माल्या का द्वितीय संस्करण नीरव मोदी

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प्रमोद भार्गव
देश जब बढ़ती गैर-निष्पादित संपत्तियों और घाटे में जा रहे सरकारी बैंकों की चिंता में डूबा हो, तब पंजाब नेशनल बैंक की मुबंई स्थित एक ही शाखा से 11 हजार 400 करोड़ का महाघोटाला आश्चर्य में डालने वाला है। शराब कारोबारी विजय माल्या का यह द्वितीय संस्करण इसलिए है, क्योंकि जिस तरह माल्या ने 9000 करोड़ की बैंकों को चपत लगाई और ब्रिटेन भाग गया, कमोवेश उसी तर्ज पर गहनों का कारोबारी नीरव मोदी अपने परिजनों एवं साझेदार सहित स्विट्जरलैंड भाग गया। इनके आलावा आईपीएल का आयुक्त ललित मोदी, काॅरपोरेट लाॅबिस्ट दीपक तलवार और आयकर चोरी में सिरमौर रहे संजय भंडारी भी कई हजार करोड़ की चपत लगाकर देश से नौ दो ग्यारह हो चुके हैं। इस ताजा घोटाले से सरकारी बैंकों की साख को बट्टा लगा है। हर एक बैंक उपभोक्ता इस ऊहापोह में हैं, कि जब हजार या लाख का कर्ज देने में ही बैंक बमुश्किल तमाम कागजी खानापूर्ति के बाद कर्ज देते हैं तो फिर पीएनबी की एक ही शाखा ब्राडी हाउस से करीब 114 अरब की धोखा-धड़ी कैसे हो गई ? जबकि नीरव की पत्नि और भाई भारतीय नागरिक भी नहीं थे। यह हेराफेरी एलओयू यानी लेटर आॅफ अंडरटेकिंग के आधार पर की गई। मोदी ने एलओयू लिए और विदेशों में निजी तथा भारतीय बैंकों की शाखाओं से उन्हें भुना लिया। एलओयू एक प्रकार का ऐसा बैंकर्स चैक की तरह गारंटी पत्र होता है, जिसे एक बैंक अन्य बैंकों के लिए जारी करता है। हैरानी में डालने वाली बात यह भी है कि यूपीए सरकार के दौरान 2011 से शुरू हुई यह गड़बड़ी 2017 तक धड़ल्ले से चलती रही, लेकिन चार स्तरीय होने वाले आॅडिट में इसकी भनक तक नहीं लगी। इससे संदेह होता है कि महालेखाकार कार्यालय के अंकेक्षकों ने या तो धन लेकर इस गड़बड़ी को गोपनीय बनाए रखने का काम किया या फिर ठीक से आॅडीटिंग ही नहीं की गई ?
