‘नमामि गंगे’ अतीत, वर्तमान और सरकारी योजनाएं

ganga

गंगा की दुर्दशा के लिए गंगा को प्रदूषित करनेवाले जितने जिम्मेदार हैं, उससे कहीं ज्यादा वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिनपर गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का दायित्व दिया गया था। यदि अधिकारी, मंत्री और कर्मचारी सही तरीके से ईमानदारी से अपना दायित्व पूर्ण करते, तो आज गंगा को प्रदुषण मुक्त बनाया जा सकता था। आज आवश्यकता है कि गंगा की निर्मलता के लिए चलाए जानेवाले अभियानों को केवल चर्चा और विवाद का मुद्दा न बनाया जाए, वरन इस मिशन को गंगापुत्र होने के नाते सरकार, समाज और देशवासियों को अंगीकृत करना होगा।

-लखेश्वर चंद्रवंशी लखेश

गंगाभारत की पहचान है। संसार के करोड़ों लोग गंगा के दर्शन के लिए भारत आते हैं। प्रत्येक भारतवासी के मन में गंगा के प्रति अदभुत आस्था है, इसकी अनुभूति आप किसी भी भारतीय से सहजता से प्राप्त कर सकेंगे। गंगा को ‘मैया’ कहकर उसे मोक्षदायिनी के रूप में प्रतिदिन स्मरण करनेवाला हमारा समाज जीवन में कम से कम एक बार गंगा के तट पर जाकर उसके दर्शन की अभिलाषा लिए जीता है। इतना ही नहीं तो मृत्यु पूर्व गंगा जल का पान करने की कामना प्रत्येक के मन में होती है। आखिर कौन-सी शक्ति है गंगा में, जिसने अनंत काल से सबके हृदय को आस्था और विश्वास से ओतप्रोत कर रखा है?

गंगा का उदगम 

हिमालय पर्वत की दक्षिण श्रेणियां गंगा का उदगम स्थल है। प्रवाह के प्रारंभिक चरण में दो नदियां अलकनन्दा व भागीरथी प्रवाहित होती हैं। भागीरथी गोमुख स्थान से 25 किमी स्थित गंगोत्री हिमनद से निकलती है। भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग में संगम करती है, और यहीं से वह गंगा के रूप में पहचानी जाती है। उल्लेखनीय है कि चार धामों में गंगा के कई रूप और नाम हैं। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है, केदारनाथ में मंदाकिनी और बद्रीनाथ में अलकनन्दा। भारत के विशाल मैदानी क्षेत्रों से होकर बहती हुई गंगा बंगाल की खाड़ी में बहुत सी शाखाओं में विभाजित होकर मिलती है। इनमें से एक शाखा का नाम हुगली नदी भी है जो कोलकाता के पास बहती है, दूसरी शाखा पद्मा नदी बांग्लादेश में प्रवेश करती है। इस नदी की पूरी लंबाई लगभग 2507 किलोमीटर है।

गंगा का सदियों पुराना धार्मिक पहलू है जो करोड़ों भारतीयों की आस्था के मूल में विद्यमान है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, यह पवित्र नदी भगवान शंकर की जटाओं से निकली है और इसे स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए राजा भागीरथ ने कठोर तप किया था। इसमें स्नान करने से जीवन पवित्र होता है तथा अस्थियां विसर्जित करने से मोक्ष मिलता है। पूरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसी नदी होगी जिसके सन्दर्भ में जनमानस तथा धर्मग्रंथों में इस प्रकार की मान्यताएं तथा विश्वास निहित हों। गंगा स्नान के लिए विशेष तिथियां तथा कुम्भ मेला जैसे महान पर्व के साथ ही स्थान तथा शुभ मुहर्त भी निर्धारित हैं। इसी आस्था के कारण आज भी लाखों तीर्थ यात्री और विदेशी नागरिक इस पवित्र नदी पर स्नान करने के लिए, बिन बुलाए आते हैं और सारे प्रदूषण के बावजूद स्नान करते हैं। तांबा/पीतल के पात्र में पवित्र जल, अपने-अपने घर ले जाते हैं और पूजा-पाठ में उसका उपयोग करते हैं। यह आस्था, गंगा में लाखों लोगों के स्नान तथा अस्थियों के विसर्जन के बाद भी कम नहीं होती।

