नरेन्द्र मोदी होने का सच

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री- narendra modi and rahul gandhi
पिछले दिनों सोनिया माईनो गान्धी और उनके बेटे राहुल गान्धी ने अपने चुनाव प्रचार में दो अलग-अलग स्थानों पर दो अलग अलगबातें कहीं। ऊपर से दोनों बयान सहती लगते हैं और एक दूसरे से असम्बधित भी। लेकिन भीतर कहीं गहरे से आपस में जुड़े हुये तो हैं हीं, साथ ही नरेन्द्र मोदी को लेकर जो पूरे भारत में लहर चल रही है, उसको लेकर सोनिया गान्धी परिवार और उनकी पार्टी की असली चिन्ताओं को भी उजागर करते हैं। असम में सोनिया गान्धी ने कहा कि सरकार चलाना और भारत का शासन चलाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। उनका संकेत था कि नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को भारत का शासन चला लेने की अपनी इच्छा को त्याग देना चाहिये, क्योंकि यह उन के वंश और योग्यता से बाहर की बात है। इससे कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में एक जन सभा को सम्बोधित करते हुये राहुल गान्धी ने कहा कि नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गान्धी की पार्टी की लड़ाई व्यक्तियों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह विचारधारा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाई है। राहुल गान्धी ने जो कहा वह बिल्कुल ठीक कहा है। आगामी लोकसभा के लिये जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह दो विभिन्न वैचारिक धरातलों पर खड़ी सेनाओं की लड़ाई है। इसमें एक धरातल तो भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व में लामबन्ध हुई राष्ट्रवादी शक्तियों का है और दूसरा धरातल सोनिया गान्धी और उनके शिविर में एकत्रित सेनानायकों का है। सोनिया गान्धी के शिविर का वैचारिक धरातल क्या है ? इसका संकेत उन्होंने असम में अपने उस बयान में दिया है, जिसका ज़िक्र ऊपर किया  गया है।
सोनिया गान्धी ने जो कुछ कहा है, वह भारत के लोगों के बारे में पुरानी यूरोपीय धारणा को इंगित करता है। जब इस देश पर क़ब्ज़ा करने के लिये पुर्तगाली, डच, फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ अपनी चालें चल रहे थे, तो जिस एक बात पर वे सहमत थे वह यही थी कि भारतीय अपना शासन स्वयं चलाने के योग्य नहीं है। अन्ततः अंग्रेज़ों ने इस देश पर क़ब्ज़ा कर लिया तो उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में ही यह पढ़ाना शुरू कर दिया कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिये योग्यता चाहिये। वह योग्यता भारत के लोगों में नहीं है। दरअसल, यह वैचारिक आधार कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड में तैयार हुआ था, जिसने प्रत्यक्ष तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना को चिन्तित किया था और परोक्ष रूप से इस ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना में कहीं न कहीं सम्पूर्ण यूरोपीय साम्राज्यवादी चेतना भी प्रतिध्वनित होती थी। उस समय भी इस यूरोपीय वैचारिक धरातल को स्वीकारने वाले कुछ भारतीय उठ खड़े हुये थे, जिन्हें ब्रिटिश शासन तो रायबहादुर और रायसाहिब कहता था, लेकिन आम भारतीय जन टोडी बच्चा कहकर हिक़ारत की नज़र से देखता था। सोनिया गान्धी के बयान से भी उसी यूरोपीय वैचारिक चेतना प्रतिबिम्बित होती दिखाई दे रही है। वे प्रकारान्तर से इस देश के लोगों से कह रही हैं कि इस देश का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं है तो प्रत्युत्तर में उनसे पूछा जा सकता है कि फिर क्या यह इटली और वेटिकन वालों का है ? इतालवी परिवार में ऐसी कौन सी योग्यता है जो वह भारत की गद्दी पर अपना दावा ठोंक रहा है ? सोनिया गान्धी ने एक और बात भी कहीं कि यदि नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा का शासन आ गया तो देश टुकड़े टुकड़े हो जायेगा। भारतीयों को ब्लैकमेल करने का यह भी पुराना यूरोपीय टोटका है। अंग्रेजशासक सदा ही यह कहते रहते