॥न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः॥ भा. (२)

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डॉ. मधुसूदन
वृद्ध जनों का योगदान: भा. (२)
भाग (१) से आगे–
सारांश:
*आदर्श परिवार का हरेक सदस्य अपनी न्य़ूनतम आवश्यकता के अनुपात में  ले, और अपनी सर्वाधिक सामर्थ्य के अनुपात में योगदान करे.* *अंग्रेज़ी में, From each according his/her capacity to each according to his/her needs.*
*अनुभवों के विश्वविद्यालय में पढी हुई ये नाना-दादा की पीढी अबुध नहीं थी.*
*स्पर्धा  परिवार का आंतरिक आदर्श नहीं है.*
*मैं ज्यादा कमाता हूँ, इस लिए ज्यादा खाऊंगा* यह पशु प्रवृत्ति है. *
*(Survival of the fittest.) बलवान को ही जीवित बचा कर  रखता है. *
*द्वंद्व और संघर्ष जंगल के नियम हैं. वहाँ फाइट ओर फ्लाइट *लडो या भागो *का क्रियान्वयन होता है.
*इस लिए संघर्ष को प्रोत्साहन मिलता  है*
*संघर्ष शत्रुता  जन्माता है*
*जानने के लिए पढें और विचार करें.*

(छः) समृद्ध स्मृतियाँ जीवन का संबल:

बचपन में झुले पर साथ झूलाते बहनों के गीत, और ननिहाल केपरिवार के घनिष्ठ संबंध. आगे बडा होने पर, सोने के पूर्व पहाडों का रटन, मौखिक गणित के प्रश्न, कविताएँ, संस्कृत सुभाषित और पहेलियाँ, और नाना के मुख से सुनी हुयी रामायण-महाभारत की कहानियाँ, पंचतंत्र की बोध कथाएं, ऐसी असंख्य स्मृतियाँ मात्र कुरेदने से उभर आती हैं.
सारी स्मृतियों से आज समझ में आ रहा है, कि *निःसंदेह,अनुभवों के विश्वविद्यालय में पढी हुई ये नाना-दादा की पीढी अबुध नहीं थी. उनके  व्यावहारिक ज्ञान से उस समय भी  मैं शाला-शिक्षकों की अपेक्षा कई अधिक अभिभूत था.

(सात) दीनदयालजी के भाषण:

कुछ समझदारी  आने पर, जब मैं पुणे ओ. टी. सी. (संघ शिक्षा वर्ग)  गया तो दीनदयालजी के बौद्धिक में सुना कि, स्वस्थ परिवार हर सदस्य के पोषण, संरक्षण और योगदान पर टिका होता है. आगे दीनदयाल जी की पुस्तक में पढा जो उनके भाषणों में सुना  हुआ था. कि,*आदर्श परिवार का हरेक सदस्य अपनी न्य़ूनतम आवश्यकता के अनुपात में  ले, और अपनी सर्वाधिक सामर्थ्य के अनुपात में योगदान करे.* अंग्रेज़ी में, From each according his/her capacity to each according to his/her needs.  इस आदर्श को प्रत्यक्ष परिवार में चरितार्थ किया जाता था. ये आधुनिक समता (इक्वालिटी) की विवशता पर टिका नहीं था. इसके प्रत्यक्ष  व्यावहारिक उदाहरण ढूँढने कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं थी. उदाहरण मेरे सामने थे.
पर एक गौण बिन्दू का उल्लेख मैं किए बिना नहीं रह सकता. इसी ओ. टी. सी. में पण्डित सातवळेकर जी, प.पू. गुरुजी, अटलजी, दत्तोपन्त जी, बाबा साहेब आपटे जी, और अन्य वक्ताओं की गरिमायुक्त हिन्दी सुनकर मैं अभिभूत था. लगता था, कि, कोई  अभूतपूर्व भाषा की गरिमा का उत्सव मनाया जा रहा है. ऐसी गरिमा मैं ने कोई अन्य भाषा में  आज तक नहीं पायी. शायद विषयान्तर हो गया, पर मैं  सामने के उदाहरणों के विषय में कह रहा था.

(आठ) उदाहरण सामने थे.

