समन्वय नंद
शम्भु नाथ कपिल की कहानी बहुत कम लोग जानते हैं । अंग्रेजों द्वारा मजदूरी कराने के लिए विश्व के अनेक देशों में भारतीयों को अनेक साल पहले भेजा गया था । इन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जा रहा था । इसके अलावा भारत के बाहर अनेक भारतबंशी सैकडों सालों से रहते आ रहे हैं । अंग्रेजों द्वारा मजदूरी कराने के लिए भेजने या फिर अन्य किसी कारण से ये लोग अन्य देशों में बसे हैं । वेस्ट इंडीज से लेकर सुरीनाम, मारिशस, फिजी से लेकर अन्य देशों में भारत के लोग फैले हुए हैं । पराये देश में अपनी संस्कृति व मूल्यों की रक्षा करना तथा उसी अगली पीढी तक पहुंचाना काफी कठिन काम होता है । तमाम समस्याओं के बावजुद वे अपने हिन्दू मूल्यों की रक्षा करते आ रहे हैं । केवल रक्षा ही नही करते आ रहे हैं बल्कि वे हिन्दू संस्कृति व मूल्यों को लेकर गर्व महसूस करते हैं । सैकडों सालों तक भारत से बाहर रहने के बाद भी वे अपने आप को भारत माता के पुत्र मानते आ रहे हैं ।भारत जब 1947 में आजाद हुआ तो विदेशों में रह रहे भारतीय लोगों में उत्साह का संचार हुआ । उन्हें लगा कि अंग्रेजों के शासनकाल में तो उन्हें भारत से अपनी संस्कृति की सुरक्षा व संस्कृति के सम्बर्धन के लिए किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल रही थी । लेकिन अब भारत स्वतंत्र हो गया था । अब उन्हें भारत से नैतिक समर्थक के साथ साथ अन्य सहायता भी आसानी से प्राप्त हो सकेगी जिससे वे अपने यहां हिन्दू संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन कर सकें ।सुदूर त्रिनिदाद में भी सैकड़ों वर्षों से हिन्दू बसे हुए थे । हिन्दू मूल्यों पर प्रतिबद्धता होने के बावजूद वहां बसे हुए हिन्दुओं का अपनी मातृभूमि भारत से सम्बन्ध टूट रहा था । वहां से हिन्दू संस्कार धीरे-धीरे लुप्त हो रहा था क्योंकि संस्कार सम्पन्न कराने वाले ब्राह्मण त्रिनिदाद में उपलब्ध नहीं थे । इस कारण त्रिनिदाद में रह रहे हिन्दुओं के लिए अपनी हिन्दू, संस्कृति व मूल्यों की रक्षा करना कठिन होता जा रहा था । उन्हें लगता था कि यदि संस्कार पूर्णत: नष्ट हो गए तो समाज निर्जीव ढ़ांचा मात्र रह जाएगा, यह सोच-सोच कर वहां के हिन्दू अत्यंत दुःखी हो रहे थे । इसलिए उन्होंने त्रिनिदाद के एक सांसद डॉ. शम्भूनाथ कपिलदेव को उनकी इस समस्या का समाधान के लिए भारत भेजा । यह शायद 1963 की बात है । जब डा शंभुनाथ कपिलदेव भारत आये तो वह काफी उत्साहित थे । उनको यकीन था कि त्रिनिदाद में रह रहे हिन्दुओं को उनकी हिन्दू संस्कृति व हिन्दू जीवन मूल्यों की सहायता करने के लिए निश्चित रुप से आगे आयेगी क्योंकि अब स्वतंत्र हो चुका है । डा शंभुनाथ कपिलदेव नई दिल्ली पहुंच कर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु से मिले और त्रिनिदाद की स्थिति के बारे में अवगत कराते हुए सहायता मांगी । लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें सहायता प्रदान करने के बजाय जो उत्तर दिया वह स्तब्धकर देने वाला था । उन्होंने डा शंभुनाथ से कहा कि आप कैसी दकियानुसी बातें कर रहे हैं । भारत सेकुलर देश है और त्रिनिदाद के लोगों को किसी प्रकार की सहायता नहीं कर सकता । भारत भौतिक विकास के पथ पर अग्रसर हो रहा है और आप उसे पीछे खिंचना चाहते हैं । इससे बडी आस लगा कर भारत आये डा शंभुनाथ कपिलदेव पंडित नेहरु की बात से काफी व्यथित थे । उनके लिए यह विश्वास करना कठिन हो रहा था कि जो भारत उन्हें हिन्दू संस्कृति व जीवनमूल्यों के संरक्षण व संवर्धन के लिए सहायता देने से इंकार कर रहा है । वे काफी निराश थे व पीडा में थे । खैर इसके बाद वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवालकर से जाकर मिले और श्री गोलवालकर ने उनकी समस्या का समाधान कर दिया । इसी पृष्ठभूमि में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई थी ।आज उस घटना को 50 साल से अधिक हो गया है । अब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं । श्री मोदी हाल ही में जपान के दौरे पर गये हैं । जापान में पहुंच कर विभिन्न कार्यक्रमों में शामिल होकर श्री मोदी ने हिन्दू जीवनमूल्यों की बात की । विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ उन्होंने अहिंसा को अपने डीएनए में होने की बात कही । उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति प्रकृति के साथ तादात्म होने की बात सीखाती है । यहा बच्चा जन्म होने पर चंदा को मामा तथा नदी को माता कह संबोधित करता है । श्री मोदी यह बातें केवल कहने के लिए नहीं कह रहे थे बल्कि कहते हुए गर्व अनुभव कर रहे थे ।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब जपान के सम्राट से मिले तो उन्हें श्रीमदभागवत गीता भेंट की । उन्होंने इस अवसर पर कहा कि ”आपको जानकर खुशी होगी कि मैं जापान के सम्राट को गिफ्ट में देने के लिए गीता लेकर आया हूं। मेरे पास इससे बढ़कर देने के लिए कुछ नहीं। दुनिया के पास भी इससे बढ़कर पाने के लिए कुछ नहीं है।”
नेहरु की आत्मा को तो यह सब सुन कर अवश्य कष्ट हुआ होगा , लेकिन शंभुनाथ कपिलदेव की आत्मा तो प्रसन्न हुई ही होगी ।