नरेंद्र मोदी बनाम इन्दिरा गांधी

0
132

narendra modiand indira gandhiवीरेंद्र सिंह परिहार

 

गत दिनों एक पत्रकार जो नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक उनके विरूद्ध सतत अभियान चलाए। उनका कहना है कि मोदी के काम करने का तरीका भी इन्दिरा गांधी जैसा है। उनका कहना है कि जिस तरह इंदिरा गांधी की कैबिनट के लोग उनसे डरते थे, वैसे ही मोदी की कैबिनेट के सहयोगी उनसे डरते हैं। इस तरह से उपरोक्त लेखक का कहना है कि दोनो ही का अपनी कैबिनेट के मंत्रियों पर जबरजस्त कन्ट्रोल था और है। मोदी ने अपने कैबिनेट के मंत्रियों पर वो डर कायम किया हुआ है, जिसकी बदौलत वह अपने घर के मेन हाल में किसी से बातें करते हुए भी कतराते हैं। इस किताब में यह भी बताया गया है कि इन दोनो नेताओं के रहते विपक्ष की भी कोई अहमियत नहीं रह गई। मोदी पर उनका यह भी आरोप है कि वह कांग्रेस को विपक्षी पार्टी मानने को तैयार नहीं है।

अब परीक्षण करने का विषय यह है कि क्या उक्त बातों में सचमुच में सच्चाई है। एक बात में तो पूरी तरह सच्चाई हो सकती है कि दोनो ही नेताओं का अपनी कैबिनट पर जबरजस्त कन्ट्रोल है, इतना ही नहीं दोनो ही नेताओं का अपनी पार्टियों पर भी जबरजस्त कन्ट्रोल कहा जा सकता है, पर यह तो ऊपरी बातें हैं। हकीकत यह है कि दोनों नेताओं की कार्यपद्धति एवं चरित्र में इतने बुनियादी अंतर है कि दोनों के बीच कोई साम्यता दिखाने का आधार ही नहीं है। इस संबंध में पहली महत्वपूर्ण बात तो यह कि नरेंद्र मोदी पूरी तरह एक लोकतांत्रिक नेता है, जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी के बारे में ऐसा दूर-दूर तक नहीं कहा जा सकता। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मोदी जहां सबको साथ में लेकर चलने पर विश्वास करते है, वहीं श्रीमती इन्दिरा गांधी का रवैया विरोधी दलों के प्रति पूरी तरह असहयोगात्मक ही नहीं, बल्कि शत्रुतापूर्ण रहता था। श्रीमती इंदिरा गांधी लोकतांत्रिक नहीं थी, यह बताने के लिए जून 1975 में उनके द्वारा देश में लगाया गया आपातकाल ही पर्याप्त है, जो पूरी तरह अपनी सत्ता बचाने के लिए और जन-आंदोलन को दबाने के लिए लगाया गया था। इसके अलावा भी यह कौन नहीं जानता कि श्रीमती गांधी पूरी तरह व्यक्ति-पूजा और चापलूसी-पंसद थीं। अपनी सत्ताकांक्षा के चलते उन्होंने कांग्रेस पार्टी को एक बार ही नहीं, बल्कि दो बार तोड़ा। कांग्रेस को तोड़ना तो अलग है, असलियत यह है कि अपनी पार्टी में वह किसी स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले नेता को पंसद नहीं करती थीं। जिसके चलते जहां एक ओर चन्द्रशेखर जैसे नेता हाशिएं में रहें और अंततः उन्हे कांग्रेस पार्टी से अलग होना पड़ा। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी उनकी जेब की पार्टी बन गई थी। तभी तो ‘‘इदिंरा इज इण्डिया’’ के नारे लगने लगे थे। सरकार और पार्टी में चण्डाल चौकडि़यों की प्रभुत्व हो गया था। जिसमें ओम मेहता और वंशीलाल जैसे लोग प्रमुख थे।