और उदाहरण मेरे सामने थे. देखता था; वृद्धों की देखभाल में कनिष्ठ धोती पहनने वाली पीढी प्राण-प्रण से अतिरेकी योगदान देती  है. नाना के मुँह से निकला शब्द झेलने सभी तैय्यार. परिवार का प्रत्येक सदस्य ईश्वरप्रदत्त कोटि की क्षमता से योगदान करता, और आवश्यकताओं के अनुपात में उपभोग करता. ऐसे आदर्श पर गतानुगतिकता से, रामायण-महाभारत (?) के युग से आज तक परम्परा टिकी हुई है. और ऐसे स्वस्थ परिवारों के अन्य परिवारों  से, व्यवहार पर सामूहिक  कल्याण भी टिका है. यही  हमारी सनातन संस्कृति का रामायण प्रेरित आदर्श है;
ऐसा घोला गया है, कि हमें  सनातन बनाए हुए है.

(नौ) परिवार में, आपसी स्पर्धा ?

स्पर्धा  परिवार का आंतरिक आदर्श नहीं है. परिवार में स्पर्धा अंशतः भी  प्रोत्साहित नहीं होनी चाहिए. उलट *तेन त्यक्तेन भुंजीथा* परिवार का आदर्श हो. *त्याग की भावना को सर्वोपरि रखते हुए  निम्नतम आवश्यक उपभोग.* जो ऊपर बताया जा चुका है.
तो, परिवार किन सिद्धान्तों पर ध्यान केन्द्रित करें?
वह ध्यान केन्द्रित करें तीन सिद्धान्तों पर. (१) योगदान (२) योगदान (३) योगदान.
चिन्ता न करें, स्वयं को  छोडकर दूसरों  को आग्रह करने की हमारी लाक्षणिक परम्परा युगों के थपेडों के बाद आज भी टिकी हुयी है; वैसे, आपकी व्यवस्था भी हो जाएगी. सबसे अंत में भोजन करनेवाली गृहिणी का आदर्श आज भी जीवित है. और, गृहिणी घर की सम्राज्ञी कहलाती है. और सम्राज्ञी(?) सब से पीछे भोजन करती है. वाह, क्या आदर्श है?
अधिकतम योगदान और निम्नतम उपभोग.  मैंने माता जी को पिताजी से पहले भोजन करते देखा नहीं है. पिताजी देर से भी आते तो माता जी रुकी रहती. अब भी माता जी को, दूरभाष जोडता हूँ, तो मेरी और  कुटुम्ब की  कुशलता ही पहले पूछती है.

जिस परिवार में, स्पर्धा सर्वथा वर्ज्य होगी,अन्ततोगत्वा सच्चे अर्थ में, समृद्ध हो कर रहेगा. समृद्धि भौतिक नहीं होती; सर्वांगीण होती है. स्पर्धा से परिवार का र्‍हास होगा. माता-पिता ध्यान दें. सन्तानों में भी स्पर्धा प्रोत्साहित ना करें. परिवार कोई ऑलिम्पिक का क्रीडाक्षेत्र नहीं है; न होना चाहिए. ऐसी पति-पत्‍नी  बीच स्पर्धा, भाई-भाई बीच स्पर्धा,  बहन-भाई बीच स्पर्धा, परिवार-सदस्यों  बीच कोई भी  स्पर्धा  परिवार नष्ट होने का बीजरूपी  कारण  है. इस दिया सलाइ से खेलना मना है.

(दस) तो, युवा पीढी बिना स्पर्धा आगे कैसे बढें?

संसार जब स्पर्धा (कॉम्पिटिशन) से ही आगे बढने को प्रोत्साहित करता है. तात्कालिक लाभ होते हुए भी स्पर्धा स्थायी रूप से हानिकारक, और  आध्यात्मिक उन्नति में बाधा है.  कर्मका (उन्नति) का माप दण्ड कुशलता हो. हर कोई अपनी कर्मठता को  कुशलता के माप दण्ड पर परखें और कसे. इससे असफलता की निराशा से भी बचा जा सकता है. ॥योगः कर्मसु कौशलम्‌॥
भगवान ने गीता के १८ वे अध्याय के १४ वे   श्र्लोक में अधिष्ठान, कर्ता, करण, अलग अलग प्र्कारकी चेष्टाएँ और पाँचवा दैव बताया है.
इन सभी अंगों का अवलम्बन कर कुशलता पूर्वक कर्म करें. पूरा समर्पित प्रयास पर पांचवाँ घटक के अनुसार निश्चिन्त हो कर देवॊं पर छोड दे. इस श्लोक में कहीं स्पर्धा का उल्लेख नहीं है.  सीमित विषय है, विषयांतर नहीं करता.

