नरेन्द्र मोदी बनाम अरविन्द केजरीवाल

-वीरेन्द्र सिंह परिहार –
modiji kejriwal

इस बात में कोई दो मत नहीं कि देश में वर्तमान समय में राजनीति के क्षेत्र में दो ही नेता सबसे ज्यादा चर्चित है। इनमें एक है-भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और दूसरे है-आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजवरीवाल। यह बात भी सच है कि मोदी जहां वर्ष 1987 से भाजपा में सक्रिय हैं, वहीं केजरीवाल का राजनैतिक जीवन वर्ष भर से थोड़ा ही ज्यादा है।

ऐसी स्थिति में यह देखा जाना जरूरी हैे कि आखिर में दोनों नेताओं में फर्क क्या है। भारतीय राजनीति में मोदी का उभार धीरे-धीरे प्रथमा की चांद जैसे हुआ, जो वर्तमान में मध्याह्न के सूर्य जैसे चमक रहे है। तो केजरीवाल का उदय भारतीय राजनीति मेें एकाएक ही धूमकेतु की तरह हुआ। जो अपने पहले ही चुनाव में दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए, इतना ही नहीं देश उनसे एक नई किस्म की राजनीति की अपेक्षा कर रहा था और लोग तेजी से उनसे जुड़ते जा रहे थे। दूसरी तरफ मोदी संघ के रास्ते से भाजपा में आए और चुनावी राजनीति से दूर भाजपा में संगठन का काम करते रहे। गुजरात के मुख्यमंत्री केशू भाई पटेल के असफल होने पर 2001 के अक्टूबर माह में उन्हे अचानक गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिया गया। 27 फरवरी 2002 को गोधरा में 58 कारसेवकों को साबरमती एक्सप्रेस में जिंदा जला दिए जानें से वहां भयावह दंगे भड़क गए, जिसमें हजारों लोग मारे गए।
मोदी इन दंगों को लेकर किसी भी स्तर पर दोषी नहीं है, यह सभी जांच आयोग और न्यायालय कह चुके है। बाबजूद उन पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला सतत जारी हेैं। यह भी सच है कि 2007 का गुजरात विधानसभा का चुनाव भारी बहुमत से जीतने के बाद कुछ हद तक राजनीतिक हल्कों में यह कहा जाने लगा था कि मोदी भविष्य में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते है। उस वक्त भेी राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और कहीं-न-कहीं मोदी के राष्ट्रीय महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने मोदी को भाजपा के संसदीय बोर्ड का सदस्य बना दिया था। भारतीय राजनीति में यह अपवाद स्वरूप बात थी कि एक प्रमुख राष्ट्रीय दल में एक राज्य का मुख्यमंत्री राष्ट्रीय नेतृत्व का हिस्सा हो गया था। यद्यपि बाद में इस तर्क के आधार पर नरेन्द्र मोदी को संसदीय बोर्ड में दुबारा नहीं रखा गया कि किसी राज्य के मुख्यमंत्री को संसदीय बोर्ड में रखना उचित नहीं है। ऐसा लगता है कि उस दौर में मोदी की लोकप्रियता और धमक को देखते हुए मोदी भाजपा की आंतरिक राजनीति के शिकार हुए।

