राष्ट्रीय चेतना और स्वामी विवेकानंद के विचार

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मनोज ज्वाला
स्वामी विवेकानंद जयन्ती को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किये जाने का अर्थ यही है कि उनका आदर्श ही हमारे के नौजवानों का आदर्श है। सरकार की युवा नीति का आधार भी यही होना चाहिए। स्वामी जी ने भारत और शेष दुनिया के राष्ट्रों में एक खास अंतर निरूपित किया है। यह अन्तर ही भारत की मौलिकता है, जिसके कारण हमारे राष्ट्र का अस्तित्व कायम है, जिसकी वजह से हमारा भारत शाश्वत है। इस अंतर की आधारशिला है हमारी आध्यामिकता।स्वामी जी के शब्दों में भारतवर्ष में अध्यात्म ही राष्ट्र के हृदय का मर्मस्थल है, इसी को राष्ट्र की रीढ़ कह लो अथवा नींव समझो, जिसके ऊपर राष्ट्र रूपी ईमारत खड़ी है। जबकि दुनिया के शेष राष्ट्रों में राजनीति और भौतिकता की प्रधानता है तो भारत में धर्मनीति और आध्यात्मिकता की। जीवन संग्राम में भौतिकता लंबे समय तक टिक नहीं सकती जबकि आध्यात्मिकता चिरस्थायी है इसी कारण भारत की पहचान है। इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में नये-नये राष्ट्रों का उत्थान-पतन होता रहा है। वे पैदा होते हैं, कुछ समय बाद समाप्त हो जाते हैं। परन्तु भारत राष्ट्र अनेकानेक खतरों तथा उथल-पुथल की कठिनतम समस्याओं से जूझते हुए भी टिका है तो इसका कारण है वैराग्य-त्यागयुक्त हमारी धार्मिकता-आध्यात्मिकता। हमारे राष्ट्र का आधार धर्म है और धर्म का आधार त्याग है। इसके विपरीत यूरोप एक दूसरी ही समस्या सुलझाने में लगा हुआ है। उन राष्ट्रों की समस्या यह है येन-केन प्रकारेण धन व बल अर्जित करना। इसके लिए क्रूर, निर्दयी, हृदयहीन प्रतिद्वंद्विता यूरोप अमेरिका का नियम है। वे कहते हैं कि राजनीति एवं इस प्रकार की अन्य बातें भारतीय जीवन के अत्यावश्यक विषय कभी रहे ही नहीं हैं। परन्तु धर्म एवं आध्यात्मिकता ही ऐसा मुख्य आधार रहा है, जिसपर भारतीय जीवन निर्भर रहा है, भविष्य में भी उसे इसी पर निर्भर रहना है। अन्य राष्ट्रों के लिए धर्म, संसार के अनेक कृत्यों में से एक धंधा मात्र है। वहाँ राजनीति है, सामाजिक जीवन की सुख-सुविधायें हैं, धन तथा प्रभुत्व द्वारा जो कुछ प्राप्त हो सकता है और इंद्रियों को जिससे सुख मिलता है उन सब को पाने की चेष्टा भी है, इन सब विभिन्न जीवन व्यापारों के भीतर तथा भोग से निस्तेज इंद्रियों को पुनः उतेजित करने के उपकरणों की समस्त खोज के साथ वहाँ संभवतः थोड़ा बहुत धर्म-कर्म भी है। परन्तु, भारतवर्ष में मनुष्य की सारी चेष्टायें धर्म के लिए होती हैं- धर्म ही यहां जीवन का मूल है।स्वामीजी के अनुसार अंग्रेज लोग राजनीति के माध्यम से धर्म को समझ सकते हैं, अमेरिकन लोग राजनीतिक, सामाजिक सुधार के माध्यम से धर्म को जान सकते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड में बिना यह बताये कि वेदान्त के द्वारा कौन-कौन से आश्चर्यजनक राजनीतिक परिवर्तन हो सकेंगे, मैं धर्म-प्रचार नहीं कर सका। किन्तु भारत में लोग राजनीति और समाज सुधार को भी धर्म के माध्यम से ही समझ सकते हैं। आगे वे कहते हैं, भारत में किसी तरह के सुधार या उन्नति की चेष्टा करने से पहले धर्म का विस्तार आवश्यक है। सर्वप्रथम हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं उन्हें मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, वनों की शून्यता से दूर लाकर सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि वे सत्य सारे देश को चारों ओर से लपेट लें, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सब जगह फैल जाये-हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रहमपुत्र तक सर्वत्र।
स्पष्ट है कि स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय तरीके से चाहते थे भारत राष्ट्र की पुनर्रचना, आधुनिक रंगमंच पर प्राचीन भारत की स्थापना ही था उनका सपना था। वे देशवासियों को ललकारते हुए कहते हैं- ऐ भारत ! तुम भूलना मत कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री व दमयंती है …. मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं …मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन व जीवन इंद्रिय सुख के लिए-अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है ….मत भूलना की तुम जन्म से ही भारतमाता के लिए बलि स्वरूप रखे गये हो ….तुम मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छायामात्र है। हे वीर ! साहस का आश्रय लो। गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। भारत का समाज मेरे बचपन का झूला है, जवानी की फुलवारी है और मेरे बुढ़ापे की काशी है। भाई! बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण से मेरा कल्याण है और रात-दिन कहते रहो- हे गौरीनाथ! हे जगदम्बे! मेरी दुर्बलता व कापुरूषता दूर कर दो!
भारत के पुनरुत्थान हेतु स्वामी जी प्राथमिकता के तौर पर ऐसी शिक्षा प्रणाली की सिफारिश करते हैं जो हमारे बच्चों-छात्रों को भारत की ऋषि-संस्कृति का बोध कराये, जिसके लिए जरूरी है संस्कृत की शिक्षा। स्वामी जी उद्घोष करते हैं-जनता को उसकी बोलचाल की भाषा में शिक्षा दो, वह बहुत कुछ जान जायेगी। साथ ही कुछ और भी जरूरी है- उसे भारतीय संस्कृति का बोध कराओ। इसके लिए जरूरी है संस्कृत की शिक्षा। क्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनि मात्र से एक प्रकार का गौरव, शक्ति एवं बल का संचार होता है। वे कहते हैं कि राष्ट्रीय रीति से राष्ट्रीय सिद्धांतों के आधार पर संस्कृत शिक्षा का विस्तार करें तथा संसार के सभी राष्ट्र में प्राचीन भारतीय शास्त्रों के सत्य का प्रचार ही हमारे राष्ट्र की  वैदेशिक नीति का आधार हो।

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