामयाब हो पाएंगे ? जवाब स्पष्‍ट है नहीं लगातार हो रहे इस तरह के घोटालों से जनता पूरी तरह आजिज आ चुकी है । अंततः इस पूरे प्रकरण का खामियाजा कहीं न कहीं आम जनता को ही भुगतना पड़ता है । इस बात को साबित करते हैं विभिन्न चैनलों द्वारा कराए गए सर्वे । इन सभी आंकड़ों पर यदि गौर करें तो पाएंगे देश की जनता इस कुशासन से पूरी तरह त्रस्त हो चुकी है । इन परिस्थितियों में अगर मध्यावधी चुनाव भी हुए तो आम जन के बीच मतदान का प्रमुख मुद्दा है भ्रष्‍टाचार । जहां तक भ्रष्‍टाचार का प्रश्‍न है तो कांग्रेसनीत यूपीए गठबंधन भ्रष्‍टाचार की खान साबित हुआ है ।

बहरहाल इन बातों को दरकिनार कर बात करते हैं हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन जी की । बीते सोमवार को मनमोहन जी के संसद में दिये गये बयान पर गौर करें ।

हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी,

ना जाने कितने सवालों की आबरू रख ली ।

गौर करें तो अपने शासन के विगत आठ सालों में प्रधानमंत्री अपने सारे संबोधन अंग्रेजी भाषा में देना पसंद करते रहे हैं । आज अचानक क्या हो गया जो अंग्रेजी पसंद प्रधानमंत्री का दर्द हिंदी में बयां हुआ ? हैरत में ना पडि़ये इस तरह का वाकया एक बार और भी हुआ है वो भी तब जब सरकार न्यूक्लियर डील के समर्थन में अपनी आखिरी सांसे गिन रही थी । प्रधानमंत्री के वो शब्द भी पेशे खिदमत हैं । गौर करिए

देहू शिवा वर मोही इहे शुभ करमन ते कबहूं ना टरौं,

डरौं अर सो जब जाई लड़ौं निश्‍चय कर अपनी जीत करौं ।

खैर इन शब्दों ने अचानक चमत्कार कर दिखाया और उसे मुलायम समेत कई विपक्षी पार्टियों का समर्थन मिल गया और अंततः सरकार बच गई । तो क्या इस बार भी मनमोहन जी हिंदी का सहारा लेकर अपनी खोई लोकप्रियता वापस पाना चाहते हैं ? मगर अफसोस हालात इस बार पहले से ज्यादा बेकाबू हैं और इन शब्दों का कोई विशेष फायदा उन्हे होने से रहा । ये शब्द और कुछ नहीं एक थके हारे योद्धा की विवषता को प्रदर्षित करते हैं । यहां विवशता शब्द वास्तव में समीचीन होगा क्योंकि लगभग सारे मंत्री उनके प्रतिकूल कार्य एवं बयानबाजी करते रहे हैं । कौन भूल सकता कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह के वाणी व्यायाम को जिसने कहीं न कहीं कई बार प्रधानमंत्री को संासत में डाला । आजकल इस भूमिका का निर्वाह बेनी प्रसाद वर्मा कर रहे हैं । अभी हाल ही उन्होने अपने विवादित बयान से लोकप्रियता बटोरी । माननीय वर्मा का कहना था कि उन्हे महंगाई के बढ़ने से मजा आता है । अब जरा सोचिये ये मनमोहन जी के आर्थिक सुधारों की पहल को आईना दिखाने का काम नहीं है ? अब अगर मंत्री ही इस बात को स्वीकार करने लगें कि महंगाई बढ़ी है तो मनमोहन जी की मुसीबतों में इजाफा नहीं होगा । अब हमारे अर्थशास्त्र के विद्वान मनमोहन चाहे हजारों बार कहें कि वो महंगाई पर नियंत्रण को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं कौन भरोसा करेगा उनकी इन बचकानी बातों का । वैस्ेा भी अक्सर ही मीडिया उन पर डमी प्रधानमंत्री होने का आरोप लगाता है । ऐसे आरोप से क्या साबित होता है ? सीधी सी बात है कि सत्ता की डोर मनमोहन के हाथ में न होकर किसी और के हाथ में है । इंडिया अगेंस्ट करप्षन के प्रणेता अन्ना जी ने कई बार ये बात कही है प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन जी एक ईमानदार आदमी हैं । ये कथन मनमोहन जी के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं थे । प्रधामनंत्री जी ने इस बात की खुषी मना पाते इससे पहले ही वे कई विवादों में घिर गए हैं । इन विवादों से निष्चित तौर पर उनकी लोकप्रियता और ईमानदार छवि को गहरा आघात लगा है । इसका प्रमाण है आज तक और नेल्सन द्वारा कराया गया सर्वेक्षण । इस सर्वेक्षण में छः प्रतिषत से भी कम लोग उन्हे दोबारा उन्हे प्रधानमंत्री के पद पर वापस देखना चाहते हैं । स्मरण रहे कि पूर्व में सरकार पर कई घोटालों के आरोप सिद्ध होने के बाद भी बहुसंख्य लोग उन्हे बतौर प्रधानमंत्री पसंद करते थे । आखिर उस ईमानदारी के मायने ही क्या जो अपने मातहतों को घपले घोटाले से न रोक सकें? क्या करेंगे ऐसे विद्वान का जो देश को हजारों करोड़ के घोटालों की सौगात दे ? खैर मनमोहन जी के हालात आज बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाने से ज्यादा नहीं है । वजह है 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव इन चुनावों में कांग्रेस की बतौर प्रधानमंत्री पहली पसंद हैं राहुल । अचानक तख्ता पलट की बजाए शातिर राजनीतिज्ञ सोनिया की ये चाल मनमोहन जी समझ नहीं पाए । अब कैग रिपोर्ट में भीशण घपला सामने आने के बाद मनमोहन जी की रही सही लोकप्रियता भी जाती दिख रही है । हो भी क्यों न तत्काल कोल ब्लाक आवंटन में मनमोहन जी ने बतौर केंद्रिय कोयला मंत्री मुख्य भूमिका निभाई है । विपक्ष की मांग भी अपनी जगह जायज है कि, आखिर जिस कैग रिपोर्ट के बाद राजा को कुर्सी गंवानी पड़ी और जेल भी जाना पड़ा उसी कैग रिपोर्ट की सत्यता से मनमोहन जी कैसे इनकार कर सकते हैं ? इन विपरीत परिस्थितियों में मनमोहन जी के पास सिर्फ एक ही रास्ता बचा है और वो नैतिकता के आधार पर त्याग पत्र । अन्यथा इतिहास में उन्हें बतौर नायक तो याद नहीं ही किया जाएगा । विचार करें कि राष्‍ट्रमंडल खेल,टू जी घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला,जीएम आर डायल समूह द्वारा एयरपोर्ट विकास के नाम घोटाला और हालिया कोल गेट कांड के बाद क्या मनमोहन जी खुद को ईमानदार कह सकते हैं । यह भी भली भांति विदित है कि मनमोहन जी ने भले ही ये घोटाले न किये हों पर दबाने का भरसक प्रयत्न तो किया है । इन हालातों में कौन भरोसा करेगा मनमोहन जी की बातों और खामोशी का । मनमोहन जी को अब ये समझना ही होगा कि अब शब्दों की मोहिनी से काम नहीं चलेगा । वैसे भी बेआबरू होकर पदच्युत होने से ससम्मान विदाई बेहतर है । अंततः

अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार,

शब्द नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई ।

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