आज भी करोड़ों भारतीयों के मन में यह विश्वास है कि गंगाजल में कीटाणु नहीं पनपते और वह सालों साल खराब नहीं होता, और यह सत्य भी है। इसी क्रम में भूवैज्ञानिकों की मान्यता है कि गंगा का जल कभी खराब नहीं होने की विलक्षण क्षमता के पीछे उसके गंगोत्री (उदगम) के निकट मिलनेवाली मसूरी अपनति संरचना (मसौरी सिंक्लिनल स्ट्रक्चर) है, जिसमें रेडियोएक्टिव खनिज मिलता है। गंगाजल में यह रेडियो एक्टिव पदार्थ अल्प मात्र में होने के कारण, वह मनुष्यों के लिए नुकसानदेह नहीं है। प्रकृति नियंत्रित तथा उदगम स्थल पर उपलब्ध ऐसी विलक्षण विशेषता संसार की किसी अन्य नदी को प्राप्त नहीं है। यह विलक्षणता गंगा के महत्त्व को और भी बढ़ा देता है। नेशनल इन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग आफ रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी), नागपुर के नदी विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर टी.के.घोष की रिपोर्ट इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है।

गंगा किनारे जीवन

भारत को नदियों का देश भी कहा जाता है। ‘जहां जल वहां जीवन’ इस तर्ज पर देश के तमाम बड़े-छोटे शहर और गांव नदी किनारे बसे हैं। गंगा, यमुना, नर्मदा, महानदी, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, गोदावरी, कावेरी आदि नदी के तट पर ही भारतीय समाज का विकास हुआ है। इस दृष्टि से देखा जाए तो गंगा भारत की प्रमुख बड़ी नदी है, जिसमें से अनेक छोटी-बड़ी नदियां निकली हैं और अनेकों नदियां विलीन होती हैं। गंगा में उत्तर की ओर से आकर मिलनेवाली प्रमुख सहायक नदियों में यमुना, रामगंगा, करनाली (घाघरा), ताप्ती, गंडक, कोसी और काक्षी हैं तथा दक्षिण के पठार से आकर इसमें मिलनेवाली प्रमुख नदियां चंबल, सोन, बेतवा, केन आदि प्रमुख हैं।

गंगा के मैदान और तट पर हजारों गांव और सैंकड़ों नगर बसे हैं, जिनमें वाराणसी, हरिद्वार और प्रयाग (इलाहाबाद) मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त रूड़की, सहारनपुर, मेरठ, अलीगढ़,  कानपुर, बरेली, लखनऊ, पटना, भागलपुर, राजशाही, मुर्शिदाबाद, बर्दवान (वर्द्धमान), कोलकाता, हावड़ा आदि उल्लेखनीय हैं। उल्लेखनीय है कि गंगा तट पर 1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 29 शहर, 50 हजार से 1 लाख की आबादी वाले 23 शहर तथा 50 हजार तक की आबादीवाले 48 कस्बों का समावेश है। उल्लेखनीय है कि भारत में प्रति वर्ग किलोमीटर औसतन जनसंख्या 312 है, वहीं गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में 520 है। गंगा में मिलनेवाली यमुना के किनारे भी दिल्ली, आगरा, मथुरा आदि बड़े शहर हैं। ये नगर भारत की जनसंख्या, व्यापार तथा उद्योग को दृष्टि से सबसे घने बसे हुए इलाक़ों में गिने जाते हैं।

गंगाअर्थव्यवस्था का मेरुदंड

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्राण है। इस दृष्टि से गंगा उत्तर भारत के सभी राज्यों के अर्थव्यवस्था का मेरुदंड है। हम जानते हैं कि कृषि एवं नगरीय जनजीवन, दोनों ही पानी पर निर्भर होता है।

कृषि : गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों और मैदानों में उगाई जानेवाली मुख्य फसलों में मुख्यतः धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू एवं गेहूं हैं। यह भारत की कृषि आज का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। गंगा के तटीय क्षेत्रों में दलदल एवं झीलों की वजह से यहां मिर्च, सरसों, तिल और जूट की अच्छी फ़सल होती है।

