हाल में नई दिल्ली में ‘औरंगजेब रोड’ का नाम बदलने पर प्रसिद्ध अंगेजी पत्रकार करन थापर ने लेख लिखकर कड़ा प्रतिवाद किया। उन के तर्क विचारणीय, चाहे आश्चर्यजनक हैं, जो प्रकारांतर दिखाते हैं कि लंबे समय से चले आ रहे गलत या जबरिया नामकरण किस तरह हमारी मानसिकता बिगाड़ देते हैं। थापर ने लिखा कि ‘सड़क का नाम उस पर रहने वालों के परिचय से जुड़ा है’, इसलिए उसे बदलना ‘उन नागरिकों की पहचान छीनना है’, कि सरकार ऐसा करके ‘मूर्खता कर रही है’, कि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है, आदि आदि।
विश्वास नही होता कि प्रबुद्ध लोग ऐसे तर्क दे सकते हैं! यदि वह बात होती तो कर्जन रोड, हेस्टिंग्स रोड, बायली रोड, जैसे नामों से किस भारतीय की पहचान जुड़ी थी? फिर, यदि पहचान ही बिगड़ने की चिन्ता है तो प्रयाग जैसे हिन्दू तीर्थराज को ‘इलाहाबाद’ (अंग्रेजी में ‘अल्लाहाबाद’) जैसे विजातीय नाम लादकर जो किया गया, उस की चिन्ता कभी क्यों न हुई? उस पहचान के तर्क से महाराष्ट्र के औरंगाबाद से लेकर बिहार के बख्तियारपुर, सुलतानगंज तक सारे पावन, प्राचीन महान स्थानों, तीर्थों के नामों का जबरन इस्लामीकरण किए होने पर थापर जैसे बुद्धिजीवी क्या कहते हैं? कश्मीर में वह आज भी हो रहा है, (शंकराचार्य पहाड़ी को ‘तख्त-ए-सुलेमान’, कृष्णगंगा नदी को ‘नीलम’, अनंतनाग को ‘इस्लामाबाद’ आदि नामांकित करना या करने की कोशिश)। इस पर करन थापर जैसे लोग कभी एक शब्द नहीं बोलते।
यह मोटी-सी बात है कि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा नाम बिगाड़ना और समय आने पर फिर उन्हीं जबरन थोपे नामों को हटाने का कार्य भी सारी दुनिया में होता रहा है। यहाँ तक कि देसी शासकों द्वारा भी मतवादी, विचारधारात्मक जिद वाले नामकरणों को भी बदला जाता रहा है। उदाहरणार्थ, कम्युनिस्ट तानाशाही के पतन के बाद रूस में ‘लेनिनग्राड’ को पुनः उस के पुराने नाम ‘सेंट पीटर्सबर्ग’, ‘स्तालिनग्राड’ को ‘वोल्गोग्राद’, आदि किया गया। इसी तरह, मध्य एसिया और संपूर्ण पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। पड़ोस में श्रीलंका ने अपने पुराने बिगाड़े नाम सीलोन को त्यागा। सारी दुनिया में ऐसे अनगिन उदाहरण हैं।
इन नाम-परिवर्तनों के पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक चेतना होती है। दक्षिण अफ्रीका में विगत पंद्रह वर्षों में एक हजार से भी अधिक स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं! वहाँ यह विषय इतना बड़ा है कि ‘दक्षिण अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल’ नामक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। यह सब मात्र भावना की बात नहीं है। उस का व्यवहारिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक महत्व है। मूल सिद्धांत यह है कि जो नाम जन-मानस को चोट पहुँचाते या भ्रमित करते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए।