47 साल के हीरा कारोबारी नीरव मोदी को हीरे के गहनों का श्रेष्ठ कारीगर माना जाता है। इसका पूरा परिवार इसी कारोबार में है। बचपन से ही मोदी अपने पिता के साथ हीरा तराशने से लेकर, उन्हें विभिन्न आकार देने में दक्ष हो गया था। मोदी को पढ़ाई के लिए पेंसिलवेनिया भेजा गया। यहां उसने वित्त विषय  की पढ़ाई की, लेकिन उसे अधूरा छोड़कर हीरे के कारोबार में भाग्य अजमाने का मन बना लिया। 1990 में मोदी मुबंई आ गया और हीरे के व्यापारी अपने चाचा के साथ काम करने लगा। जब उसने कुछ अनुभव प्राप्त कर लिया तो 15 लोगों के साथ मिलकर फायर स्टार नाम की कंपनी बनाई। मोदी के पास विदेशी ग्राहकों की संख्या अच्छी-खासी हो गई। वह उनके लिए मौलिक आकार में हीरे और सोने के गहने गढ़ने लगा। चूंकि भारत में हीरा तराशने की लागत विदेश के मुकाबले कम थी, जिसका मोदी ने पूरा फायदा उठाया और एक ग्लोबल कंपनी तैयार कर ली। व्यापार शुरू करने के पांच साल के भीतर ही नीरव मोदी की कंपनी ने एक्सपेंशन के लिए अमेरिका की दो बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया। इस सफलता के साथ ही फायरस्टार डायमंड का कारोबार अमेरिका सहित यूरोप, मिडिल ईस्ट और इंडिया में फैल गया। अब तक नीरव की गिनती भारत के 50 सबसे धनी उद्योगपतियों में हो रही थी। फोब्र्स पत्रिका ने 2016 में उसे अरबपतियों की सूची में भारत में 46वें और दुनिया में 1067वें स्थान पर रखा था। हालांकि इसी सूची में 2017 में उसे 85वां स्थान मिला। पर इस घोटाले के सामने आने के बाद स्पष्ट हो गया कि उसकी यह व्यावसायिक उपलब्धि और प्रसिद्धी के पीछे पीएनबी की लूट का हाथ था। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह आस जगी थी कि अब माल्या जैसी हेराफेरियां संभव नहीं होंगी, लेकिन नीरव मोदी ने माल्या के ही नए संस्करण में आकर इस धारणा को पलीता लगा दिया है। इससे पता चलता है कि न तो बैंकिंग प्रणाली में कोई सुधार हुआ है और न ही महालेखागर की अंकेक्षण प्रणाली में कोई सजगता दिखाई दी है।
पीएनबी की इस ठगी को कोर बैंकिंग प्रणाली को दरकिनार कर ग्लोबल फाइनेंशियल मैसेजिंग सार्विस (स्विफ्ट) का इस्तेमाल किया गया। इसके जरिए अन्य भारतीय बैंकों की विदेशी शाखाओं को भुगतान के लिए सूचना पत्र जारी किए गए। कंप्यूटराइज्ड व्यवस्था होने के बावजूद इन आंकड़ों को मैनुअल रखा गया। इस कारण विदेश में क्रेडिट हासिल करने के लिए इस्तेमाल होने वाले ‘स्विफ्ट‘ से जुड़े संदेश पीएनबी के फिनेकल साॅफ्टवेयर सिस्टम में तत्काल उपलब्ध नहीं हुए, क्योंकि ये बैंक के कंप्यूटराइज्ड कोर बैंकिंग सिस्टम में एंट्री किए बिना ही जारी किए जाते हैं। बताते है पीएनबी के दो कर्मचारियों ने ‘स्विफ्ट‘ का प्रयोग कर विदेशों में स्थित इलाहाबाद बैंक, एक्सिस बैंक, यूबीआई बैंक, यूनियन बैंक और ओवरसीज बैंक की शाखाओं को पेमेंट नोट जारी कर इस हेराफेरी में भागीदारी की।

