न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः॥

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डॉ. मधुसूदन

वृद्ध जनों का योगदान: भा. (१)

डॉ. मधुसूदन

सूचना: इसआलेख को *वे न दुखडा गाएंगे, न तुम अनुमान कर पाओगे* आलेख के बाद पढें.
सारांश:
* कोई प्रेम से चाय पिलाता है, तो चाय से अधिक पिलानेवाले का प्रेम व्यक्त होता है. मनुष्य जितना प्रेम का भूखा है; उतना उस चाय का नहीं.*
*इस प्रेम की अनुभूति ही सुख का रहस्य है.*
*वृद्ध जन अनुभवों की खान या विश्वकोष (एनसायक्लोपीडिया) होते हैं.
परिवार में ऐसा जीता जागता जीवनकोश बैठा हो, तो भाग्यवान हैं आप.*
*अनुभव का यह विश्वकोष निकटता प्रस्थापित करने पर खुलता है*
*दादा दादी के साथ जुडी स्मृतियाँ बालकों के जीवन में भी संबल सिद्ध होती हैं*
*व्यक्ति ऐसे स्मृतियों के पुंज (संस्कार)से परिचालित होती है.*
*आपसी स्पर्धा परिवार का आंतरिक आदर्श नहीं है.*
*परिवार में स्पर्धा पारिवारिक कलह का बीजारोपण करती है.*
*मैं ज्यादा कमाता हूँ, इस लिए ज्यादा खाऊंगा* यह पशु प्रवृत्ति है.*
इत्यादि जानने के लिए आगे पढें. आलेख दो भागों में प्रस्तुत होगा.

(एक) सामान्य कृति में छिपी असामान्यता:
जब कोई चाय पिलाता है, तो चाय से अधिक चाय पिलानेवाले का प्रेम ही मह्त्त्वका होता है. मनुष्य जितना इस प्रेम का भूखा है; उतना उस चाय का नहीं. इस संसार में ऐसी प्रेम की अनुभूति ही सुख का रहस्य है. किसी व्यक्ति के मन में आप प्रवेश करें तो पाएंगे कि हरेक व्यक्ति को आदर और सम्मान की सर्वाधिक और सर्व प्रथम आवश्यकता है.
आपके वृद्ध माता पिता भी सम्मान चाहते हैं. उन्होंने किए त्याग का स्वीकार चाहते हैं, उनके जीवन में उन्होंने परिवार के लिए जो श्रम किए उसके लिए दो शब्दों में स्वीकृति चाहते हैं. उनके इस त्याग को स्वीकार करें तो, यह आपका सब से बडा योगदान होगा. बिना आदर वे आप के किसी उपहार को स्वीकार भी नहीं करेंगे. भोजन जैसी परमावश्यक आवश्यकता को भी खिसका कर दूर कर देंगे; और अपमान होने पर पानी भी नहीं पिएंगे.

इन्सान जी की छोटी टिप्पणी का गर्भार्थ मुझे बहुत सटीक लगा. उसे मैं धन्यवाद सहित उद्धृत करता हूँ.
इन्सान जी कहते हैं:
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*मैं किसी भी स्थिति को विभिन्न पहलुओं से देखता हूँ और मेरी समझ में हमारी भारतीय संस्कृति में *मर्यादा का पालन* एक ऐसी अलौकिक देन है जो सामान्य मनुष्य को उसके नैतिक व कर्तव्यपरायण आचरण को दिशा देने में समर्थ है|*—-इन्सान…
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(दो) अनुभव का यह विश्वकोष निकटता से खुलता है:

ऐसे वृद्ध जन अनुभवों की खान या विश्वकोष (एनसायक्लोपीडिया) भी होते हैं. और, इस विश्वकोष के पन्ने निकटता को स्थापित करने से ही खुलते हैं. पर ऐसी निकटता कैसे स्थापित करें? इस संदर्भ में, एक *मिरेकल पिपल पॉवर* नामक पुस्तक पढी थी. पुस्तक व्यावसायिक सफलता की दृष्टि से लिखी गई थी. निकटता के लिए, यह पुस्तक आपको दूसरे के मन में चलते विचार प्रवाह की दिशा पहचानने की कला सिखाती है. पुस्तक के अनुसार, दूसरों के मन में काल्पनिक प्रवेश कर कुछ अनुमान लगा कर, उनकी आवश्यकताओं को जाना जा सकता है.
पर कैसे?
पुस्तक का लेखक एक टिप्पण वही बनाकर अपने हर कर्मचारी की कौटुम्बिक जानकारी लिख रखने का परामर्श देता है. एक एक पन्नेपर एक नाम, उसके नीचे उसके पारिवारिक सदस्यों की सूक्ष्म जानकारियाँ. उसकी संभावित समस्याएँ. आवश्यकताएँ, उसके बाल बच्चों का वृतान्त, इत्यादि.
जब यह प्रबंधक कर्मचारी से इन जानकारियों के संदर्भ से बात करता तो कर्मचारी निकटता का अनुभव करता था. इस निकटता के कारण प्रबंधक अपने व्यवसाय में बहुत सफलता प्राप्त करता था. ऐसी निजी जानकारियाँ कर्मचारी को प्रबंधक से निकटता का अनुभव कराती थी. और इस निकटता के कारण कर्मचारी अपना मन खोल देता.
पूरी २१८ पृष्ठों की पुस्तक व्यावसायिक सफलता की दृष्टि से लिखी गयी थी. पर इस पुस्तक में सुझाई गई प्रक्रिया का उपयोग कर आप वृद्धजनों से निकटता प्राप्त कर सकते हैं. वृद्धों को जब आप निकटता से जानेंगे, तो उनकी आवश्यकताओं से भी अवगत हो जाएंगे. और सहानुभूति से उनके सहायक हो सकेंगे. उनके अनुभवों से सहायता भी प्राप्त कर पाएंगे. बडा सुन्दर महाभारत का सुभाषित स्मरण हो रहा है. मूल सुभाषित है.
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(तीन) न का सभा? (सभा कौनसी नहीं?)

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः
वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।
धर्मो न वै यत्र च नास्ति सत्यम्
सत्यं न तद्यच्छलनानुविद्धम् ॥

अर्थ: सभा कौनसी नहीं?)
वह सभा नहीं, जहाँ वृद्ध (उपस्थित) न हो,
वे वृद्ध नहीं जो धर्म के पक्ष में न बोलें।
वह धर्म नहीं जो सत्य घोषित न करें,
और वो सत्य नहीं जो छलकपटपूर्ण हो॥
चार पंक्तियों में ठूँस ठूँस कर विवेक परोसने वाला यह सुभाषित प्रभावी है और मार्मिक भी. इसकी मार्मिकता इसके साररूप विवेक में है, या तर्कपूर्ण कार्य-कारण -अलंकृत श्रृंखला में, नहीं जानता; पर विवेक से परिपूर्ण यह सुभाषित मुझे बहुत सुहाता है. संक्षेप में यह कहता है;

*वृद्धों के बिना सभा नहीं. वे वृद्ध नहीं जो धर्म ना बोलें. वह धर्म नहीं जो सत्य (न्याय) का पक्ष ना लें और वह सत्य (न्याय) नहीं जो छल-कपट का आश्रय करें.*

(चार) संस्कृति का पारिवारिक आदर्श:
कुटुम्ब-परिवार में, ऐसा छलकपट (पॉलिटिक्स) रहित विवेकी व्यवहार, माता-पिता द्वारा ही सर्वाधिक संभव है. माता-पिता के अतिरिक्त आपके सर्वाधिक हितैषी और कौन हो सकते हैं?
ऐसे सभा के अतिरिक्त भी वृद्धोंका ऐसा पारिवारिक योगदान हो सकता है.
इसी पहलु पर कुछ प्रकाश फेंकना चाहता हूँ.
ये अनुभवों के विश्वकोष पौत्र-पौत्रियों के स्मृति पटल पर वात्सल्य की अमिट छाप छोडकर उनके व्यक्तित्व को ऊर्ध्वगामी दिशा देनें में भी प्रोत्साहक होंगे. दादा दादी के साथ जुडी हुयी उष्माभरी स्मृतियाँ बालकों के जीवन में दिग्दर्शक संबल (पाथेय) सिद्ध होगी. हर सफल व्यक्तित्व में जो आत्मविश्वास होता है; उसका विश्लेषण किया जाए तो ऐसे कई अनजाने अवचेतन (सब कॉन्शस) घटक उभर आएँगे.

