बिहार में बेरोजगारों को सौ दिन का रोजगार देने वाली योजना राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) नाकाम साबित हो रही है। इस योजना के अंतर्गत पिछले दो वर्षों में एक प्रतिशत से भी कम जॉब कार्डधारियों को सौ दिन का रोजगार उपलब्ध हो पाया है। इस योजना के तहत इस बात का भी प्रावधान है कि अगर जॉब कार्डधारियों को सौ दिन का रोजगार नहीं मिल पाता है, तो उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा, लेकिन बिहार में काम नहीं पाने वाले बेरोजगारों और जॉब कार्डधारियों को यह भत्ता भी नसीब नहीं हुआ है। इसमें कहीं से कोई शक नहीं है कि नरेगा के कार्यान्वयन में बिहार फिसड्डी साबित हो रहा है। सीएजी ने भी अपनी रिपोर्ट में इस योजना के अंतर्गत रोजगार प्रदान करने में गिरावट के रूझान का जिक्र किया है।
जमीनी हकीकत यही है कि बिहार में नरेगा के तहत बहुत कम काम हुआ है और जो भी हुआ है वह भ्रष्टाचार की भेंट ही चढ़ा है। कई जगह ग्रामीणों का आवेदन नहीं लिया जा रहा है, तो कहीं पैसा राज्य से जिले तक बहुत देर से पहुंचता है और अक्सर पूरी तरह से खर्च भी नहीं होता है और जागरूकता का अभाव भी है। मास्टर रोल में झूठे नाम और झूठी हाजिरी जैसी अनिमित्ताएं अनेकों बार उजगार हुई हैं। बिहार में नरेगा के तहत अब तक औसतन २२ दिनों के काम का ही सृजन हो पाया है। इस योजना के तहत डुप्लीकेट (फर्जी) जॉब कार्ड की भरमार है बिहार में इस फ़र्ज़ीवाड़े में नीचे से ऊपर तक भ्रष्ट सरकारी कर्मियों की मिलीभगत और अरबों रूपए के घोटाले भी उजागर हुए हैं, फिर भी ना जाने किन कारणों से बिहार की सरकार इस पर अपनी आंखें मूंदे हुए हैं? विगत वर्ष ही सेंटर फॉर एन्वायर्मेंट एंड फ़ूड सिक्योरिटी नामक संस्था ने एक सर्वेक्षण के ज़रिए दावा किया था कि बिहार में नरेगा के कम से कम छह हज़ार करोड़ रूपए बिना काम के ही बांटे गए थे, जबकि यह सर्वेक्षण राज्य के दस ज़िलों में ढाई हज़ार परिवारों के बीच ही किया गया था। विगत वर्ष ही ये आंकड़ा भी सतह पर आया था कि बीस लाख लोगों के नाम से दो-दो ‘जॉब कार्ड’ बने हुए हैं और सबसे ज़्यादा यानी ९६ हज़ार ८५५ डुप्लीकेट कार्ड तो सिर्फ मुजफ्फरपुर जिले में ही पाए गए थे। पारदर्शिता और जनता के प्रति उत्तरदायित्व, सामाजिक लेखा-जोखा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, लेकिन बिहार की बहुचर्चित सुशासनी सरकार इस फ्रंट पर असफल ही रही है। कहने को तो बिहार का विकास हो रहा है, लेकिन अगर इस महत्वाकांक्षी योजना का प्रदेश में सही क्रियान्वयन नहीं हो रहा है तो इसके लिए दोषी निश्चित तौर पर राज्य सरकार ही है।
बिहार के कुछ जिलों के ग्रामीण इलाकों में मेरे भ्रमण के दौरान लोगों से बातचीत के उपरान्त जो तथ्य उभर कर सामने आए वो बहुत ही चौंकाने वाले हैं। पटना, जहानाबाद, अरवल और गया जिले के अनेकों ग्रामीणों ने बातचीत के क्रम में चौंकाने वाली बातें बतायीं। पटना जिले के धनरुआ के निवासी श्री रामजी पासवान ने बताया कि “बेरोजगारों को मिले जॉब कार्ड सरकारी कर्मचारी और मुखिया आपसी साठगांठ से बरगलाकर उनसे ले लेते हैं और उनकी मजदूरी का पैसा हड़प कर जाते हैं। कार्ड मांगने पर कहा जाता है कि तुम्हारे पास से ये खो जाएंगे इसलिए मेरे पास रहने दो। पटना- जहानाबाद जिले की सीमा पर स्थित जमालपुर ग्राम के नवल शर्मा ने कहा कि “ये लोग मजदूरों की जगह ट्रैक्टर और मशीनों से काम लेते हैं और सारा पैसा अपने पास रख लेते हैं। जिसकी वजह से मजदूरों के सामने पलायन के सिवा और कोई चारा नहीं बचता और वो पंजाब, हरियाणा, दमन, गुजरात की राह पकड़ लेते हैं।” वो आगे कहते हैं कि “सरकारी अधिकारी कर्मचारी सबसे भ्रष्ट हैं। ये लोग ३० फीसदी तक कमीशन लेते हैं।” जहानाबाद जिले के सिकरिया के निवासी मुनारिक पासवान ने बातचीत के क्रम में बताया कि “इन लोगों ने बोला काम देंगे उसके बाद हमसे कार्ड ले लिया, न पैसा दिया न काम और कार्ड भी वापस नहीं किया, हमारा जॉब कार्ड कहां है कोई खबर नहीं है।” गया जिले के फतेहपुर-ब्लॉक के प्रबुद्ध निवासी और सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता नवल सिंह यादव ने कहा कि “वैसे तो बिहार सरकार का कहना है कि नरेगा के तहत उसने ३५ फीसदी परिवारों को रोजगार उपलब्ध करवाया है, लेकिन शायद सिर्फ फाइलों में!” अरवल जिले के मेहंदिया के निवासी शिक्षक राम सागर राम ने कहा कि “बिहार में नौकरशाही नीतीश जी के काबू में नहीं है, जिसकी वजह से योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता है, सरकारी आंकड़े तो इस बात की पुष्टि करते अवश्य ही दिखते हैं कि सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा है, पर जमीनी हकीकत यही है कि नरेगा जैसा अहम कार्यक्रम कहीं भी ठीक से लागू नहीं हो पाया है और गरीबों की दशा जस की तस बनी हुई है।”
ज्ञातव्य है कि जनसंख्या की दृष्टि से बिहार भारत का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है और गरीबी इस राज्य की सबसे बड़ी चुनौती है। बिहार की लगभग ९० फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और उसमें से लगभग ४२ फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। ऐसे में सुशासन, न्याय के साथ विकास और समग्र विकास के दावों के बावजूद यदि गरीबों के उत्थान के लिए बनी नरेगा जैसी सरकारी योजनाओं में भी अफसर और जनप्रतिनिधि ही सेंध लगाएंगे तो फिर तो शायद इनका भगवान ही मालिक है!