नकारात्मक व ओच्छी मानसिकता की पत्रकारिता

राकेश कुमार आर्य

खोजी पत्रकारिता और लोकतंत्र का चोली दामन का साथ है। पत्रकारिता के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि लोकतंत्र विचारों को निर्बाध रूप से बहने देकर उनसे नवीन आविष्कारों को जन्म देकर लोगों के वैचारिक और बौद्घिक स्तर को ऊंचा उठाने में सहायक शासन प्रणाली का नाम है। नवीन आविष्कारों से ही लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का सपना साकार हो सकता है। खोजी पत्रकारिता का आविष्कार इसीलिए हुआ कि पत्रकारिता जगत विचारों की हत्या न होने दे और न ही लोककल्याणकारी विचारों के सतत प्रवाह को रूकने दे। खोजी पत्रकारिता का अभिप्राय किसी घोटाले से या किसी हत्या के रहस्य से पर्दा उठाना ही नहीं है, और ना ही इसका रहस्य किसी अधिकारी या व्यक्ति का या किसी कर्मचारी को लेखनी के आतंक से आतंकित कर उसका भयादोहन करना है, अपितु इसका वास्तविक अर्थ उन विचारों, सिद्घांतों और मान्यताओं की खोज करते रहने से है जो हमारे लिए उपयोगी होकर भी काल के प्रवाह में बहते बहते या तो पीछे छूट गयी हैं, या जिन्हें अपनाकर हम अपना और लोक का कल्याण कर सकते हैं।

लोकतंत्र और धर्म का अन्योन्याश्रित संबंध है। धर्म हमारे लिए अभ्युदय की प्राप्ति और नि:श्रेयस की सिद्घि के सारे उपाय सुनिश्चित करता है और हमारी प्रतिभा व बौद्घिक क्षमताओं को खुली चुनौती देता है कि अभ्युदय की प्राप्ति और नि:श्रेयस की सिद्घि जिस प्रकार भी हो सके करिये और खोजिये लोकतांत्रिक उपायों को जो आपको इस लोक के संपूर्ण ऐश्वर्यों का स्वामी बनाकर परलोक में मोक्ष के पद का पात्र बनाने की शक्ति व सामथ्र्य रखते हों। इहलोक में जब संपूर्ण ऐश्वर्य के हम स्वामी होकर भी परलोक में मोक्ष की साधना करने वाले होते हैं तो यह बहुत बड़ी साधना होती है। इहलोक में संपूर्ण ऐश्वर्य मिले और वह भी नैतिक वैधानिक साधनों से मिले यह सारी प्रक्रिया लोकतांत्रिक भी है और धार्मिक भी है। संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करना हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है, जिससे हमें कोई रोक नहीं सकता, पर इस अधिकार पर धर्म की नकेल है कि साधन पवित्र हों। इन पवित्र साधनों से इहलोक और परलोक की गति होती है।
एक सच्चा पत्रकार संपूर्ण लोकमात्र को लोकतंत्र के इसी मार्ग पर लेकर चलता है। वह लोगों को बताता है कि लोकतंत्र क्या है और यह कैसे धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप को हमारे सामने एक चुनौती बनाकर प्रस्तुत करता है? साथ ही यह भी कि शासन की इसी प्रणाली में हम कैसे अपना और लोक का कल्याण कर सकते हैं? एक सच्चा पत्रकार जीवन भर मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करता है और अन्याय, अत्याचार एवं अज्ञान के विरूद्घ अपनी लेखनी उठाता रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ कहा जाता है। ऐसी परिस्थितियों में पत्रकारिता के क्षेत्र में धर्म के मर्मज्ञ विद्वान आचार्यों का और मनीषियों का पदार्पण ही अपेक्षित है। जिससे कि लोकतंत्र और धर्म के अन्योन्याश्रित संबंधों को स्थापित कर मनुष्य मात्र के इहलोक और परलोक को सुधारने वाले मानवीय मूल्यों का परिमार्जन व शोधन होता रहे। यह परिमार्जन और शोधन ही वास्तविक खोजी पत्रकारिता है। बहुत बड़ी चुनौती है यह खोजी पत्रकारिता।
यह दुख का विषय है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग प्रवेश कर गये हैं-जिनका खोजी पत्रकारिता से दूर दूर का भी संबंध नही है, उन्हें ना तो लोकतंत्र की परिभाषा ज्ञात है और ना ही धर्म की परिभाषा का ज्ञान है। वह उत्पीडऩ और भयादोहन कर लेखनी के साथ अन्याय करते हैं और समाज पर लेखनी का आतंक स्थापित करते हैं। ऐसी प्रवृत्ति निश्चय ही भयावह है।

