ना ही शरीर ना ही मन हूँ,
आत्म स्वयम्भू;
क्यों वृथा व्यथा मैं हूँ सहूँ,
विचरते विभु !
करते हैं नाट्य सब पदार्थ,
प्राण त्राण वश;
अस्तित्व कहाँ अपने,
नृत्य करते वे विवश !
शक्ति है शिव की,
प्रकृति कृति गति उन्हीं के हाथ;
वे ही त्रिलोक विचरें सतत,
पात्र हर के साथ !
हैं देश काल उनके,
ब्रह्म-कण उन्हीं के गात;
वे ही समात प्रष्फुरात,
विहँसे सिहरे गात !
वे मेरे शीष दे अशीष,
‘शिवोऽहम्’ कहत;
‘मधु’ उनकी गोद बैठे रमत, रुनझुनात भू !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’