सबको ढ़ाल बनाने की प्रवृत्ति …………….

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वीरेन्द्र सिंह परिहार

कोयला खदानो के मनमानी आवंटन और उसमें एक लाख 76 हजार करोड रू. के नुकसानी को लेकर कैग की रिपोर्ट के चलते मुख्य विपक्षी दल भाजपा और उसके सहयोगियों ने संसद का वर्षाकालीन सत्र नही चलने दिया। इसे लेकर कांग्रेस पार्टी द्वारा यह आरोप लगाया जा रहा है कि भाजपा इस तरह से संसद जैसी सर्वोच्च जन-प्रतिनिधि संस्था को निरर्थक बना रही है। जबकि किसी भी मामले में बहस के लिए ही संसद बनार्इ गर्इ है। दूसरी तरफ भाजपा का कहना है कि बहस के लिए बहस का क्या औचित्य है, यदि सरकार किसी जबाबदेही के लिए तैयार नही है। यदयपि यह कोर्इ पहला मौका नही है, जब संसद नही चलने दी गर्इ। वर्ष 2001 में कांग्रेस ने तहलका प्रकरण को लेकर तात्कालिन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज को रक्षा मंत्री न मानते हुए संसद नही चलने दी थी। यदयपि तब जार्ज के विरूद्ध न तो किसी न्यायालय का निष्कर्ष या टिप्पणी थी, न ही कैग या दूसरी किसी संवैधानिक संस्था की कोर्इ रिपोर्ट ही थी।

फिर भी कांग्रेस द्वारा कहा जा रहा है कि भाजपा ने संसद न चलने देकर लोकतंत्र का अवमान किया है। यह बात तो अपनी जगह पर है कि संसद बहस के लिए है, लेकिन सवाल यह कि संसद मात्र बहस के लिए है, या उस बहस को किसी तार्किक परिणिति तक ले जाने के लिए है। क्योकि इतना तो तय है कि संसद में जो भी बहस होती या सरकार कोयला खदानों के आवंटन को लेकर कैग की रिपोर्ट पर जो भी कहती, वह सारी बाते सामने आ चुकी है। जैसे एक तो सरकार का कहना है कि कैग की रिपोर्ट गलत है। कहां तो यह तक जा रहा है कि कैग जो कुछ कहा है, यहां तक कि उसके इरादों पर भी प्रश्न-चिन्ह खड़ें किए जा रहे है। दूसरे यह कहा जा रहा है कि भाजपा के कुछ राज्य सरकारों और दूसरे दलों की शासित सरकारों ने नीलामी का विरोध किया था। तीसरे यह कहा जा रहा है कि बिजली कारखानों के समुचित आपूर्ति के लिए प्राइवेट सेक्टर में इतनी ज्यादा कोयला खदाने दी गर्इ, ताकि बिजली उत्पादन पर्याप्त हो और लोगों को सस्ती बिजली मिल सके।

