नानाजी देशमुख : एक विलक्षण व्यक्तित्व

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ये 4 नवंबर, 1974 की बात है. बिहार में जेपी आंदोलन उफान पर था. जयप्रकाश नारायण पटना में हज़ारों लोगों का एक जुलूस लीड कर रहे थे. तत्कालीन सरकार के खिलाफ़ नारे लग रहे थे-सच कहना अगर बग़ावत है तो समझो हम भी बाग़ी हैं. पटना के बेली रोड में जब यह जुलूस रेवेन्यू बिल्डिंग के पास पहुंचा तो अब्दुल गफूर सरकार के प्रशासन का धैर्य टूट गया और तुरंत लाठीचार्ज का आदेश जारी कर दिया गया. स्थानीय प्रशासन ने यह देखने की भी ज़रूरत नहीं समझी कि उसकी लाठियां किस पर गिरने वाली हैं. प्रशासन की लाठियां गिरीं जेपी पर, लेकिन उन्हें बचाने के लिए जो सबसे पहला हाथ जेपी पर छाते की तरह आया, वह नानाजी देशमुख का था. 60 वर्ष के नानाजी ने जेपी पर किए गए सारे वारों को खुद पर झेल लिया और बाद में घायल होकर भी कहते रहे कि वह साठ बरस के नौजवान हैं.

राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं, जिनका नाम विचारधारा, संगठन और दलगत राजनीति से ऊपर लिया जाता है. ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो विपक्षी दलों के भी प्रशंसा के हक़दार बन जाते हैं. भारत में अगर वह व्यक्ति आरएसएस से जुड़ा हो तो यह इज़्ज़त पाना नामुमकिन सा लगता है, लेकिन चंडिकादास अमृतराव देशमुख भारतीय राजनीति की ऐसी ही महान शख्सियत थे. भारतीय राजनीति में ऐसे लोग नहीं बचे हैं, जो सक्रिय होते हुए भी मंत्री की कुर्सी ठुकरा दें. ऐसे राजनेता कहां हैं, जो मंत्रालय की कुर्सी को ठोकर मारकर देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीणों के स्वाबलंबन के लिए जीवन भर काम करते रहें. मगर नाना जी इन्हीं कुछ ख़ास लोगों में से एक थे. नाना जी देशमुख महाराष्ट्र के परभानी ज़िले के कादोली गांव के थे. उनका जीवन संघर्ष की गाथा है. नाना जी देशमुख ने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया था. उनका लालन-पालन उनके ग़रीब मामा ने किया. पैसे नहीं थे, इसलिए अपनी पढ़ाई के लिए नानाजी सब्जियां बेचकर पैसा जमा करते थे. कई बार हालत यह हो जाती थी कि उन्हें मंदिरों में रात गुज़ारना पड़ा. किसे पता था कि महाराष्ट्र का यह बालक आगे चलकर देश की राजनीति की दिशा बदलने वाला है. महाराष्ट्र अगर जन्मभूमि थी तो उत्तर प्रदेश और राजस्थान नानाजी की कर्मभूमि बनी.

हेडगेवार की मौत के बाद नानाजी ने आरएसएस ज्वाइन किया और वह कुछ ही दिनों में उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक बन गए. उत्तर प्रदेश में संघ की विचारधारा और संगठन को फैलाने का काम आसान नहीं था, क्योंकि संघ के पास इसके लिए न तो पैसे थे और न ही समर्थक. नानाजी ने इसी दौरान बाबा राघवदास के आश्रम को अपना ठिकाना बनाया. आश्रम में रहने के लिए उन्हें खाना बनाना पड़ता था और साथ में वह संघ के काम को भी देखते थे. यह बताता है कि नानाजी ने संघ को उत्तर प्रदेश में खड़ा करने के लिए क्या कुछ नहीं किया होगा. तीन साल के अंदर में अपनी कड़ी मेहनत से नानाजी देशमुख ने उत्तर प्रदेश में 250 शाखाएं शुरू कर दी थीं. अपने राजनीतिक और सामाजिक जीवन में नानाजी ने शिक्षा पर बहुत ध्यान दिया. नानाजी देशमुख ने गोरखपुर में देश के पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की. संघ ने 1947 में दो अखबार निकालने का फैसला किया. स्वदेश और पांचजन्य. अटल बिहारी वाजपेयी इस अखबार के संपादक थे और नानाजी मैनेजिंग डायरेक्टर. गांधी जी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबंध लगा, तब इन दोनों अखबारों का काम बंद हो गया था, लेकिन नानाजी भूमिगत होकर दोनों अखबारों को छापते रहे. जब संघ से प्रतिबंध हटाया गया तो संघ ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की. नानाजी के राजनीतिक करियर की शुरुआत यहीं से हुई. उन्हें उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया गया. नानाजी ने भारतीय जनसंघ को उत्तर प्रदेश में खड़ा कर दिया. इसका असर यह हुआ कि 1967 में उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जब पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी, तो इसमें नानाजी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी. इस गठबंधन को एकजुट करने में नानाजी ने अहम रोल निभाया था. उत्तर प्रदेश में पहली गैरकांग्रेसी सरकार देने का श्रेय नानाजी को इसलिए भी जाता है, क्योंकि उन्हीं की वजह से अलग -अलग पार्टियों का गठबंधन बन सका. नानाजी देशमुख राजनीति में शुचिता और नैतिकता के जबरदस्त पैरोकार थे. इसलिए उन्होंने विनोबा भावे के साथ मिलकर भूदान आंदोलन में भी हिस्सा लिया. जब जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया, तब नानाजी इस आंदोलन में अहम भूमिका में सक्रिय दिखे. जब जनता पार्टी बनी, तब भी नानाजी इसके गठन में मुख्य किरदार रहे. 1977 में जनता सरकार बनी, तब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने नानाजी को उद्योग मंत्री बनने का अनुरोध किया, पर उन्होंने बड़े सहज भाव से मंत्री बनने से इंकार कर दिया.