इतना ही नहीं श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथ में जैसे ही सत्ता के सभी सूत्र आएं और पार्टी उनकी जेबी हो गई तो उनके द्वारा खुले आम वंशवाद की प्रवृत्तियां दिखनी शुरू हो गई। जिसका सबसे बड़े उदाहरण संजय गांधी थे, जो गैर-संवैधानिक सत्ता के केन्द्र थे। इतना ही नहीं जब एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्य हो गई तो उन्होने अपना उत्तराधिकारी बडे़ पुत्र राजीव गांधी का चयन कर लिया जो मात्र एक विमान-पायलट थे। श्रीमती गांधी द्वारा संवैधानिक शक्तियों के दुरूपयोग की यह इंतिहा थी कि वह सिर्फ अपने प्रति वफादार मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का ही चयन नहीं करती थी, वरन राज्यापालों का भी वह इस तरह से चयन करती थी कि राज्यों में या तो वह विरोधी दलों का सरकार ही न बनने दें और यदि किसी तरह सरकारें बन भी जायं तो उन्हे किसी तरह से गिराकर कांग्रेस पार्टी की सरकार बना दें। 80 के दशक में एन.टी. रामराम की सरकार को राज्यपाल रामलाल द्वारा गिराया जाना और हरियाणा में जी.डी. तपासे द्वारा देवीलाल भी सरकार न बनने देना इसके अन्यतम उदाहरण हैं। अब जहां तक नरेन्द्र मोदी का संबंध है, उसके बारे में कम-से-कम ऐसा तो नहीं ही कहा जा सकता कि उन्होंने किसी राज्य में किसी विरोधी पार्टी की सरकार गिराने का प्रयास किया हो। उल्टे उनका कहना है कि यदि किसी समस्या को लेकर किसी राज्य सरकार का पत्र आएगा तो उस पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। इतना ही नहीं मोदी इस पक्ष में भी नहीं कि किसी राज्य में भाजपा का सरकार जोड़-तोड़ कर बनाई जाए। जबकि श्रीमती गांधी की प्रवृत्ति ही विरोधी सरकारों को वर्दाश्त करने की नहीं थी। सरकारी सहायता देने के मामले में भी उनके समय भेदभाव होता था, लेकिन नरेंद्र मोदी सभी राज्यों को एक ही दृष्टि से देखते है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण जम्मू-काश्मीर है। अभी जब सितम्बर माह में वहां भीषण बाढ़ आई तो उन्होने पूरे ताकत से उसे सहायता पहुंचाई, यहां तक कि दीवाली भी उनके साथ मनाई।

जहां तक वंशवाद या परिवारवाद का प्रश्न है, मोदी का इसमें दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं रहा। इतना ही नहीं वह वंशवाद या परिवारवाद को लोकसभा चुनाव पूर्व ही देश की एक बड़ी समस्या बताते रहें हैं। मोदी की परिवारवाद के प्रति क्या सोच है? इसी के चलते उन्होंने अपना घर-बार तक नहीं बसाया, मुख्यमंत्री रहते लंबे समय तक उनके भाईयों को गुजरात के लोग ही नहीं जान पाए कि ये नरेंद्र मोदी के भाई हैं। मां के प्रति अपार आदर होते हुए इसीलिए साथ में नहीं रखा कि कहीं पद का दुरूप्योग न हो सके। इंदिरा गांधी के वक्त में नेताओं के पुत्र-पुत्रियों और पत्नियों को जहां आसानी से टिकट और पद मिलते थे, क्यूंकि राजनीति, परिवारवाद की पर्याय हो गई थी, वहीं मोदी के दौर में अब यह बहुत ही अपवादस्वरूप देखने को मिल रहा है। क्यूंकि योग्यता और क्षमता को नकारना भी उचित नहीं।

बड़ी बात यह कि श्रीमती इंदिरा गांधी का रवैया भ्रष्टाचार के मामले में जहां ढीला-ढाला था। उनके समय में मारूति, नागरवाला, कुओ-आयल जैसे कई घोटाले हुए और जिनकी कभी भी निष्पक्ष जांच नहीं हुई। मारूति घोटालें में तो उनके पुत्र संजय गांधी की सीधी सहभागिता थी। दूसरे वह स्वतः भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी प्रक्रिया कहकर उसका बचाव करतीं थी। वहीं नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार के प्रति इतने सख्त है कि जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। उनका प्रसिद्ध ध्येय वाक्य है-‘मै न खाता हूँ न खाने देता हूँ।’ जिसके चलते उन्होंने गुजरात को विकास की अप्रतिम उचाईयों तक पहुंचाया और उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में देश में भी वह यह कारनामा कर दिखाएं। वस्तुतः जहां तक मंत्रियों के डरने का प्रश्न है, वहां भी दोनो नेताओं का मामला अलग है। नरेंद्र मोदी के मंत्री उनसे इसलिए डरते है कि कही कुछ गड़बड़ काम हो गया, लेन-देन की बात मोदी को पता चल गई तो खैर नहीं। जबकि श्रीमती गांधी के मंत्री, मुख्यमंत्री और दूसरे लोग इसलिए डरते थे, कि कहीं उनकी निष्ठा उनके प्रति संदिग्ध न मान ली जाए। तभी तो वह पंचम स्वर में सिर्फ इंदिरा गांधी की ही नहीं, पूरे खानदान के सेवक होने की घोषणा करते थे। बाकी उल्टे-सीधे काम करने से उन्हें कोई रोक नहीं थी। श्रीमती गांधी में तानाशाही की पराकाष्ठा यह कि वह न्यायपालिका तक को अपने इशारों पर नचाना चाहती थी। तभी तो उनके समय में प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बातें की जा रही थी, और 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को अपना सम्मान बचाने के लिए इस्तीफा देना पड़ा था। कुल मिलाकर जहां श्रीमती इंदिरा गांधी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने प्रति निष्ठावान लोगों को चाहती थीं, वहीं मोदी की चाहत संविधान एवं देश के प्रति निष्ठावान लोग है। मोदी अवैधानिक कार्यों के इस हद तक विरोधी हैं कि वह अधिकारियों को साफ कह चुके है कि मंत्रियों की गलत बातें न माने और समस्या होने पर उन्हें बताएं।

