नारी मुक्ति की यन्त्रणा

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अपनी बात हान्ना रोशिन की किताब रही पुस्तक “The end of Men: And the rise of women”(2012) से उत्प्रेरित है। लेखिका कहती है कि जेंडर के युद्ध में औरतें विजेता रही हैं। अमेरिका की अर्थव्यवस्था में आए बदलाव को वे अपने मुख्य स्रोत के तौर पर इस्तेमाल करती हैं। पुरुषों के लिए यह फिक्र की बात है. क्योंकि परिवारों की आय में स्त्रियों का योगदान पुरुषों की अपेक्षा पहले के मुकाबले बढ़ता ही जा रहा है। विश्व के हर देश के विश्वविद्यालयों में छात्राओं का अनुपात उल्लेखनीय रूप से बढ़ा हुआ है। दक्षिणी कोरिया की विदेशी सेवाओं के लिए आयोजित परीक्षाओं में स्त्रियों की सफलता ने विदेशी मंत्रालय को बाध्य किया है कि पुरुषों के लिए न्यूनतम कोटा लागू करे। ब्राजिल में करीब एक तिहाई महिलाओं की आय पुरुषों के मुकाबले अधिक है। इसका नतीजा हुआ है कि पुरुषों ने अपने को “Men of Tears” कहते हुए चर्च सहायता समूहों का गठन किया है।

ऐटलांटिक पत्रिका की सम्पादिका  मिस रोशिन मानती हैं कि पुरुष निकट भविष्य में लुप्त नहीं होंगे। उनका कहना है  स्त्रियाँ उत्कृष्ट होती जा रही हं, जबकि पुरुष पिछड़ रहे हैं। अनुसंधान के क्रम में अमेरिका के विभिन्न राज्यों का दौरा करने के क्रम में आलाबामा में उन्होंने पाया कि औरतों की औसत आय पुरुषों से 40% अधिक है। यहाँ पुरुषों को रोजगार पाने के तरीके सीखने के लिए वर्चुवल सिमुलेशंस देखने को प्रोत्साहित किया जाता है।

मिस रोशिन की युक्तियाँ पुरुषों के अन्त की घोषणा तो नहीं करती, पर उनकी स्थिति में लगातार गिरावट की तस्वीर पेश करती है। सेवा आधारित नई अर्थ-व्यवस्था संप्रेषण एवम् अनुकूलन को पुरस्कृत करती है। महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले इन लक्षणों में अधिक दक्ष होती हैं। मिस रोशिन स्थापित करना चाहती हैं कि संसार ने मातृसत्ता को  स्वीकृति दे दी है, लेकिन समर्थन में आँकड़े नहीं जुटा पातीं।

पिछले पचास सालों में ऐसा क्या हुआ कि 5,000 सालों से कायम पुरुष सत्ता पर विलुप्ति की सम्भावना की बात उठ रही है। इस संक्रमण को विकासवाद के आइने में द्वन्द्वात्मक पद्धति से समझा जा सकता है। मानव सभ्यता के इतिहास को तीन मुख्य चरणों में बाँटा जा सकता है। कृषि पर आधारित समाज व्यवस्था से उद्योग और अंत में प्रौद्योगिकी पर आधारित सभ्यता और समाज का विकास। यह यात्रा कृषि के आविष्कार के साथ शुरु हुई। घर बने। कृषि के आविर्भाव के साथ  पुरुष और नारी के बीच श्रम-विभाजन स्थापित हुआ। कृषि ने समाज में वर्गभेद को जन्म देने के अलावे पहले से मौजूद लैंगिक असमानताओं को और भी धारदार बनाया। रोजगार का जिम्मा पुरुष का और घर सँभालना औरत के जिम्मे। कमानेवाला पुरुष, और खर्च करनेवाली औरत। पुरुष औरत को संरक्षण देने की भूमिका का दावा रखता   और परिवार के फैसले किया करता। अकसर बोझ ढोने का जिम्मा औरतों पर पड़ने लग गया । इसके अलावे गर्भधारण की बारंबारता बढ़ने के फलस्वरूप वे खराब सेहत से ग्रस्त रहने को अभिशप्त हुईं। सामान्य रूप से इसने मनुष्य समाज में औरतों की आपेक्षिक स्थिति को बुरा बनाया और वर्ग आधारित समाज को लागू किया। दोनो के बीच सहजीविता(symbiotic) का सम्पर्क स्थापित हुआ, पारस्परिक निर्भरता का।

