प्रकृति के दबाव का मार्ग है- भूकंप

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-प्रमोद भार्गव-

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बिना आहट के इतने बड़े इलाके में भूकंप आना और पल भर में तबाही मचा जाना, इस बात का संकेत है कि प्राकृतिक आपदाओं के आगे इंसान मजबूर है। 25 अप्रैल शनिवार 2015 को नेपाल में आए विनाशकारी जलजले के प्रवह में देखते-देखते ढाई हजार से भी ज्यादा लोगों की जीवन-लीला खत्म हो गई। भारत में भी 40 लोग मारे गए। तूफान का असर नेपाल, चीन, भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत में देखने में आया है। इससे पहले इतने बड़े भू-क्षेत्र में पहले कभी धरती नहीं डोली। इससे साफ होता है कि, वे सब क्षेत्र भूकंप के दायरे में हैं, जिनकी जानकारी भू-गर्भ वैज्ञानिक पहले ही दे चुके हैं। बावजूद हैरानी यह है कि इस भूकंप की पूर्व से भनक दुनिया के किसी भी भूकंप मापक यंत्र पर नहीं हो पाई ? जबकि नेपाल में राजधानी काठमांडू के ईद-गिर्द आए तूफान की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7.9 आंकी गई है। भूकंप की यह तीव्रता और इससे पहले उत्तराखंड व जम्मू-कश्मीर में आई भीषण बाढ़ें इस बात का संकेत हैं कि असंतुलित विकास से उपजे जलवायु परिवर्तन के संकट ने पूरी हिमालय पर्वतमाला में भूकंप का बीजारोपण कर दिया है। इस तबाही के संकेत सामने आने लगे हैं। इन  सबूतों ने तय कर दिया है कि चुपचाप आया पल भर का प्रलय विनाश का कितना बड़ा कारण बन सकता है।
भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। भारत और नेपाल समेत पूरी दुनिया धरती के इस अभिशाप को झेलने के लिए विवश होती रही है। बावजूद हैरानी में डालने वाली बात यह है कि दुनिया के वैज्ञानिक आजतक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की पहले ही जानकारी हासिल कर ली जाए। भंकप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिंद्धात से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया की परत से जा टकराईं। इस टक्कर के परिणामरूवरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनी। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें एक दूसरे से टकराकर घुस गई हैं। परतों के टकराने की इसी प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। आधुनिकतम तकनीकी उपकरणों के माध्यम से परतों की गति मापने से पता चला है कि भारत और तिब्बत एक-दूसरे की ओर दो सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से खिसक रहे हैं। नतीजतन इस प्रक्रिया से हिमालय क्षेत्र पर दबाव बढ़ रहा है। इस दबाव के प्रवाह को बाहर निकालने का प्रकृति के पास एक ही मार्ग है, और वह है भूकंप।
एशिया के हिमालय प्रायद्वीपीय इलाकों में बीते सौ वर्ष से धरती के खोल की विभिन्न दरारों में हलचल जारी है। हालांकि वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि सामान्य तौर पर भूकंप 13 साल में एक बार आता है। लेकिन अब यह धारणा खंडित हो रही है। जबलपुर में 1997 में भूकंप आया और इसके ठीक 4 साल साल बाद गुजरात के कच्छ में भूकंप ने जबरदस्त तबाही मचाई थी। हालांकि नेपाल में इस तूफान के पहले 1934 में बिहार-नेपाल की सीमा पर तूफान आया था। अमेरिका की प्रसिद्ध ‘सांइस‘ पत्रिका ने कुछ वर्ष पहले भाविष्यवाणी कि थी कि अभी हिमालय के क्षेत्र में एक भयानक भूकंप आना शेष है। यदि यह भूकंप आया तो यह 5 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को प्रभावित करेगा। जिसमें करीब 2 लाख लोग मारे जाएंगे। हालांकि पत्रिका ने इस अनुमानित भूकंप के क्षेत्र, समय और तीव्रता सुनिष्चित नहीं किए है, लेकिन यह ताजा भूकंप जितने बड़े इलाके को हिलाकर गुजर गया है, उससे यह संकेत मिलता है कि पत्रिका में की गई भयानक भूकंप की भविष्यवाणी महज अटकल नहीं है।
वैसे भी भूकंप की परतें भारत से लेकर अंटार्कटिक तक फैली हैं। यह पाकिस्तान सीमा से भी स्पर्श करती है। यह हिमालय के दक्षिण में है। जबकि यूरेशियन परतें हिमालय के उत्तर में हैं। भारतीय परतें उत्तर पूर्व दिशा में यूरेशियन परतों से जा मिलती है। इसी क्षेत्र में चीन बसा है। यदि ये परतें आपस में टकराती है तो भूकंप का सबसे बड़ा क्रेंद्र भारत होगा। भूकंप के खतरे के हिसाब से भारत 5 क्षेत्रों में बंटा है। पहले क्षेत्र में पश्चिमी मध्यप्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उड़ीसा के हिस्से आते है। यहां भूकंप का सबसे कम खतरा है। दूसरा क्षेत्र तमिलनाडू, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और हरियाणा है। यहां भूकंप की संभावना बनी रहती है। तीसरे क्षेत्र में केरल, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिमी राजस्थान, पूर्वी गुजरात, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का कुछ भाग आता है। इसमें जब-तब भूकंप के झटके आते रहते है। चौथे क्षेत्र में मुबंई, दिल्ली जैसे महानगर हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी गुजरात, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाके और नेपाल बिहार सीमा रेखा क्षेत्र शामिल हैं। यहां भूकंप का खतरा सबसे ज्यादा बना रहता है। पांचवें क्षेत्र में गुजरात का कच्छ इलाका और उत्तराखंड का कुछ हिस्सा आता है। पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्य इसी क्षेत्र में आते है। भूकंप की दृष्टि से ये इलाके सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं, । इन्हीं क्षेत्रों को भयानक भूकंपों का क्षेत्र माना गया है। नेपाल में आए भूकंप का क्षेत्र इसी इलाके में आता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। हालांकि नेपाल की राजधानी काठमांडू से 80 किमी दूर लामजुंग में यह जो भूकंप आया है वह जमीन से 15 किमी था। इससे यह पता चलता है कि भूकंप की प्रक्रिया की गहराई कम होती जा रही है। इसलिए कालांतर में आने वाले भूकंप बड़ी तबाही का सबब बन सकते हैं।
दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूंकप आता कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी नीचे भी आते हैं। इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्व में बदल जाती है। लेकिन यह हलचल इतनी नीचे होती है, इसके झटकों या टकराव के असर ऊपर तक कम ही आ पाते हैं। लेकिन इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा से बाहर निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया है। सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। हालांकि इस आवधारणा के विपरीत कुछ वैज्ञानिकों की यह भी मान्यता है कि इतनी गहराई से भूकंप धरती की सतह पर तबाही मचाने में सफल नहीं हो सकते, क्योंकि चट्टानें तरलव्य के रूप में होती हैं।

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