नक्सलियों का बढ़ता दुस्साहस

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अरविंद जयतिलक

ऐसे समय में जब केंद्र की मोदी सरकार अपने छः महीने के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना पीठ थपथपा रही है, नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ के 14 जवानों को मौत के घाट उतार सरकार के सुरक्षा व सतर्कता के दावे की धज्जियां उड़ा दी है। छत्तीसगढ़ की रमन सरकार दावा कर रही थी उसने नक्सलियों की रीढ़ तोड़ दी है लेकिन सुकमा की यह दर्दनाक घटना बयां करती है कि इन इलाकों में नक्सलियों की ताकत कम नहीं हुई है। यह वही इलाका है जब 25 मई, 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस के काफिले पर हमला बोल 28 लोगों की जान ली थी। अभी कुछ माह पहले ही नक्सलियों ने बीजापुर में राज्य सरकार की संजीवनी एंबुलेंस पर हमला बोल सीआरपीएफ के 5 जवानों की हत्या की। इससे पहले वे जीरम घाटी में 15 सुरक्षाकर्मियों को निशाना बना चुके हैं। लेकिन त्रासदी है कि इन बर्बर घटनाओं के बावजूद भी केंद्र व छत्तीसगढ़ की सरकार नक्सलियों का दमन नहीं कर सकी है। उम्मीद थी कि मोदी सरकार नक्सलियों से निपटने के लिए ठोस कारगर नीति अपनाएगी। लेकिन छः महीने बाद भी उसके हाथ खाली हैं। सरकार की यह दलील पर्याप्त नहीं कि वह नक्सलवाद को कुचलने के लिए कृतसंकल्प है। इस तरह की दलील से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है। बेहतर होगा कि सरकार नक्सलियों को उनकी भाषा में जवाब दे। अब यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि नक्सली सामाजिक परिवर्तन के नुमाइंदे नहीं बल्कि इंसानियत के दुश्मन और देशद्रोही हैं। नतीजा सामने है। उनकी ताकत बढ़ती जा रही है और उनके हमले से पुलिस जवानों का हौसला पस्त हो रहा है। इंस्टीट्यूट आॅफ डिफेंस रिसर्च एंड एनालिसिस (आईडीएसए) की मानें तो सितंबर 2009 की सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 20 राज्यों के 223 जिलों में नक्सलियों का प्रभाव है। साथ ही सरकार ने अगस्त 2012 में संसद में स्वीकारा भी है कि 119 अन्य जिलों में भी नक्सलियों ने अपना तंत्र मजबूत किया है। यह दर्शाता है कि नक्सली तेजी से अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो यहां दो तिहाई जिले नक्सवाद से प्रभावित हैं। लालगढ़ में सेना से मात खाने और आंध्रप्रदेश में ग्रे हाउंड फोर्स से हारने के बाद नक्सली छत्तीसगढ़ की ओर मुंह किए हुए हैं। एक तरह से उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना अभयारण्य बना लिया है। यह सही है कि छत्तीसगढ़ की रमन सरकार नक्सलियों के खिलाफ मुहिम चला रही है। लेकिन अपेक्षित सफलता न मिलना दर्शाता है कि रणनीति में कमी है। बेहतर होगा कि केंद्र व छत्तीसगढ़ की सरकार मिलकर नक्सलियों से निपटने की रणनीति बनाएं। नक्सलवाद से निपटना अकेले किसी एक राज्य के बूते की बात नहीं है। तीन साल पहले मनमोहन सरकार ने नक्सलियों से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए एक समग्र कार्ययोजना तैयार की थी। इस योजना में रेड कारिडोर में आने वाले जिलों की संख्या 35 से बढ़ाकर 60 किया गया। इन सभी जिलों के विकास के लिए 14000 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनी। इस योजना के तहत सभी नक्सल प्रभावित जिलों में 25-25 करोड़ रुपये खर्च कर सड़कें, स्कूल, पेयजल, आंगनवाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने की बात कही गयी। इन योजनाओं का क्या हुआ कुछ पता नहीं। कमजोर रणनीति का ही नतीजा है कि आज नक्सली आतंकियों की तर्ज पर सत्ता को सीधी चुनौती देने लगे हैं। जरा आंकड़ों पर गौर कीजिए। 2007 में नक्सली हिंसा में कुल 1565 घटनाएं हुई जिसमें 460 लोग मारे गए। 