तो क्या तुगलक, औरंगजेब, बाबर या डायर जैसे नाम भारतवासियों को चोट नहीं पहुँचाते? भारत में तुगलक वह विदेशी शासक था जो अपनी असीम क्रूरता के लिए ही कुख्यात हुआ। उसी तरह, बाबर और औरंगजेब के कारनामों की पूरी सूची भारतवासियों, विशेषकर हिन्दुओं को दमित, उत्पीड़ित और अपमानित करने से भरी हुई है। ऐसे विदेशी आतताइयों के नामों से अपनी पहचान जोड़ना भारत का दोहरा अपमान है। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री को इस की ठीक-ठीक समझ नहीं थी, तो जरूरी नहीं कि उन की भूल (हमारी चीन, तिब्बत, कश्मीर, आदि समस्याएं भी उसी नासमझी के अन्य रूप हैं) का बोझ हम सदैव ढोते चलें।
दोहरा अपमान इस अर्थ में, कि देश की राजधानी के सुंदरतम मार्गों को बाबर, औरंजगजेब, आदि के नाम करने वालों ने भारत के सच्चे महान सपूतों को भुला दिया। यह न केवल भारत के स्वाभिमान को चोट पहुँचाता है, बल्कि हमारी नई पीढ़ियों को अज्ञानी और अचेत भी बनाता रहा है। आखिर, विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, कृष्णदेवराय, राणा सांगा, हेमचंद्र, रानी पद्मिनी, गोकुला, चंद्र बरदाई, आल्हा-ऊदल, जैसे अनूठे ऐतिहासिक सम्राटों, राजाओं, योद्धाओं का नाम दिल्ली की सड़कों से क्यों गायब है? इन में से एक-एक अपने कार्य और व्यक्तित्व में अनूठे रहे हैं।
अतः महान भारतीय सपूत राणा सांगा के बदले विदेशी हमलावर तैमूरवंशी बाबर को गौरव देना मूढ़ता की पराकाष्ठा ही है! यह कुछ वैसा ही है जैसे हम लाला लाजपतराय के बदले जॉन सान्डर्स को सम्मान दें। इतिहास में राणा सांगा और बाबर का तुलनात्मक संबंध ठीक वैसा ही है, जो लाला लाजपत राय और सान्डर्स का। अतः विदेशी आक्रांताओं से अपनी ‘पहचान’ जोड़ लेना, तथा उन का नाम आदर से लेने को उदारता, सामासिक संस्कृति, आदि कहना घोर अज्ञान या राजनीतिक धूर्त्तता है।
भारतीय संस्कृति में तो नामकरण एक संस्कारिक अनुष्ठान रहा है। यह व्यक्ति के लिए ही नहीं, सामाजिक-राजनीतिक जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। सर्वजनिक स्थानों के नाम हर देश में सांस्कृतिक अस्मिता या राजनीतिक-बौद्धिक प्रभुत्व के प्रतीक होते हैं। भारत में पिछले आठ सौ वर्षों से विदेशी आक्रांताओं ने हमारे सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक केंदों को नष्ट कर उसे नया रूप और नाम देने का अनवरत प्रयास किया। वह अनायास नहीं था। बल्कि भारतवासियों को मानसिक रूप से भी अधीन करने का उपक्रम था।
यहाँ नाम देने/बदलने का महत्व केवल मुगल या अंग्रेज शासक ही नहीं समझते थे। जब सन् 1940 में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग की और अंततः उसे लिया तो उस का नाम पाकिस्तान रखा। वे चाहते तो नए देश का नाम ‘वेस्ट इंडिया’ या ‘पश्चिमी हिन्दुस्तान’ रख सकते थे – जैसा जर्मनी, कोरिया, वियतनाम आदि देशों के विभाजनों के बाद हुआ था। किन्तु मुस्लिम लीग ने एकदम अलग, मजहबी नाम रखा। इस के पीछे स्पष्टतः एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की सचेत चाह थी। ध्यान दें कि अपने को मुगलों का ‘उत्तराधिकारी’ मानते हुए भी मुस्लिम लीग के नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिन्दुस्तान’ भी नहीं अपनाया। इस से समझें कि राजनीतिक और सांस्कृतिक, दोनों ही कारणों से नाम रखने या बदलने के पीछे कितनी गंभीरता रहती है। स्वतंत्र भारत के प्रथम शासकों में इस की कोई समझ नहीं थी।