थे कि यदि वे देश को छोड़कर चले गये तो देश टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा। अंग्रेज़ों के साथ उन दिनों उनके राय बहादुर और रायसाहिब भी यही गीत गाया करते थे। आज भी सोनिया गान्धी की पार्टी में उनका झण्डा उठाये प्रमुख लोग यही चिल्ला रहे हैं। ब्रिटिश सरकार ने उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे लोगों को सबक़ सिखाने के लिये और अपने शासन को देर तक बनाये रखने के लिये मुस्लिम लीग की स्थापना करवा दी थी, जो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाते थे और गुंडई करते थे। आज सोनिया गान्धी की पार्टी ने भी अपने भीतर ऐसे लोगों की व्यवस्था कर ली है जो वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय हितों की बात करने वालों की बोटी बोटी करने की धमकियां देते हैं। मुस्लिम लीग भी इसी प्रकार के डायरैक्ट एक्शन की धमकियां ही नहीं देती थी, बल्कि उसे अमल में भी लाती थी।
सोनिया गान्धी के नेतृत्व में इक्कठे हुये लोग भारत पर शासन करने के लिये वही तर्क दे रहे हैं जो कभी ब्रिटिश सरकार के लोग भारत पर शासन करने के लिये देते थे। उस समय भी मुस्लिम लीग की विचारधारा को मानने वाले लोग ब्रिटिश सरकार के साथ थे और इस लड़ाई में भी वे या तो सोनिया गान्धी के जमावड़े का हिस्सा बन गये हैं, या फिर परोक्ष रुप से उस के लिये मददगार हो रहे हैं। राहुल गान्धी जिस वैचारिक लड़ाई की बात कर रहे हैं, उस लड़ाई में उन समेत उन के संगी साथी उस वैचारिक प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं, जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है और जिसका संकेत सोनिया गान्धी ने स्वयं दिया है।
इस वैचारिक लड़ाई में दूसरा खेमा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सन्नद्ध हो चुका है। नरेन्द्र मोदी की लड़ाई इस मुल्क को यूरोपीय मानसिक दासता से मुक्त करवाने की है, जिसका पाश सोनिया के नेतृत्व में दिन-प्रतिदिन कसता जा रहा है। वैसे इस मानसिक पाश से भारत के लोगों को बाँधने का इतिहास तो पंडित नेहरु से ही शुरू हो गया था, जिन्होंने स्वयं ही घोषणा कर दी थी कि वे यूरोपीय सभ्यता और नीतियों के विरोधी नहीं हैं, केवल यूरोपीय शासकों के विरोधी हैं। नेहरु ने तो विदेशी मुग़ल शासकों को भी स्वदेशी ही मानने की नीति अपनाई थी। नेहरु से लेकर अब तक यही नीति भारत सरकार की आधिकारिक नीति रही। सोनिया गान्धी के शासन काल में इन यूरोपीय सांस्कृतिक नीतियों को इस देश में लागू करने का प्रयास ही नहीं हुआ बल्कि सत्ता की बागडोर ही एक प्रकार से फिर इंतक़ाल की मूल की सोनिया गान्धी के हाथ आ गई। दस साल के अरसे बाद एक बार फिर देश के लोगों ने इस सांस्कृतिक दासता और दैन्यता से मुक्ति पाने के लिये नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अंगड़ाई ली है। देश के लोग ऐसी नीतियां चाहते हैं जिस से भारत विश्व का अग्रणी देश बने न की सोनिया गान्धी के नेतृत्व में यूरोप और अमेरिका का पिछलग्गू। पिछले दस साल में गहरे षड्यन्त्र के तहत सरकार ने लोगों का यह आत्मविश्वास तोड़ने का प्रयास किया था कि भारत में अग्रणी बन सकता है।
नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो काम करके दिखाया उससे देश के लोगों में एक बार फिर यह आत्मविश्वास जागने लगा है कि यदि सुदृढ़ नेतृत्व मिल जाये और भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अपनी जड़ों से जुड़ जाये तो वह एक बार फिर विश्व की राजनीति में नीति निर्धारण बन सकता है। नरेन्द्र मोदी के कृतित्व ने लोगों में उनके प्रति आस्था को जगाया है। यूरोपीय लॉबी के लिये इसीलिये नरेन्द्र मोदी सबसे बड़ा ख़तरा बन कर उभरे हैं। अब जब यह लड़ाई अपने अन्तिम पड़ाव पर पहुंच गई है और उसके परिणाम के क़यास भी लगने शुरू हो गये हैं तो सोनिया गान्धी और उनको आगे करके अपनी गोटियां खेल रही देशी विदेशी ताक़तें अपना सब कुछ झोंक रही हैं। सोनिया गान्धी का असम में दिया गया बयान इस कैम्प की इसी हड़बड़ाहट को इंगित करता है।