(ग्यारह) परिवार सदस्यों के बीच स्पर्धा  ?

परिवार में  कोई भी कॉम्पिटिशन हेल्दी  नहीं होती.  (गेम्स) खेल भी शत्रु भाव से खेले न जाएँ. खेल समाप्त होते ही, पारिवारिक भाव का आनन्द जगे. कॉम्पिटिशन नहीं, एक्सलन्स हेल्दी होता है. (एक्सलन्स) कुशलता ही (मानसिक)स्वास्थ्य देती है. अपनी परमोच्च कुशलता और सामर्थ्य  लगाकर काम करें. पश्चिम में स्पर्धा ने ही सारा खेल बिगाड दिया है. परिवार तो थे ही नहीं, कुटुम्ब थे, जो घट रहे हैं. समाप्त हो रहे हैं.
जहाँ परिवार ही चलाना है, सभीका सहकार आवश्यक है.कॉम्पिटिशन नहीं  कोओपरेशन  नितान्त आवश्यक है.

परिवार के बाहर भी कुशलता के माप दण्ड से ही काम करना श्रेयस्कर है.
कुशलता की प्रेरणा का स्रोत स्वयं  में होने से उसका आधार (डिपेन्डन्स)  बाह्य नहीं है. इस लिए ऐसी व्यक्ति पराश्रित नहीं स्वतंत्र है. आप अपने ही श्रेष्ठतम प्रयास से संचालित और निर्भर होते हैं. कर्मयोग यही है. इस आध्यात्मिक दिशा में ऊर्ध्वागमन की प्रेरणा है. और यही व्यक्ति  को सतत प्रोत्साहित रखने में सक्षम है. गीता रहस्य का केंद्रीय विचार तिलक महाराज ने यही बताया है.
सफल होने पर, आप, अपने  यश को भी हलका पहने. तो अपयश की निराशा से भी  बचा जा सकता है. और किसी के द्वेष से भी बचा जा सकता है. कर्मयोग की मानसिकता जितनी विफलता  में  आवश्यक है, उतनी यशस्वी होने पर नहीं. यश के साथ यश की उत्तेजना जुडी होती है; और अपयश के साथ निराशा. इन दोनों अवस्थाओं में जिसकी प्रज्ञा अविचलित रूप धारण करे वह स्थितप्रज्ञ है. जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, अपयश में भी कर्मरत रहे हैं. काफी उदाहरण हैं; आप ढूँढ सकते हैं.

(बारह) स्पर्धा जंगल का नियम है:

*मैं ज्यादा कमाता हूँ, इस लिए ज्यादा खाऊंगा* यह पशु प्रवृत्ति है. जंगल के पशुओं का व्यवहार ऐसा होता है. Because I earn , so I will get a bigger share यह भारतीय विचार नहीं है. यह पशुओं की  परम्परा है. जंगली पशु ही दुर्बल पशुओं को मार देते हैं.  वहाँ  प्रबल पशु ही सारे उपभोग  करता है. वहाँ स्पर्धा है. वहाँ का (कानून )नियम है, (Survival of the fittest.) बलवान को ही जीवित बचा कर  रखता है. द्वंद्व और संघर्ष जंगल के नियम हैं. वहाँ फाइट ओर फ्लाइट (लडो या भागो) और बचों (Survival of the fittest.) का क्रियान्वयन होता है. इस का अनुसरण संघर्ष पर बल देता है. और अधिकार प्रधानता के कारण  संघर्ष प्रोत्साहित होकर, परस्पर पूरकता का भाव प्रधान स्थान से च्युत होकर गौण स्थान में आ गया. अप्रत्यक्ष रूप से यह विनाश की दिशा में आगे बढाता है.

परिशिष्टः
संदर्भ: पं. दीनदयाल उपाध्याय; *कर्तृत्व एवं विचार* के पृष्ठ ४२८ से उद्धृत हैं:

*हमारे अस्तित्व का कारण संघर्ष नहीं, वरन् *परस्परावलम्बन * व पूरकता है.
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पूरकता: दीनदयाल उपाध्याय जी की मान्यता है कि पश्चिमी दार्शनिकों ने डार्विन के जीव शास्त्रीय सिद्धान्त *सर्वाइवल ऑफ द फ़िटेस्ट *(शक्तिशाली ही जीवित रहेगा)* का समाजीकरण करके मनुष्य को गलत दिशा दी है. प्रकृति में यत्र-तत्र संघर्ष के उदाहरण हैं, लेकिन हमें उसमें समन्वय की खोज करनी चाहिए,
क्योंकि हमारे अस्तित्व का कारण संघर्ष नहीं, वरन् *परस्परावलम्बन * व पूरकता है.
** वनस्पति और प्राणी, दोनों एक-दूजे की आवश्यकता को पूरा करते हुए ही जीवित रहते हैं. हमें ऑक्सिजन वनस्पतियों से मिलती है तथा वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइआक्साइड प्राणी-जगत से प्राप्त होती है. इस परस्पर पूरकता के कारण ही संसार  चल रहा है.**
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अंत में ==> वृद्धों के बिना सभा नहीं. वे वृद्ध नहीं जो धर्म ना बोलें. वह धर्म नहीं जो सत्य (न्याय) का पक्ष ना लें और वह सत्य (न्याय) नहीं जो छल-कपट का आश्रय करें.* और *न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः*

5 COMMENTS

  1. अति सुन्दर विचार हैं और मेरा मानना है कि आज भारतीय युवाओं में ऐसे भाव जगा डॉ. मधुसूदन जी का आलेख चरित्र निर्माण हेतु उन्हें कुशल मार्गदर्शन देता है| मैं चाहूंगा कि इस आलेख को विभिन्न भारतीय मूल की भाषाओँ में अनुवादित कर उनकी अधिक से अधिक प्रतियां भारतीय जनसमूह में बांटी जाएं|

  2. हम चौबारे में सुपर-सीनियर्स का करते हैं अभिनन्दन ।
    हम उनका स्वागत करते हैं,मंगलमय हो ये शुभागमन ।।१।।
    *
    ये उम्र में ही हैं नहीं बड़े , ये ज्ञान और अनुभव में भी बड़े।
    हम गाइडेन्स इनसे पाते हैं,और करते इनको सदा नमन ।।२।।
    *
    ये ज्ञान की चर्चा करते हैं , और अनुभव हमें बताते हैं ।
    आशीष हमें इनका मिलता, हो सुखी सदा इनका जीवन।।३।।
    *
    ये हैं बुज़ुर्ग पर हैं जवान, जो ज़िंदादिली से जीते हैं ।
    है बुद्धि सदा इनकी निर्मल , और कार्य भी हैं इनके पावन ।।४।।
    *
    ये ख़ुद को बूढ़ा न समझें , ये तो यंगस्टर से ऐक्टिव हैं ।
    आई.सी.सी.में नित आया करें,और करें यहाँ पर योगासन।।५।।
    *
    हाँ, कष्ट न इनको कोई मिले , चिरजीवें ख़ुशियाँ बरसाएँ।
    प्रभु! इन पर सदा कृपा करना, है यही कामना मनभावन ।।६।।
    ***************
    – शकुन्तला बहादुर एवं
    इंडिया कम्यूनिटी सेंटर कूपरटीनो परिवार

  3. शर्मा जी–नमस्कार

    बहुत समय हुआ, जब आप की प्रोत्साहक टिप्पणियाँ आती रहती थी.

    (१) कारण, यहाँ सहज सामने तुलना का लाभ मिलता है.अति समृद्ध अवस्था में भी भोग प्रधान संस्कृति टिक नहीं पाती.

    और मुझे अनायास भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का प्रमाण दिखता है, उसे प्रामाणिकता से लिखता हूँ.

    (२) उन ऋषियों को नमन, जिन्हों ने ऐसी अजेय संस्कृति को अपनी अस्थियाँ तक प्रदान देकर प्रतिष्ठित किया, विकसाया- सनातन बनाया.

    सभी का ऋणी हूँ.

    मुझे कहनेवाले मिलते हैं, कि तुम्हें हिन्दी में कौन पढता है?

    आप की टिप्पणी, उनको उत्तर देने काम आएगी.

    धन्यवाद

    मधुसूदन

  4. एक अत्यन्त ज्ञानवर्धक ,प्रेरणादायक ,सुरुचिपूर्ण लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद . सुदूर अमेरिका में अभियांत्रिकी के आचार्य होते हुए भी भारतीय संस्कृति के प्रति इतना गहरा ज्ञान तथा अनुराग आश्चर्यचकित कर देने वाला है .आपकी लेखनी चिरकाल तक इसी प्रकार हम लोगों का मार्गदर्शन करती रहे भगवान् से यही प्रार्थना है

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