2008 में कुल 1591 घटनाओं में 490 लोगों की जान गयी। इसी तरह 2009 में 2258 नक्सली घटनाओं में 591 और 2010 में 2213 घटनाओं में 720 लोग मारे गए। सरकार की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो 2005 से 2010 तक नक्सली हिंसा में 10,268 लोग जान गंवा चुके हैं। नक्सलियों के बढ़ते दुस्साहस का नतीजा है कि अब वे अपहरण और फिरौती भी करने लगे हैं। याद होगा दो साल पहले उन्होंने सुकमा जिले के जिलाधिकारी का अपहरण कर मनमाफिक फिरौती लिया। इसी तरह उड़ीसा राज्य के मलकानगिरी के जिलाधिकारी आर.वी कृष्णा का अपहरण किया और रिहाई के बदले में अपने कई खूंखार साथियों को छुड़ाया। सितंबर 2011 में वे ओडिसा राज्य के बीजद विधायक जगबंधु मांझी की हत्या की। इटली के दो पर्यटकों का अपहरण किया। इसके अलावा वे लगातार सरकारी प्रतिष्ठानों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। अपने क्षेत्रों में काम करने वाली कंपनियों से रंगदारी वसूल रहे हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चलने वाली कल्याणकारी योजनाओं का बड़ा हिस्सा उनकी जेब में जा रहा है। इस धनराशि से वे हथियार व गोला-बारुद खरीद राष्ट्र के खिलाफ अघोषित युद्ध छेड़े हुए हैं। खबर तो यह भी है कि उनके पास रुस, अमेरिका और चीन निर्मित अत्याधुनिक हथियार हैं। ऐसा नहीं है कि केंद्र व राज्य सरकारें इस तथ्य से अवगत नहीं हैं। फिर भी वह हाथ पर हाथ धरी क्यों बैठी हैं यह समझ से परे है। समझना होगा कि नक्सलियों की गरजती बंदूके बातचीत से बंद होने वाली नहीं। उन्हें उन्हीं के भाषा में जवाब देना होगा। नक्सली सामाजिक परिवर्तन के पैरोकार नहीं बल्कि नीच किस्म के अपहरणकर्ता, लूटेरे और देशद्रोही हैं। उनका मकसद समतामूलक समाज की स्थापना के बजाए बंदूक के दम पर देश व समाज में अस्थिरता फैलाना, धन उगाही करना और अपने नाजायज मांगों को पूरा कराना है। आखिर कोई नक्सली देश की संप्रभुता को चुनौती देकर खुद को देशभक्त कैसे कह सकता है? व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर सड़कों, पुलों, स्कूलों, रेलपटरियों और स्वास्थ्य केंद्रों को बम से उड़ाना किस प्रकार की राष्ट्रभक्ति और सामाजिक परिवर्तन की विधा है? लेकिन दुर्भाग्य है कि देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो नक्सली आतंक को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई बताते हैं। इन बौद्धिक जुगालीकारों को विद्रुप, असैद्धांतिक और तर्कहीन नक्सली पीड़ा तो समझ में आती है लेकिन उनके द्वारा बहाया जाने वाला देशभक्त पुलिस जवानों का खून पानी नजर आता है। आखिर ऐसा क्यों? याद होगा झारखण्ड राज्य के लातेहर में नक्सलियों ने एक शहीद जवान के षरीर में बम लगाकर उसे चिथड़ा कर दिया। वही दूसरे शहीद जवान के पेट में बम ठूंसकर अपने राछस होने का सबूत दिया। उनका अघोरतम् कृत्य इस बात का संकेत है कि वे जानवर से भी गए-गुजरे हैं। उससे भी ज्यादा शर्मनाक यह कि नक्सलियों के इस तरह के बर्बर कुत्य की तरफदारी करने वाले छद्म बुद्धिजीवी और मानवाधिकारवादी खामोश और संवेदनहीन हैं। उनकी चुप्पी और संवेदनहीनता इस बात का प्रमाण है कि वे जवानों की हत्या से विचलित नहीं हैं। न ही नक्सलियों के अघोरतम् कृत्य को देशद्रोहात्मक और संप्रभुता की श्रेणी में रखने को तैयार हैं। शायद वे मान बैठे हैं कि हिंसा और छल-कपट ही सामाजिक बदलाव का अमोघ अस्त्र है और नक्सली जो कर रहे हैं वह उचित है। लेकिन उनकी सोच सही नहीं है। इस तरह की विचारधारा सामाजिक और आर्थिक बदलाव का संवाहक नही बन सकती। भला मातृभूमि के साथ छलकर जवानों की बलि लेने वाला निरंकुश संगठन राष्ट्रभक्त और गरीबों की नुमाइंदी का दावा कैसे कर सकता है? सच यह है कि नक्सलियों का हिंसक कृत्य समाज व देशहित के विरुद्ध एक युद्ध है और इसे एक प्रभुतांसपन्ना लोकतांत्रिक देश को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।

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