नानाजी देशमुख इस बात को मानते थे कि राजनेताओं को 60 साल की उम्र के बाद राजनीति से सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए. नानाजी जो कहते थे, वही करते भी थे. 1980 में जब वह 60 साल के हो गए तो उन्होंने सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया और सामाजिक कार्यों में जुट गए. हर हाथ को देंगे काम, हर खेत को देंगे पानी के विचार को लेकर उत्तर प्रदेश के गोंडा और महाराष्ट्र के बीड जिले में गरीबों के लिए उन्होंने कई काम किए. नानाजी ने चित्रकूट के 500 गांवों को स्वाबलंबी बनाने और गरीबी उन्मूलन का सफल कार्यक्रम चलाया. चित्रकूट में नानाजी ने देश के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की. नानाजी ने ग्रामीणों के विकास का एक अलग मॉडल तैयार किया और उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई एवं कृषि से जोड़ा. नानाजी के लिए विकास का मतलब सरकारी योजना नहीं था. उनका मानना था कि समुचित विकास के लिए लोगों की हिस्सेदारी से समाज का पूरा बदलाव जरूरी है. 2005 में उन्होंने चित्रकूट में स्वाबलंबन अभियान की शुरुआत की, जिसमें 2010 तक 500 गांवों को स्वाबलंबी होना था, लेकिन यह देखने के लिए नानाजी देशमुख अब नहीं हैं. नानाजी देशमुख जाते-जाते अपना शरीर भी आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट को दान कर गए. राजनीति में ऐसे लोग नहीं मिलते, जो समाजसेवा के लिए जीवन को समर्पित करते हों. राजनीति में त्याग, तपस्या एवं सेवा की आखिरी धरोहर नानाजी देशमुख अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वह अपने पीछे संघर्ष की एक ऐसी विरासत छोड़ गए हैं, जो राजनीति में अनोखी है. ऐसा कौन नेता होगा, जो बुलंदी पर रहते हुए समाजसेवा के लिए राजनीति से संन्यास ले ले और देश के गांवों की दशा बदलने के लिए काम करे. नानाजी देशमुख आजाद भारत के उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने गांव के गरीबों के लिए अभियान चलाया और हजारों ग्रामीणों की जिंदगी बदल डाली. वैचारिक दृष्टि से भी नानाजी ने कमाल किया है. उन्होंने शोषण करने वाले पूंजीवाद और डोगमेटिक वामपंथ के बीच विकास का ऐसा मॉडल तैयार किया, जिससे भारत के गांवों का कायापलट किया जा सकता है. यह बात भी सही है कि नानाजी को वह ख्याति नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे. नानाजी कर्मयोगी थे, किसी ख्याति या पुरस्कार के लिए लालायित नहीं रहते थे. नानाजी के लिए सही श्रद्धाजंलि कोई पुरस्कार नहीं, बल्कि भारत के उन गरीबों की मुस्कान है, जिनके विकास के लिए उन्होंने मरते दम तक काम किया. राजनीति के क्षेत्र में जो लोग काम करते हैं, उनके लिए नानाजी देशमुख सदैव एक प्रेरणास्रोत और अनुकरणीय बने रहेंगे.

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