इस तथ्य से सभी भलिभांति परिचित हैं कि बैंक और साहूकार की कमाई कर्ज दी गई धनराशि पर मिलने वाले सूद से होती है। यदि ऋणदाता ब्याज और मूलधन की किस्त दोनों ही चुकाना बंद कर दें तो बैंक के कारोबारी लक्ष्य कैसे पूरे होंगे ? हालात इतने बद्तर हो गए है कि 40 सूचीबद्ध बैंकों का 4,43,691 करोड़ रुपए डूबंत खाते में आ गया है। ऐसी कंपनियों की संख्या लगभग 1100 है,जो वर्षों  से किस्त नहीं चुका रही हैं। चूंकि सरकार और बैंक इस कर्ज को वसूलने के लिए सख्ती से पेश नहीं आ रहे हैं,इसलिए यह आशंका भी पनप रही है कि सरकार और बैंकों की साठगांठ के चलते आम जनता की गाढ़ी कमाई की पूंजी हड़पने के लिए कुछ बड़े कर्पोरेट घरानों ने यह सुनियोजित ढंग से शड्यंत्र रचा है। कर्ज में डूबी 1129 ऐसी कंपनियां हैं, जिन पर निरंतर कर्ज बढ़ रहा है। देश के बैंकों में जमा पूंजी करीब 80 लाख करोड़ है। इसमें 75 प्रतिशत राशि छोटे बचतकर्ताओं और आम जनता की है।
देश में औद्योगिक घरानों को आसानी से हजारों करोड़ का कर्ज मिल जाता है,जबकि छोटे कर्जदारों को बैंकों के कई-कई चक्कर लगाने होते हैं। विसंगति यह भी है कि उद्योगों के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज मिलता है। इन बाधाओं की वजह से नवीन उद्यमियों व नवोन्मेशियों को अपना कारोबार शुरू करना ही मुश्किल होता है। घर के लिए कर्ज लेना भी कठिन होता है। यही वजह है कि आम आदमी सूदखोर महाजनों के चगंुल में फंसता जा रहा है। ऐसी विषम कठिनाइयों के चलते माइक्रो फाइनेंस का धंधा पूरे देश में फला-फूला है। जबकि ये 30 फीसदी की ऊंची सालाना ब्याज दर पर गरीब और मध्य वर्ग के लोगों को कर्ज देते हैं। लेकिन यह कर्ज का ऐसा दुष्चक्र है,जिसमें फंसकर व्यक्ति उबर नहीं पाता। यहां तक कि कई कर्जदार आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। इस हकीकत से पता चलता है कि बैंकिंग क्षेत्र कमजोर तबकों का साहरा बनने में नाकाम हो रहे हैं। जबकि इसके विपरीत यही बैंक धनी वर्ग की सुख-सुविधाएं बढ़ाने,औद्योगिक क्षेत्र के वित्तीय स्रोत खोलने और कुप्रबंधन के चलते डूबने वाली कंपनियों को उबारने का जरिया जरूर बने हुए हैं। इस कवायद में बैंकों का एनपीए इतना बढ़ गया कि बैंक तो आर्थिक रूप से खस्ताहाल हुए ही,देश की समूची अर्थव्यवस्था भी डावांडोल है।
कर्ज का सूद समेत नहीं लौटने का असर नई और अधूरी परियोजनाओं पर पड़ रहा है। दरअसल, कर्ज के रूप में दी गई धनराशि के लौटने से ही उसका फिर से निवेश संभव है। लेकिन एनपीए की समस्या को नीतिगत स्तर पर भी देखने की जरूरत है। भारत में किसी कंपनी को दिवालिया घोषित करने और उसकी संपत्ति की नीलामी की प्रक्रिया पूरी करने में लंबा समय लगता है। यह सच्चाई किंगफिशर के मामले में सामने भी आ चुकी है। इसी से प्रेरित होकर नीरव मोदी भगा है। नियमों में शिथिलता के चलते ही देश की अदालतों में दिवालिया घोषित करने और संपत्ति की कुर्की से जुड़े 60 हजार प्रकरण विचाराधीन हैं। लिहाजा इन लचर नियमों को ‘चैक बाउंस‘ से संबंधित मामलों की तरह चुस्त-दुरस्त करने की जरूरत है। इस दृष्टि से बैंक द्वारा एक ही कंपनी और कंपनी समूह को कर्ज देने की सीमा भी निर्धारित करना जरूरी है। फिलहाल कोई बैंक अपनी कुल पूंजी का 25 प्रतिशत तक सिर्फ एक कंपनी को और 55 फीसदी तक किसी एक कंपनी समूह को कर्ज दे सकता है। यह लोच बैंक अधिकारियों को उदारता से ऋण मंजूर करने का अधिकार देता है। बैंकों में कदाचरण भी ऐसे ही झोलों के चलते पनपा है।

 

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