नौकरशाही में भ्रष्टाचार के मगरमच्छ

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प्रमोद भार्गव

शीर्ष नौकरशाही में ऐसे मगरमच्छ सामने आए हैं, जो बागड़ द्वारा खेत चरने की कहावत को चरितार्थ कर रहे थे। आर्थिक आपराधों पर शिकंजा कसने वाली देश की सर्वोच्च संस्था ‘केंद्रीय जांच ब्यूरो‘ (सीबीआई) ने अपने ही पूर्व निदेशक एपी सिंह पर एफआईआर दर्ज की है। सीबीआई के ही दूसरे सेवानिवृत्त निदेशक रंजीत सिन्हा भी आरोपों के घेरे में हैं। उनके खिलाफ भी ममला दर्ज करने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने दे दिया है। इन नौकरशाहों पर कार्रवाही के बाद सीबीआई ने छत्त्तीसगढ़ के प्रमुख सचिव बीएल अग्रवाल को गिरफ्तार किया है। अग्रवाल पर सीबीआई द्वारा उनके विरुद्ध की जा रही जांच को प्रभावित करने का आरोप है। इस जांच को गोलमाल करने के ऐवज में डेढ़ करोड़ की रिश्वत देने का पर्दाफश हुआ है। अग्रवाल के साथ उनके साले आनंद अग्रवाल और नोएडा के दलाल भगवान सिंह को भी हिरासत में लिया गया है। इसी दौरान सीबीआई ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के पूर्व संयुक्त निदेशक जेपी सिंह को गिरफ्तार किया है। आईपीएल क्रिक्रेट सट्टेबाजी की जांच करने वाले सिंह पर आरोपी से रिश्वत लेने का गंभीर आरोप है। शीर्ष अधिकारियों से जुड़े इन मामलों से साफ होता है कि हमारी जिस नौकरशाही पर ईमानदारी से जांच-पड़ताल कर आरोपियों के विरुद्ध न्यायालय में चालान पेश करने की जबावदेही है, वही भ्रष्टाचार में गले-गले डूबकर जांचों को बट्टा लगाने का काम कर रही है। यही वजह है कि अकसर पुख्ता सबूतों की कमी के चलते आर्थिक अपराधियों को आदालत सजा नहीं सुना पाती। बावजूद केंद्र सरकार प्रशासनिक सुधार की दिशा में कोई पहल नहीं हो रही है।

नौकरशाहों के कदाचरण से जुड़े ये मामले इसलिए भी गंभीर हैं, क्योंकि इनके द्वारा बरते गए भ्रष्टाचार के चलते ही हवाला और कालाधन के खिलाड़ी अपने खोल को अंजाम तक पहुंचाने में सफल होते रहे हैं। सदिग्ध हवाला कारोबारी मोइन कुर्रेशी से मिलीभगत होने के कारण ही सीबीआई के पूर्व निदेशक एपी सिंह के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। इसी तरह रंजीत सिन्हा पर कोयला घोटाले के आरोपियों से मिलीभगत के आरोप हैं। इनसे आरोपी इनके निवास स्थलों पर बेहिचक कई बार मिले हैं। रंजीत सिन्हा के अतिथि रजिस्टर से यह प्रमाणित हुआ है कि उनसे कौन-कौन आरोपी कब-कब मिला है। इसी रजिस्टर को उन पर कार्रवाही का प्रमुख आधार बनाया गया है। इस रजिस्टर को जब सुप्रीम कोर्ट के सामने लाया गया तो सिन्हा ने बेहद हास्यास्पद और चलताऊं लहजे में सफाई देते हुए कहा था कि वे इन आरोपियों का पक्ष जानने के लिए उनसे घर पर मिलते थे। जबकि ‘कर्मचारी आचार संहिता‘ के मुताबिक कोई भी अधिकारी आरोपी हो या फरियादी उसका बयान केवल दफ्तर में दर्ज कर सकता है।