पर्यटन : गंगा धार्मिक यात्राओं और पर्यटन के लिए सर्वाधिक आर्थिक स्रोत है। इसके तट पर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर कई पर्यटन स्थल हैं जो राष्ट्रीय आय को बढ़ाने में सहायक है। गंगा तट के तीन बड़े शहर हरिद्वार, प्रयाग (इलाहाबाद) और वाराणसी (काशी), यह तीर्थ स्थलों में विशेष महत्त्व रखते हैं। इस कारण यहां श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या निरंतर बनी रहती है और धार्मिक पर्यटन में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है।

ग्रीष्म ऋतू में जब पहाड़ों से बर्फ पिघलती है, तब नदी में पानी की मात्रा व बहाव अच्छा होता है। इस समय उत्तराखंड में ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर कौडियाला से ऋषिकेश के मध्य रैफ्टिंग, क्याकिंग व कैनोइंग के शिविरों का आयोजन किया जाता है। यह विचारणीय है कि भारत में आनेवाले विदेशी सैलानियों की औसत संख्या 0.1 प्रतिशत है, जबकि चीन में 3%, फ्रांस में 8% है। गंगा और उसके तटों को सुन्दर और रमणीय बनाने के साथ ही, रैफ्टिंग शिविरों की दृष्टि से इसे विकसित किया जाए तो आज भी यह साहसिक खेलों और पर्यटन का मुख्य आधार बन सकता है।

व्यापार और उद्योग : गंगा के तटों पर अनेक प्रसिद्ध मेलों का आयोजन होता है, और अनेक प्रसिद्ध मंदिर बने हैं। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है, जिसमें मकर संक्राति,  कुंभ और गंगा दशहरा के अवसर पर गंगा स्नान व दर्शन महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। 12 वर्षों में होनेवाले महाकुम्भ (तीर्थराज प्रयाग) और 6 वर्षों में होनेवाले अर्ध कुम्भ (हरिद्वार) में देश-विदेश से लगभग 5 करोड़ यात्री शामिल होते हैं। इसके अतिरिक्त वर्षभर लाखों यात्री गंगा दर्शन के लिए विविध अवसरों पर आते हैं। ये यात्री अथवा पर्यटक आसपास के प्रसिद्द स्थलों में भ्रमण करते हैं और स्मृति स्वरूप वस्तुओं को अपने घर ले जाते हैं। इस दौरान यात्रियों के भोजन, आवास, वाहन और विविध वस्तुओं की बिक्री करनेवाले व्यापारियों और उनसे जुड़े नागरिकों को लाभ कमाने का अवसर मिलता है।

गंगा नदी में मत्स्य उद्योग भी बहुत ज़ोरों पर चलता है। इसमें लगभग 375 मत्स्य प्रजातियां पाई जाती हैं। गंगा में डालफिन की दो प्रजातियां पाई जाती हैं, जिन्हें गंगा डालफिन और इरावदी डालफिन के नाम से जाना जाता है। बंगाल की खाड़ी में गंगा के मिलन स्थल को सुंदरवन के नाम से जाना जाता है जो विश्व की बहुत-सी प्रसिद्ध वनस्पतियों और बंगाल टाइगर के गृहक्षेत्र के रूप में विख्यात है।

नरेंद्र मोदी और नमामि गंगा योजना

गंगा के अध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक महत्त्व को ध्यान में रखकर देश के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गंगा के लिए अलग मंत्रालय का गठन किया। गंगा को अविरल और निर्मल बनाने की व्यापक योजना बनाने के लिए सरकार गंगा मंथन कार्यक्रम भी आयोजित कर चुकी है। मोदी सरकार ने चुनावी वादे को पूरा करते हुए गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के लिए ‘नमामि गंगे’ मिशन शुरू करने की घोषणा की है। मोदी सरकार ने अपने बजट में इसके लिए 2,037 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार का पहला आम बजट 2014-15 पेश करते हुए कहा कि गंगा के संरक्षण और सुधार पर अब तक काफी धनराशि खर्च हो चुकी है लेकिन वांछित परिणाम नहीं निकले हैं।

मिशन नमामि गंगेऔर चुनौतियां

22 सितंबर, 2008 को गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करते हुए भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी की संज्ञा दी। पर हमारे इस राष्ट्रीय नदी गंगा के उदगम स्थल से लेकर कदम-कदम पर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश बिहार और बंगाल के कल-कारखानों का कचरा, गंदा पानी तथा अनुपचारित अपशिष्ट नदी में बेशर्मी एवं देश के कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए चौबीसों घंटे उंडेला जाता है। इस कारण गंगा और उसकी सहायक नदियां तेजी से गटर या गंदे नाले में तब्दील होती जा रही हैं।