हालाँकि, वर्तमान प्रसंग में भी, ‘औरंगजेब रोड’ का नाम बदलने में नाम भर ही काम हुआ है। उस में गंभीरता के बदले हल्की चतुराई ही दिखती है। एक मुस्लिम नाम बदल कर दूसरा मुस्लिम नाम देना चालू राजनीति झलकाता है, ताकि एक विशेष समुदाय नाराज न हो। डॉ. अब्दुल कलाम के नाम से कोई नयी चीज बनाई जानी चाहिए थी। औरंगजेब का नाम हटाने में कलाम का उपयोग राजनीति-चिन्ता दिखाता है। लेकिन इस से अपेक्षित राजनीतिक लाभ भी नहीं मिलने वाला। जो लोग औरंगजेब के पक्षधर हैं, वे डॉ. कलाम को मुसलमान मानते ही नहीं! इसे क्यों भुलाया गया कि जब कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया था तो कुछ मुस्लिम प्रवक्ताओं ने यही कहा था।
अतः सैद्धांतिक या सांस्कृतिक तकाजे से औरंगजेब रोड का नाम बदलने में या तो शिवाजी या गुरू गोविन्द सिंह, या फिर दाराशिकोह का नाम देना चाहिए था। तब राजनीतिक या सांस्कृतिक संदेश अधिक सुसंगत होता। जैसे-तैसे, बिना व्यवस्थित चिंतन के ऐसे नाम-बदल किसी को संतुष्ट नहीं करते, तथा करने वालों पर संदेह पैदा करते हैं। उस अर्थ में करन थापर जैसे लोगों को मौका मिलता रहेगा कि वे हिन्दू समाज को बरगलाते रहें। क्योंकि नाम बदलने में कोई सुसंगत, सैद्धांतिक, सांस्कृतिक दृष्टिकोण नहीं रखा गया। यदि वह किया जाता तो थापर को अधिक सोच-समझ कर बोलना पड़ता।
वस्तुतः हमारे देश में सड़कों ही नहीं, सार्वजनिक भवनों, परियोजनाओं, संस्थानों, आदि के नामकरण के प्रति एक सुविचारित राष्ट्रीय नीति की जरूरत है। दक्षिण अफ्रीका की तरह यहाँ भी कोई राष्ट्रीय आयोग बनना चाहिए जो किसी सुसंगत सिद्धांत के अंतर्गत ऐसे सभी नामों को बदलने तथा आगामी नामकरणों की नीति भई तय करे। केवल वोट के लोभ या दलीय हित का प्रसार करने की मंशा वाले नामों तथा नामकरण परंपरा को सदा, सदा के लिए समाप्त करना चाहिए। यह वह कार्य है जिसे करके मोदी सरकार एक गौरवशाली आरंभ का श्रेय ले सकती है, जिस में कोई खर्च भी नहीं है और देशवासियों में आत्मसम्मान की भावना भरने की संभावना पूरी है।
इस प्रसंग में यह भी नोट करना जरूरी है कि जिस तरह, तुगलक, बाबर, औरंगजेब को सम्मानित करने वाले नाम अनुचित हैं, उसी तरह केवल गाँधी-नेहरू के नाम पर देश भर में हजारों नामकरण किए होना भी अनर्गल और लज्जाजनक हैं। किसी सभ्य देश में ऐसा दासवत् नामकरण नहीं है। साहित्य, कला, संगीत, शिक्षा, विज्ञान, खेल-कूद, आदि से संबंधित विशिष्ट स्थानों, भवनों, योजनाओं, छात्र-वृत्तियों, पुरस्कारों आदि के नाम भी केवल गाँधी-नेहरू परिवार के दो-तीन मनुष्यों के पीछे करते रहने में क्षुद्र पार्टी-प्रचार भावना है! ऐसा किसी प्रतिष्ठित देश में नहीं होता। थर्ड डिवीजन पास या फेल या शिक्षा संस्थान से निष्कासित व्यक्तियों के नाम पर अनेक विश्वविद्यालयों का नामकरण किस देश में होता है? ऐसी लज्जाजनक परिपाटी को बंद करना अत्यंत आवश्यक है।
जहाँ-तहाँ, बिना किसी सुविचारित नीति के नामों को बदलने के बदले नामकरण और पुनर्नामांकन करना कोई अर्थ नहीं रखता। पहले इस पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की पहल होनी चाहिए। इस का अभाव हमारी सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना की दुर्बलता ही दिखाता है। देर-सवेर लोग इसे समझ ही लेंगे। अतः हमारे नए नीति-निर्माताओं को अधिक सावधानी और कुछ दूरदर्शिता दिखानी चाहिए।
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