अभी पिछले दिनों बागपत के विद्यालय में एक पत्रकार बंधु गये और उन्होंने एक बच्चे की वह तस्वीर ले ली जिसमें वह बच्चा अपने खाने के पश्चात कुछ बिखर गये चावलों को अपने आप झाडू से साफ कर रहा था। यह चित्र दोपहर 11.30 बजे का है। इस विद्यालय का नाम प्राथमिक विद्यालय सिपानी नं. 2 है, और इसकी प्राचार्या श्रीमती प्रवेश रानी हैं। यह समाचार पूर्ण रूप से झूठा है और भ्रामक तथ्यों पर आधारित है। वास्तव में यह नकारात्मक पत्रकारिता है। ऐसे चित्रों को लेकर कुछ तथाकथित पत्रकार अपनी पत्रकारिता पूरी कर लेते हैं। उन्हें तसल्ली हो जाती है कि तूने एक विद्यालय पर या एक संस्था पर अपनी लेखनी का आतंक बैठाकर बड़ा काम कर दिया है। हम भी मानते हैं कि जहां विद्यालयों में बच्चों से ऐसी बेगार करायी जाती है और विद्यालय में सफाईकर्मी की व्यवस्था न कराके बच्चों से ही ये कार्य कराये जाते हैं वे सब गलत हैं। परंतु भारत की शिक्षा प्रणाली में सेवा और संस्कार दोनों एक महत्वपूर्ण विषय है। बच्चों को गुरूकुलों में ये दोनों बातें घुट्टी के रूप में पिलायी जाती थीं और हम देखते हैं कि वे बच्चे समाज व संसार के लिए बहुत उपयोगी बनकर निकलते थे। हमारी गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली की यह विशेषता पिछले 25-30 वर्षों में निजी स्कूलों ने छीन ली है। जिसका परिणाम आ रहा है कि आज की युवा पीढ़ी को अपना काम अपने आप करने में तो शर्म आ ही रही है-साथ ही माता-पिता गुरू या बड़ों का काम करने में भी शर्म आ रही है। जिससे समाज से सेवा और संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं। आधुनिक सुविधा भोगी शिक्षा प्रणाली का यह सर्वाधिक दुर्भाग्य पूर्ण पक्ष है और इसे हमारा पत्रकारिता धर्म उस समय हवा दे जाता है जब वह उपरोक्त घटनाओं को बढ़ा चढ़ाकर प्रकाशित करता है। यदि यही स्थिति रही तो आने वाले 25-30 वर्षों में समाज से सहयोग, समर्पण और श्रद्घा के भाव पूर्णत: समाप्त हो जाएंगे और हम एक असंवेदनशील समाज को बनते देखेंगे।
पत्रकारिता का धर्म है कि वह उन बच्चों की तस्वीरें भी ले जिन्हें उनके माता-पिता सब्जी की ठेलियां देकर सडक़ों पर उतार देते हैं, या उनसे बालावस्था में कठोर परिश्रम कराते हैं, कूड़ा बीनने के लिए उन्हें विवश करते हैं और विद्यालयों की ओर झांकने भी नही देते। उस अवस्था से बच्चों को मुक्त कराना और उनके लिए विकास के अवसर उपलब्ध कराना पत्रकारिता भी है और धर्म भी है। हमारे यहां तो ऐसी माता को शत्रु और पिता को बैरी कहा गया है जो बच्चों को शिक्षा नहीं दिलाते। इस देश में ऐसे कितने माता-पिता हैं जो यह अपराध कर रहे हैं? यह खोजने का विषय है। सेवा संस्कार सीखने वाले बच्चों की तस्वीर खींच लेना और किसी प्राचार्या को उत्पीडि़त करना तो नकारात्मक पत्रकारिता और ओच्छी मानसिकता को दिखाता है। अच्छा हो कि ऐसी ओच्छी मानसिकता के लोगों पर नकेल डालने के लिए योगी सरकार कुछ ठोस उपाय करे।

1 COMMENT

  1. rakesh jimujhe lagta hai aappatarkarita per parhar kar rahe ho patrkar bandhu ne jo bhi khabar leke hai kuch to tathye unke pas honge aur aap ko kuch galat lagta hai to indian press council me apni bat rakhna chye mujhe patrkar mitro ek juta nahi hune ke karan hai patrkaro per hamle tez ho raha hai

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