गंगा को प्रदूषित करनेवाले औद्योगिक इकाइयों में सबसे ज्यादा संख्या टेनरियों (चमड़ा प्रसंस्करण कारखानों) और बूचड़खानों की है। गंगा के किनारे 444 चमड़ा कारखानें हैं, जिनमें 442 अकेले उत्तर प्रदेश में हैं। इनमें ज्यादातर कानपुर में केंद्रित हैं। कानपुर में ही गंगा किनारे आधे दर्जन से अधिक बूचड़खाने भी हैं जिनकी गंदगी सीधे गंगा में जाती है। कानपुर की टेनरियों से 22.1 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) खतरनाक कचरा और गंदा पानी निकलता है। ऐसे अनेक कारखानों और उद्योगों के रासायनिक अवशेष गंगा के प्रदुषण के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। चमड़ा साफ करनेवाले, लुगदी, कागज उद्योग, पेट्रोकेमिकल, रासायनिक खाद, रबड़ और ऐसे कई कारखानों की गंदगी गंगा में बहाए जाने के कारण औद्योगिक कचरा तेजी से बढ़ रहा है और उसका जहर नदी के बहुत से भाग में मछलियों को खत्म कर रहा है।

गंगा किनारे सैंकड़ों शहर हैं, इन शहरों से प्रतिदिन लाखों टन मल और गंदगी गंगा में बहाया जा रहा है। ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा तट पर 1 लाख से अधिक आबादी वाले 29 बड़े शहरों से ही 1340 एमएलडी अपशिष्ट में बहाया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार गंगा में प्रतिदिन 5044 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) अपशिष्ट छोड़ा जाता है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय (NRCD) के अनुसार, गंगा के प्रदुषण में शहरी अपशिष्टों का 75 प्रतिशत और औद्योगिक कारखानों से निकलने वाली गन्दगी का 25 प्रतिशत भाग शामिल है।

ग्लोबल वार्मिंग का खतरा

ग्लेशियरों की सेहत की जांच करनेवाले हिम वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से हिमालय के अलग-अलग स्थानों में ग्लेशियर्स अलग-अलग गति से सिकुड़ रहे हैं तथा उनकी पानी देने की क्षमता लगातार कम हो रही है। यह सब गंगा और यमुना जैसी बड़ी नदियों को पानी देनेवाले ग्लेशियरों के साथ भी हो रहा है जिसके कारण इन नदियों के ग्रीष्मकालीन प्रवाह में कमी दिखाई दे रही है। उल्लेखनीय है कि इंटर गवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज की चौथी आकलन रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया के ग्लेशियरों की तुलना में हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की गति सर्वाधिक है। उपर्युक्त रिपोर्ट के अनुसार यदि यही गति आगे भी बरकरार रही तो संभावना है कि सन 2035 तक (उसके पहले भी) हिमालय के ग्लेशियरों का नामोनिशान मिट जाए।

ज्ञात हो कि हिमालय के भूविज्ञान से जुड़े विभिन्न पक्षों पर देहरादून स्थित वाडिया संस्थान काम कर रहा है। इस संस्थान में हिमालयीन ग्लेशियर विज्ञान (हिमालयन ग्लेशियोलॉजी) पर नया अनुसंधान केन्द्र खोला गया है। इस केन्द्र ने हिमालय के इको-सिस्टम के स्थायित्व के लिए बेहतर प्रबंध व्यवस्था तथा मार्गदर्शिका विकसित की है। अनुसंधान केन्द्र ने इस व्यवस्था तथा मार्गदर्शिका पर संबंधित राज्य सरकारों से विचार विमर्श किया है।

गंगा एक्शन प्लान और परिणाम

गंगा की सफाई के लिए सन 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ‘गंगा एक्शन प्लान’ (जी.ए.पी.) बनाया, जिसे सरकारी शब्दावली में फेज वन अर्थात प्रथम चरण कहा गया। केन्द्र सरकार की इस योजना का उद्देश्य गंगा के जल की गुणवत्ता में सुधार करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो रोडमैप बनाया गया था, उनमें सीवेज की गंदगी को रोककर उसकी दिशा बदलना, सीवेज की सफाई के लिए उपचार प्लांट लगाना तथा कम लागत वाली स्वच्छता व्यवस्था स्थापित करने के साथ ही गंगा में दाह-संस्कार को हतोत्साहित करना था।