पर मोदी न इससे तनिक विचलित हुए और न ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने सहर्ष पार्टी का निर्णय स्वीकार किया। जबकि उनके जैसी हैसियत या लोकप्रियता किसी दूसरे राजनीतिज्ञ की होती तो ऐसी स्थिति में या तो अपनी अलग पार्टी बना लेता, अथवा ऐसा न कर सकने पर पार्टी में ही दबाव बनाने लगता या गुटबाजी करने लगता। सुविज्ञ सूत्रों का कहना है कि संघ 2009 में ही इस पक्ष में था कि मोदी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाएं, लेकिन उन्होंने 2012 तक गुजरात में हीं रहने का फैंसला किया। 2007 का चुनाव जीतना अपनी जगह पर है, 2012 का गुजरात विधानसभा का चुनाव धमाकेदार ढंग से जीतने के बाबजूद मोदी यह कहते रहे कि उनका लक्ष्य छः करोड़ गुजरातियों के माध्यम से देश की सेवा करनी है। लेकिन उनकी लोकप्रियता पूरे देश में सिर में चढ़कर बोलने के बावजूद मोदी ने अपनी ओर से कहीं भी ऐसा उपक्रम नहीं किया, यहा तक कि इच्छा तक नहीं जतायी कि भाजपा का चेहरा उन्हे बनाया जाना चाहिए। मार्च 2013 में राजनाथ सिंह ने उन्हे भाजपा के नवगठित संसदीय बोर्ड में शामिल करना चाहा तो इसका इस आधार पर विरोध किया गया कि यदि नरेन्द्र मोदी को संसदीय बोर्ड शामिल किया जाता है, तो मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि उनकी उपलब्धियां मोदी से कमतर नहीं है। अब उपलब्धियां अपनी जगह पर है, पर यह अकाट्य सच्चाई उस वक्त भी थी कि मोदी की लोकप्रियता का उस वक्त भी किसी राजनेता से कहीं कोई मुकाबला नहीं था। फलतः राजनाथ सिंह ने सिर्फ नरेन्द्र मोदी को ही संसदीय बोर्ड में शामिल किया। जब भाजपा ने 9 जून 2013 को गोवा में सम्पन्न राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में उन्हे भाजपा की राष्ट्रीय चुनाव-समिति का अध्यक्ष बना दिया, और इससे रूष्ट होकर लालकृष्ण आडवाणी ने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। तब भी मोदी ने कहीं भी अपनी अहमन्यता या रोष नहीं दिखाया। इसके बाद नरेन्द्र मोदी को सितम्बर 2013 में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोंषित कर दिया गया। कहने का आशय यह कि मोदी को चाहे संसदीय बोर्ड में लिया गया, चाहे चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया हो और चाहे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया हो। उन्होने यह सब पाने के लिए न तो कोई पैंतरेबाजी की, न गुटबाजी की, न अपनी ओर से ऐसी कोई दावेदारी ही पार्टी के सम्मुख प्रस्तुत की। इतनी अपार लोकप्रियता के बावजूद न तो कहीं पार्टी में अपनी निजी इच्छा थोंपने का प्रयास किया। पार्टी ने जो भी फैसले किया, उसे मान्य किया। बड़ी बात यह कि श्री आडवाणी द्वारा इतना विरोध किए जाने के बावजूद उनके प्रति उनमें कहीं कटुता नहीं दिखी। वह यही कहते रहे कि उन्होंने आडवाणी और दूसरे बड़े नेताओं की उगली पकड़कर राजनीति सीखी है। इतना ही नहीं वह आडवाणी का पर्चा भराने स्वतः गांधीनगर में साथ रहें।

दूसरी तरफ, अरविन्द केजरीवाल जैसे ही दिल्ली के मुख्यमंत्री बने और उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। तो उन्हें कुछ ऐसा भ्रम हो गया कि मोदी की जगह भारतीय राजनीति के केन्द्र-बिन्दु हो सकते है। इसके लिए उनके पास इतनी जल्दबाजी थी कि वह बिना कोई ठोस कारण के दिल्ली की पूरी सरकार को लेकर सडकों में धरने में बैठ गए। उन्हे ऐसा लगा कि यदि जन लोकपाल के बहाने वह दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दे तो इस महती त्याग को देखकर पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाएगा। फिर अपनी संघर्षशीलता और ईमानदार छवि के चलते यदि वह यह प्रचारित करेंगे कि गुजरात मे कोई विकास नहीं हुआ है, मोदी अंबानी और अडानी के एजेंट मात्र है और मात्र मीडिया की उपज है तो जनता उनकी बात मानकर मोदी को किनारे कर देंगी। फलतः वह भारतीय राजनीति केन्द्र में आ जाएंगे और देर-सबेर प्रधानमंत्री की कुर्सी उनकी होंगी। इसके लिए उन्होने जैसी-जैसी पैंतरेबाजियां किया, मोदी के विरूद्ध जैसा अभियान चलाया, स्वतः बनारस में आकर मोदी से भिड़ गए, वह सब उनकी इसी रणनीति का हिस्सा था। पर ‘उल्टी पड़ गई सब तदबीरों’ की तर्ज पर केजरीवाल हताशा और निराशा में मीडिया को ही जेल भेजने की बात करने लगे। बनाारस के मतदाता उनके सामने ही जहां मोदी-मोदी चिल्ला रहे है, और केजरीवाल को भगोड़ा बता रहे है। तो मोदी की लोकप्रियता की आलम यह है कि दूसरी पार्टियों की सभाओं में भी लोग मोदी-मोदी चिल्लाने लगे है। मोदी की लोकप्रियता का शबाब यह है कि 12 अप्रैल को इण्डिया टीवी में आपकी अदालत में लिया गया उनका इंटरव्यू टीआरपी के सभी रिकार्ड तोड़ चुका है। केजरीवाल को यह पता होना चाहिए कि महात्मा गांधी भी जल्दी महात्मा नहीं बन गये थे, उसके लिए उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा था। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि ट्रिक और बयानबाजी के बल पर लम्बी राजनीति नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि केजरीवाल अपनी चालाकी और जल्दबाजी के चलते जहां हीरो बनने के बजाय जीरों बन चुके है और उनकी आप पार्टी जहां अप्रासंगिक सी हो चुकी है। वहीं मोदी अपने संयम, धैर्य, समर्पण एवं प्रतिबद्धता के चलते भारतीय जनमानस के महानायक बन चुके हैं। प्रधानमंत्री की कुर्सी तो उसकी तुलना में छोटी चीज है।

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