बड़ी बात यह भी कि श्रीमती गांधी स्वतः वंशवाद की उपज थीं। वह पंण्डित जवाहर लाल नेहरू की बेटी न होती तो शायद ही देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर पहुंच पातीं। इतना ही नहीं, इस दिशा में पण्डित नेहरू ने स्वतः उन्हे बढ़ावा दिया था। लालबहादुर शास्त्री ने एक बार स्वतः कहा था कि वह अपने बाद इन्दु (इंदिरा गांधी) को चाहते थे, पर नरेंद्र मोदी अपने कतृत्व के बल पर ही कुछ बनें- चाहे वह मुख्यमंत्री की कुर्सी हो प्रधानमंत्री की! श्रीमती गांधी ने सन् 1971 का लोकसभा चुनाव एक नारे ‘गरीबी हटाओं’ के आधार पर जीता, और 1980 को लोकसभा चुनाव विरोधी दलों की कमजोरी अथवा झगडें के चलते। वहीं नरेंद्र मोदी ने 1914 का लोकसभा चुनाव गुजरात में किए विकास कार्यो के बल पर जीता। यह बात भी गौर करने योग्य है कि श्रीमती इंदिरा गांधी चाहे जितनी ताकतवर एवं लोकप्रिय रही हों, पर वह असुरक्षा ग्रंथि से पीडि़त थीं। उन्होने इसीलिए सहयोगियों को घुटनों के नीचे रखा। बूटा सिंह जैसे लोग उनके काल में गृहमंत्री बने। प्रदेशों में भी जनाधार वाले नेता उन्हें रास नहीं आते थे। तभी तो उस दौर में कर्नाटक के ताकतवर मुख्यमंत्री देवराज अर्स को उनसे अलग होना पड़ा। जबकि इसके उलट मोदी का चुनाव खास तौर पर प्रमुख पदों पर ऐसा ही होता है कि कोई उंगली नहीं उठा सकता। प्रतिभा, ईमानदारी और अंर्तदृष्टि लोग ही मोदी की पंसद हैं। अभी मनोहर पारिकर और सुरेश प्रभु को उन्होंने जिस ढंग से रक्षामंत्री और रेलमंत्री बनाया, उसकी सर्वत्र वाह-वाह हो रही है। पार्टी में भी अपने अनुकूल न चलने वालों के लिए भी जगह है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान है। जो लोकसभा चुनाव के पूर्व प्रधानमंत्री के मुद्दे पर मोदी के साथ न होते हएु भी अब भाजपा के संसदीय बोर्ड में पहुंच गए है, यानी भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व का हिस्सा हो गए हैं।

सबसे बड़ी बात यह कि नरेन्द्र मोदी जहां अपने को प्रधानमंत्री नहीं, प्रधान सेवक मानते हैं, मानते ही नहीं, तदानुरूप आचरण भी करते है। 18 घण्टे मेहनत करते हैं, स्वतः झाडू लेकर सफाई करने लगते हैं, एक ग्राम प्रधान का माईक स्वतः व्यवस्थित कर देते है। उनके अंदर किसी किस्म का अंहकार नहीं, गरूर नहीं, सर्वप्रथम इंसान है, इसके बाद राजनेता। वहीं श्रीमती गांधी को एक लोकतांत्रिक देश की राजनेता के बजाय एक महारानी कहा जा सकता है, जिनकी आम जनता से ही नहीं, खास से भी बहुत दूरी थी। इसलिए एक लेखक जब यह अपेक्षा करते है कि मोदी, श्रीमती इंदिरा गांधी को वैसा सम्मान दे, जैसा गांधी , पटेल या कहीं-न-कहीं नेहरू को देते हैं तो यह कतई उचित नहीं है।श्रीमती गांधी ने बाग्ला देश बनवाया, सिक्किम का भारत में विलय किया, यह बात तो ठीक है। पर उनके द्वारा संवैधानिक संस्थाओं का जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई नहीं हो सकती। वैसे जो परिस्थितियां थी तो बांग्लादेश का निर्माण तो होना ही था, पर क्या यह सच्चाई नहीं कि श्रीमती गांधी के दौर में ही राजनीति का पूरी तरह व्यवसायीकरण हुआ, जिसे मोदी उलटकर जनसेवा का माध्यम बनाना चाहते हैं। अतएव इंदिरा गांधी एवं नरेंद्र मोदी भी साम्यता की बातें एक सतही विश्लेषण के सिवा कुछ नहीं। जहां तक उक्त लेखक का यह आरोप है कि मोदी कांग्रेस पार्टी को विपक्षी पार्टी ही नहीं मानते, वह इस संदर्भ में है कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का दर्ज नहीं दिया। बेहतर होता उक्त लेखक कांग्रेस-भक्ति से उबरकर इस मामले में कांग्रेस के रिकार्ड और संविधान को देखते।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here