(पाँच) सफलता के पीछे की स्मृतियाँ

किसी सफल व्यक्ति को अपने दादा-दादी या नाना-नानी के विषय में पूछिए; प्रमाणित हो जाएगा. ऐसी उष्माभरी गोद आपके भी भाग आई हो, तो सचमुच आप बडे भाग्यवान हैं. ऐसी गोद में सारे त्रिभुवन का सुख समाया होता है. किसी सिंहासन से भी इस उष्माभरी गोद की तुलना नहीं की जा सकती.
*बचपन की ऐसी सुखद और समृद्ध स्मृतियाँ व्यक्ति की सफलता में अकल्पनीय अकथ्य योगदान देती हैं.
सुधी पाठक अपने बच्चों को इस धरोहर से वंचित न रखें. आपके बचपन में आपने कितना निश्छल प्रेम पाया है, और कितने हितेच्छुओं का प्रेम पाया है; उसका जोड आपका पाथेय है. जिस के सहारे आप शेष जीवन में सुख संतुष्टि का अनुभव करते हैं. कुछ मात्रा में यह घटक-प्रभाव अविश्लेषणीय है. प्रत्येक व्यक्ति ऐसे स्मृतियों के पुंज (संस्कार)से परिचालित होती है.
व्यक्ति के व्यक्तित्व के पीछे की स्मृतियों का पुंज होता है. यह पुंज उसे परिचालित करता है. कुछ न कुछ स्मृति ही व्यक्ति के अवचेतन (सब कॉन्शस) में अनजाने (व्यक्ति को क्वचित ही पता होता है) ही क्रियान्वयित होती ही रहती है. शेष दूसरे भाग में प्रस्तुत होगा.

1 COMMENT

  1. डॉ. मधुसूदन जी द्वारा प्रस्तुत आलेख के संस्कृत शीर्षक का अर्थ समझने हेतु मैं यहाँ आ पहुंचा हूँ| पूरे छंद व उसके अर्थ को पढ़ मैं सोचता हूँ कि आलेख वृद्धावस्था में हमें अपनी मर्यादा का पालन करने को प्रोत्साहित करता है| मिरकल पीपल पॉवर पुस्तक व्यक्तिगत विकास एवं सफलता हेतु मनोवैज्ञानिक नियंत्रण पर लिखी गई है और अवश्य ही उसमें बताए गुणों को हम अपना सकते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति विशेषकर वृद्धावस्था में हमारे परानुभूतिपूर्ण आचरण द्वारा परिवार के लिए त्याग करना सिखलाती है| संतान द्वारा मर्यादा-पालन उसका कर्तव्य है जिसे बचपन से वे हमें स्वयं अपने माता-पिता के प्रति निभाते देखते आए हैं|

    वृद्धावस्था में हमें केवल अपनी मर्यादा में रह अपने अच्छे आचरण द्वारा संतान का मार्गदर्शन करना है लेकिन कोई कैसा व्यवहार करता है और क्योंकर करता है एक ऐसा प्रश्न है कि जिसका तर्कसंगत उत्तर मिलना बहुत कठिन है। कोई प्रश्न व फिर उसके उत्तर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उपस्थित विवाद का समाधान। प्रश्न-उत्तर स्वयं में निरन्तर विवाद ही है जो व्यक्ति के मन को विचलित बनाए रखता है। मेरा अनुभव है कि प्रश्न-उत्तर एक ताला-चाबी के स्वरूप हैं। दोनों आपस में अनुकूल होने पर कार्यरत होते है व ताला खुल जाता है। और उनके प्रतिकूल होने पर ही प्रश्न-उत्तर का विवाद खड़ा होता है। विवाद नहीं बल्कि वास्तविक अनुकूलता ही मर्यादा है और धैर्य, सहनशीलता, और बलिदान उसके मूलाधार हैं।

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