औद्योगिक समाज में पुरुष और नारी के बीच का समीकरण बदला। औरत और मर्द के बीच समानता की अवधारणा उभड़ी। लिंग आधारित श्रम-विभाजन की अवधारणा पर सवाल उठने लगे। और नारी पुरुष का सम्पर्क पूरक होने के बजाय योगात्मक होने लग गया। स्त्रियों का कर्मक्षेत्र घर की चाहरदीवारी से बाहर भी प्रतिष्ठित हुआ और पारस्परिक निर्भरशीलता की बाध्यता में कमी आई।  औरतों के हाथ में आर्थिक क्षमता आने के साथ परम्परा से सम्मानित पितृसत्ता में दरारें पड़ने लगीं।

औद्योगिक समाज के प्रौद्योगिकी आधारित समाज में संक्रमण से आधुनिक समाज का उदय हुआ। महिलाओं के समक्ष नए आयाम उद्घाटित करना आधुनिकता की सबसे अधिक उल्लेखनीय उपलब्धि है। युगान्तरकारी परिवर्तनों का सिलसिला शुरु करने का श्रेय दो आविष्कारों को जाता है—रसोई गैस और जन्म निरोधक उपकरण। जन्म निरोधक उपकरणों ने अनियमित एवम् अनियन्त्रित प्रसव के चक्र से औरतों को मुक्त किया। उनको अपनी दशा एवम् दिशा पर ध्यान दे पाने के लिए समय, सुविधा एवम् अवसर की उपलब्धता बढ़ी। रसोई गैस ने घर की व्यवस्था को सुगम एवम् सहज बनाया। नारी सम्भावनाओं को ग्रहण करने के सामर्थ्य से सज्जित हुईं।  इन दो आविष्कारों के ही कारण पचास हजार सालों से स्थापित पुरुष तंत्र को वास्तविक चुनौती मिल पाई है।

“प्रथम प्रतिश्रुति” श्रीमती आशापूर्णा देवी की एक किताब का नाम है। इसकी नायिका सत्यवती औरतों के लिए परिवार और समाज में सम्मान एवम् सुख की प्रतिश्रुति का अभियान छेड़ती हैं। इस अभियान की उत्तरकथा का विवरण सत्यवती की बेटी सुवर्णलता और नतनी बकुल लता के माध्यम से तीन भागों में पेश किया गया है। यह बीसवीं सदी में भारतीय नारी की तीन पीढ़ियों की यात्रा का दस्तावेज है। सत्यवती और उसकी बेटी सुवर्णलता के जीवन में अपने लिए कोई सपना नहीं है। वे अपने लिए कोई फैसला नहीं ले सकतीं। सारे फैसले परिवार के पुरुष और परम्परा सम्मत मूल्यों के द्वारा लिए जाते रहे थे।  सत्यवती की यन्त्रणा थी कि वे अपने लिए फैसले खुद लें। पर पितृसत्ता के प्रतिरोध के सामने वे टिक नहीं पाती, पर आत्मसमर्पण भी नहीं करती।  प्रतिरोध में असफल होकर वे संसार त्याग देती हैं।

सुवर्णलता अन्त तक संघर्ष करती है और उन्हें यथास्थिति में दरार डालने में सफलता मिलती है। जब कि बकुल के सामने नया सामाजिक परिदृश्य है जिसमें सत्यवती की नतनियाँ पढ़ने लिखने तथा अपने जीवन के फैसले स्वतन्त्र रुप में लेने के अवसर एवम् सुविधाएँ समान रूप से पा रही हैं। पुरुषों की तरह सारे विकल्प उन्हें उपलब्ध हैं। वे स्वयम् अपने जीवन के फैसले ले रही हैं। अपने भाग्य के लिए जिम्मेदार हो रही हैं। वे पिता, अथवा पति के नाम से नहीं अपने नाम से परिचित होती हैं। बकुल अविवाहिता रहती है, वह एक प्रसिद्ध लेखिका है। उसकी एक भतीजी शम्पा स्नातक होने के बावजूद एक मेकैनिक से शादी करती है, दूसरी भतीजी कला बार डान्सर होती है, कई बार उसका गर्भपात होता है। सारे फैसले उनके अपने थे। यही तो सत्यवती ने चाहा था।  फिर भी अन्त में सवाल रह ही जाता है, क्या सत्यवती की नतनियाँ सुखी हो पाई हैं, क्या सत्यवती ने यही चाहा था? प्रश्न तो आज भी अनुत्तरित है।

 

 

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