अब यह तो सभी को पता है कि कैग एक संवैधानिक संस्था है, और उसका काम ही सरकार के खर्चो और आय-व्यय की उचित जांच-पड़ताल करना हैं दूसरे कैग ने जो कुछ कहा है, वह तथ्यों एवं आकड़ोंके साथ कहा है। क्या यह सच नही कि केन्द्र सरकार ने ऐसे लोगों को भी कोयला खदाने आवंटित की जिन्होने इसके लिए आवेदन ही नही किया था, ऐसे लोगों को भी कोयला खदाने आवंटित की गर्इ जो इसके पात्र नही थे। हकीकत यह भी है कि कर्इ ने कोयला खदाने लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम की तरह उसे भारी मुनाफा लेकर दूसरों को बेंच दिया। बताया जा रहा है कि 80 प्रतिशत आवंटित खदानों पर कोर्इ कोयला खनन का कार्य हुआ ही नही, दूसरी तरफ इसके चलते सरकार को 100 गुना ज्यादा कीमत देकर विदेशों से कोयला मंगाना पड़ा फिर भी देश के थर्मल पावरों को पर्याप्त कोयला नही मिला। दूसरी तरफ सीबीआर्इ इस मामले की जांच कर रही है,कर्इ प्रतिष्ठानों पर छापे मार चुकी है, और कर्इ के विरूद्ध एफ.आर्इ.आर. दर्ज हो चुकी है, ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि कैग की रिपोर्ट गलत है। यह बात अलग है कि अरविंद केजरीवाल यह आरोप लगा रहे है कि ऐसी जगहों पर छापा मारे जाने वाली कम्पनियों को दो दिन पहले ही सूचना दे दी गर्इ थी। अब यदि ऐसा है तो यह समझा जा सकता है कि भाजपा और विपक्षी दल सी.बी.आर्इ. जांच पर भरोसा न कर क्यों स्वतंत्र जांच की मांग कर रहे है? एक बड़ी बात यह कि जिन्हे खदानों का आवंटन हुआ, उनके विरूद्ध तो एक कोर्इ-न-कोर्इ कार्यवाही हो रही है, पर जिन्होने आवंटन का कार्य किया, उनके विरूद्ध तो कुछ नही हो रहा हैं सुबोध कांत सहाय और श्री प्रकाश जायसवाल ने अपने रिश्तेदारों के लिए कोयला खदानों के आवंटन के लिए पत्र लिखा और उन्हे तत्काल खदानें आवंटित कर दी गर्इ। ऐसे ही राजद के पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रेमचन्द्र गुप्ता के पुत्रों के कंपनी को भी विधि विरूद्ध ढ़ंग से खदाने आवंटित की गर्इ।

अब सवाल जहां तक भाजपा शासित राज्यो या दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों का है। अब उन्होने नीलामी का विरोध किया था या नही किया था, यह बात तो अपनी जगह पर है, पर यह बात तो सच है कि न तो उन्होने कोयला खदानों का आवंटन किया और न आंवटन प्राप्त ही किया। बाबजूद इसके भी यदि वह दोषी है, तो निष्पक्ष जांच में दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा। फिर भी सरकार किसी उच्च स्तरीय जांच के लिए तैयार क्यो नही हुर्इ? यह विचारणीय प्रश्न है, जबकि ऐसा होने पर भाजपा संभवत: संसद की कार्यवाही चलने देने के लिए तैयार हो जाती। इसके साथ जैसा कि पहले बताया जा रहा है कि न तो थर्मल पावर स्टेशनों को समुचित कोयले की सप्लार्इ हुर्इ, और न पर्याप्त बिजली का उत्पादन हुआ, न उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली मिली। आखिर में यदि इतने वर्षो तक इन खदानों में कोयले का उत्पादन शुरू नही हुआ, तो सरकार हाथ-पर-हाथ धरे क्यो बैठी रही? इसका मतलब तो यह निकलता है कि इस देश में जिसे सरकार कहनते है, उस नाम की कोर्इ चंीज नही है, और सब कुछ फिकिसंग का खेल है।