इस कैम्प के पास सबसे बड़ा एक ही हथियार था कि नरेन्द्र मोदी के कारण देश की दूसरी कोई भी पार्टी भाजपा का समर्थन नहीं करेगी। लेकिन दूसरी पार्टियों की बात तो दूर सोनिया के अपने कैम्प में से ही भाग कर मोदी की सेना में आ मिलने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। जदयू, बसपा और सपा इत्यादि के शिविर से भागकर मोदी के शिविर में आने वालों में मानों प्रतियोगिता ही चल पड़ी हो। नये लोगों की बढ़ती संख्या देखकर जहां सोनिया गान्धी के शिविर में घबराहट और सन्नाटा है, वहीं भाजपा के भीतर से ही कुछ प्रश्न उठने लगे हैं। प्रश्न पूछना भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परम्परा है। यह परम्परा इतनी उदार है कि महाभारत के युद्ध में जब दोनों सेनाएं युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गईं थीं, धनुष की प्रत्यांचाएं तन गईं तो अर्जुन ने श्रीकृष्ण से बीच रणभूमि में प्रश्न पूछने शुरू कर दिया कि आत्मा कहां से आती है और कहां जाती है ? उस समय तो अर्जुन के सारथी श्री कृष्ण थे। उन्होंने अर्जुन का समाधान कर उसे पुनः युद्ध के लिये प्रेरित कर दिया। लेकिन इस बार नरेन्द्र मोदी का सारथी कोई कृष्ण नहीं है बल्कि देश की सारी जनता ही उनकी सारथी है। लेकिन इस सारथीके पास किसी के भी अप्रासंगिक प्रश्नों का उत्तर देने का समय नहीं है। मोदी का निशाना भी मछली की आंख पर लगा हुआ है। ऐसे समय में ध्यान को भटकाना घातक हो सकता है। मोदी उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं दे रहे हैं जो इस देश की अस्मिता और उसके भविष्य से जुड़े हुये हैं। लोकसभा की इस लड़ाई में देश के भविष्य का निर्णय होने वाला है। मोदी स्वयं अरुणाचल प्रदेश जाकर भारत की चीन नीति की परोक्ष घोषणा कर आये हैं। जम्मू कश्मीर में उन्होंने पाकिस्तान और उसके परोक्ष समर्थकों को चेतावनी दे दी है । भाजपा के भीतर इस बार लड़ाई इस बात की नहीं होनी चाहिये कि टिकट किसको दिया जा रहा है और किस को नहीं दिया जा रहा। बहस इस बात पर होनी चाहिये कि राष्ट्रीय हितों को पलीता लगाने वाली फ़ौज के डैन को किस प्रकार समाप्त करना है। यह साधारण चुनाव नहीं है। यह एक प्रकार से स्वतंत्रता का दूसरा युद्ध है। मोदी इस समय जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जबकि सोनिया गान्धी और उन का खेमा अपने संकीर्ण हितों एवं देशी विदेशी दबाव समूहों के हितों की लड़ाई लड़ रहा है, जिसका लाभ या तो अमेरिका उठायेगा, या क्वात्रोची के वंशज या फिर राय बहादुरों और राय साहिबों की फ़ौज, जो इस वक़्त सोनिया के आस पास घूम रही है।
नरेन्द्र मोदी का सच आज भारत का सच बन गया है। वे भारतीय जनमानस की राष्ट्रीय भावना के साथ एकाकार हो गये हैं। आन्ध्र, ओडिशा या अरुणाचल में विधान सभा के चुनावों में जो लोग दूसरे राजनैतिक दलों के लिये कार्य कर रहे हैं, वे भी लोकसभा के लिये नरेन्द्र मोदी का समर्थक होनी की बात कर रहे हैं। इस चुनाव में मोदी फ़ैक्टर ने राजनीति में एक नये समतल धरातल की रचना की है। इस धरातल पर विभिन्न राजनैतिक दलों से निरपेक्ष होकर साधारण मतदाता मोदी के पक्ष में खड़ा नज़र आता है। लेकिन ध्यान रखना चाहिये इस धरातल पर जो मोदी खड़ा दिखाई देता है, वह मोदी कोई व्यक्ति न होकर एक सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा का प्रतीक है। वह इस सासंकृतिक भारत का मानवीकरण कहा जा सकता है। इस सांस्कृतिक भारत से ही सोनिया गान्धी और उसके सिपाहसलारों को डर लगता है। क्योंकि सांस्कृतिक भारत का सच ही मोदीका सच है। अपनी सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर ही भारत आर्थिक क्षेत्र में भी लम्बी छलाँग लगा सकता है। लेकिन इसी से भयभीत होकर यूरोप एक बार फिर दिल्ली में आकर चिल्ला रहा है कि भारत का शासन चलाना बच्चों का खेल नहीं। मोदी के नेतृत्व में भारत को यूरोप की इसी गाली का उत्तर देना है।

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