सरकार ने गंगा सफाई परियोजना के दूसरे चरण में गंगा की प्रमुख सहायक नदियों जैसे यमुना,  गोमती, दामोदर और महानन्दा को साफ-सफाई के दायरे में शामिल किया। दिसम्बर, 1996 में राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना बनी और गंगा सफाई प्लान को उसमें सम्मिलित किया गया। इस योजना पर लगभग 837.40 करोड़ खर्च किए गए तथा हर दिन सीवर के 1025 मिलियन लीटर पानी को साफ करने की क्षमता विकसित करने का लक्ष्य रखा गया था। पर लक्ष्य के अनुरूप न काम नहीं हुआ, इसलिए इसका वांछित परिणाम नहीं मिला। इस पर अब तक दो हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च हो गए, लेकिन इतना पैसा खर्च होने और सत्ताईस सालों की कोशिश के बाद भी गंगा पहले से अधिक प्रदूषित है। इतनी बड़ी रकम खर्च करने के बाद भी गंगा एक्शन प्लान बुरी तरह नाकाम रहा।

गंगा एक्शन प्लान के तहत लगाए गए कई बड़े सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट आज बेकार पड़े हैं। केंद्र सरकार ने प्लांट तो स्थापित कर दिए, लेकिन रख-रखाव और संचालन खर्च के कारण शहरी प्राधिकरण उन्हें चला नहीं पाए। राज्य सरकारों और शहरी प्राधिकरणों की उदासीनता की वजह से पैसा बर्बाद हो गया। यहां तक कि गंगा एक्शन प्लान पर खर्च पैसे का कोई व्यवस्थित हिसाब-किताब तक नहीं रखा गया। वर्ष 2000 में पेश अपनी रिपोर्ट में सीएजी के अनुसार, गंगा एक्शन प्लान के तहत शुरू किए गए पैंतालीस सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों में से उन्नीस ने कोई काम नहीं किया। सीएजी ने इसका कारण संयंत्रों को बिजली न मिल पानी, तकनीकी खामियों को दूर न किया जाना और राज्य सरकारों द्वारा फंड न देना बताया था। जाहिर है जब तक राज्य सरकारें खुद उत्साह नहीं दिखाएंगी, तब तक गंगा एक्शन प्लान के नतीजे सकारात्मक नहीं आ सकते।

कौन जिम्मेदार ?

गंगा की इस दुर्दशा के लिए गंगा को प्रदूषित करनेवाले जितने जिम्मेदार हैं, उससे कहीं ज्यादा वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिनपर गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का दायित्व दिया गया था। यदि अधिकारी, मंत्री और कर्मचारी सही तरीके से ईमानदारी से अपना दायित्व पूर्ण करते, तो आज गंगा को प्रदुषण मुक्त बनाया जा सकता था। आज आवश्यकता है कि गंगा की निर्मलता के लिए चलाए जानेवाले अभियानों को केवल चर्चा और विवाद का मुद्दा न बनाया जाए। बहुत सारे आन्दोलन हो गए, भाषण हो गए, अब इसे मिशन के रूप में गंगापुत्र होने के नाते सरकार, समाज और देशवासियों को अंगीकृत करना होगा। मोदी सरकार ने जो ‘नमामि गंगे’ मिशन की पूर्ति का संकल्प अपने सामने रखा है, उसपर देशवासियों का विश्वास है। हम सभी की आस्था और विश्वास मोदी सरकार के मिशन ‘नमामि गंगे’ से जुड़ा है। इसका मुख्य कारण यह भी है कि यूपीए सरकार ने 1985 से 2007 तक जितनी राशि (2000 करोड़) गंगा की सफाई के लिए आबंटित किए थे, जबकि मोदी सरकार ने अपने पहले बजट में ही उससे अधिक राशि (2037 करोड़) इस कार्य के लिए प्रदान किया है। मोदी सरकार के इस निर्णय की सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। अब प्रतीक्षा है उस दिन की, जब हम गंगा मैया के वास्तविक निर्मल जलधारा के दर्शन कर सकेंगे।

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