अब सरकार कहती है, कि संसद ही सब कुछ है, तो क्या यह सरकार बताएगी कि फिर संसद की जो समितिया है, उन्हे सही ढंग से काम क्यो नहीं करने दिया जा रहा है। लोग यह कह सकते है कि इसके उदाहरण क्या है? उदाहरण ही उदाहरण है। लोकपाल ड्राफ्ट करने वाली संसद की स्थायी समिति में बहुमत को किनारे कर सरकार के इशारे पर कमजोर लोकपाल का ड्राफ्ट दिया गया। लोक लेखा समिति जिसकी दुहार्इ सरकार दे रही है कि कैग की रिपोर्ट वहां पहले जानी चाहिए और वहा से परीक्षण के उपरांत ही कोर्इ निष्कर्ष निकालना चाहिए। उस पी.ए.सी. को 2 जी स्पेक्ट्रम प्रकरण में कैसे कांग्रेस पार्टी निरर्थक कर चुकी है। यहां तक कि उसमें हुडदंग भी मचा चुकी है। यह पूरा देश जानता है कि फिर भी यदि कैग की रिपोर्ट पी.ए.सी. में भेजे जाने का प्रावधान है तो इसका मतलब यह नही कि कैग की रिपोर्ट के आधार पर कोर्इ कार्यवाही नही होनी चाहिए, खास कर जबकि वह आइने की तरह स्पष्ट हो। बिडम्बना यह कि जे.पी.सी. यानी कि संयुक्त संसदीय समितियों की बहुत चर्चा होती है, पर बोफोर्स और नोट के बदले वोट काण्ड मे कैसे कांग्रेस जे.पी.सी. के माध्यम से लीपापोती करा चुकी है, यह पूरा देश देख चुका है। अब 2-जी स्पेक्ट्रम पर बनी संयुक्त संसदीय समिति का भी यही हाल है। जहा पर कांग्रेस और उसके सहयोगी किसी भी कीमत पर इसके लिए तैयार नही है, कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को जे.पी.सी. के समक्ष पूछतांछ के लिए बुलाया जाए। प्रधानमंत्री स्वत: पहले पी.ए.सी. तक के समक्ष उप. होने को कह चुके है, पर अब चुप्पी साधें है। पता नही पूछताछ से इनका कौन मान-सम्मान कम हो जाएगा? पर शायद सच्चार्इ सामने आ जाए, जिसे यह किसी भी कीमत पर नही आने देना चाहते। तभी तो विपक्षी सांसदों से जो इस समिति मे है, उनके अभद्रता की जा रही है, और उन्हे समिति के अलग होने पर विचार करना पड़ रहा है। कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए इस देश में चाहे संसद हो, चाहे उसकी समितिया हो, या जे.पी.सी. हो, उसकी प्रवृत्ति संख्या-बल से सबको ढ़ाल बनाने की है।

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  1. अगर भाजपा शाशित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कोयला खदानों के नीलामी का विरोध किया था तो क्या नीलामी से पूर्व उन्हें उन समस्त परिस्थितियों से अवगत कराया गया था जिनके कारण २००४ में ही मनमोहन सिंह सर्कार ने कोयला खदानों के नीलामी की बात कही थी? क्या उन्हें कोयला सचिव और उसके पीछे के सभी आंकड़ों और तथ्यों से अवगत कराकर उनकी राय मांगी गयी थी? क्या उन्हें ये कहा गया था की कोयला खदानों की नीलामी से जो अतिरिक्त धन प्राप्त होगा उसे भी राज्यों के साथ शेयर किया जायेगा? और सबसे महत्वपूर्ण बात की क्या केंद्र सर्कार राज्यों के मुख्या मंत्रियों, विशेष कर भाजपाई मुख्या मंत्रियों की राय मानने को बाध्य थी?सरकारी भोंपू इस प्रकार की बातें करके किसे बेवकूफ बनाना चाहते हैं? क्या जनता इतनी नासमझ है जो केंद्र सर्कार की इन बेसिरपैर की बातों के झांसे में आ जाएगी?अब वर्तमान सर्कार के पाप का घड़ा भर ही चूका है और रही सही कसार आने वाले दिनों में उजागर होने वाले थोरियम घोटाले से पूरी हो जाएगी जो अब तक के सभी घोटालों का बाप है और जिसके लिए सीधे तौर पर प्रधान मंत्री के अधीन परमाणु उर्जा विभाग है.इस के लिए किसी भाजपाई मुख्या मंत्री को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकेगा. भाजपाईयों को अब अपनी आराम तलबी छोड़कर सडकों पर संघर्ष की रन भेरी फूंकने को सन्नद्ध होना ही पड़ेगा.वर्ना उन पर भी अकबर इलाहाबादी का ये शेयर लागू होगा :कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ, रंज लीडर्स को बहुत है मगर आराम के साथ.

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