इस संदर्भ में मजे की बात यह भी है कि सिन्हा और एपी सिंह घरों पर मिलते जरूर थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी आरोपी का अधिकारिक बयान दर्ज नहीं किया और न ही रीडर व स्टेनो के समक्षर बातचीत की। गोया यहां सवाल उठता है कि जब आधिकारिक बयान किया ही नहीं गया तो फिर वह कौन सा पक्ष था, जो इन आरोपियों से घर पर मिलने के दौरान संज्ञान में लिया गया ? सिंन्हा के घर मोइन कुर्रेशी भी जाता था। फिलहाल एपी सिंह की सफाई सामने नहीं आई है, लेकिन जब सीबीआई स्वयं अपने ही निदेशक के खिलाफ मामला दर्ज करने को मजबूर हुई है तो साफ है, मामले से संबंधित गंभीर साक्ष्य उनके विरुद्ध मिले होंगे ? बावजूद यह अभी भविष्य के गर्भ में है कि अदालत में पेश किए जाने वाले चालान के साथ, सीबीआई कितने पुख्ता सबूत पेश कर पाती है ? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है, क्योंकि वर्चस्वशाली राजनेताओं, नौकरशाहों और व्यापारियों से संबंधित मामलों में अकसर लचर सबूत ही कमजोर कड़ियां साबित हुए हैं। जिनका सीधा-सीधा फायदा आरोपियों को मिलता रहा है।

इसी क्रम में सीबीआई की जांच को आला अफसर द्वारा प्रभावित करने का अजीबोगरीब घटनाक्रम सामने आया है। 2010 में रिश्वत लेने के आरोप में सीबीआई जांच का सामना कर रहे छत्तीसगढ़ के प्रमुख सचिव बीएल अग्रवाल अब रिश्वत देने के आरोप में कठघरे में हैं। अग्रवाल ने इस मामले को रफादफा करने के लिए 45 लाख रुपए नकद और दो किलो सोने की रिश्वत दी थी। सीबीआई ने बतौर रिश्वत दी गई धनराशि में से 39.50 लाख रुपए और दो किलो सोना बरामद भी कर लिया है। इस प्रकरण की जानकारी देते हुए सीबीआई के प्रेस प्रवक्ता ने कहा है कि 2010 में सीबीआई ने अग्रवाल के खिलाफ दो मामले दर्ज किए थे। इस दौरान वे स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव थे। इनमें से एक मामले में उनके विरुद्ध आरोप पत्र अदालत में पेश भी हो चुका है। दूसरे मामले को निपटाने के लिए अग्रवाल ने नोएडा के भगवान सिंह से संपर्क किया। सिंह ने अग्रवाल को हैदराबाद के सैयद बुरहानुद्दीन से मिलाया। बुरहानुद्दीन ने प्रधानमंत्री कार्यालय का अधिकारी होने का दावा करते हुए सीबीआई में चल रहे मामले में मदद करने का भरोसा दिया और इसके ऐवज में डेढ़ करोड़ का सौदा तय हुआ।

भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुड़े अधिकारियों के बारे में अकसर ये दावे किए जाते हैं कि उनका आईक्यू श्रेष्ठ होता है, नतीजतन वे उड़ती चिड़िया को भांप लेते हैं। किंतु संकट में फंसे अग्रवाल की बुद्धि यह पता नहीं लगा पाई कि बुरहानुद्दीन स्वयं एक बड़ा ठग हैं ? यह तो जांच से पता चला कि वह कभी ओपी शर्मा तो कभी ओपी सिंह जैसे छद्म नामों से अपने दलाली के व्यापार का परचम फहराए हुए था। बुरहानुद्दीन के कहने पर बीएल अग्रावाल ने हवाला के मार्फत भगवान सिंह को 45 लाख रुपए और फिर नकदी की कमी होने के कारण साले आनंद अग्रवाल के मार्फत दो किलो सोना रिश्वत के रूप में भिजवा दिया। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने सीबीआई की ताजा कार्रवाही के बाद अग्रवाल को निलंबित कर दिया है। जबकी उन पर एक मामले में पहले ही चालान पेश हो गया था, तब वे अब तक प्रमुख सचिव जैसे अहम् पद पर कैसे पदस्थ बने रहे ? उन्हें तत्काल निलंबित क्यों नहीं किया गया ? गौरतलब है कि आईएस जब किसी ओहदे पर बना रहता है तो उसे अपनी पहुंच का इस्तेमाल व सरकारी संसधानों का उपयोग करने में आसानी होती है। ऐसे में वह चल रही, जांचों को धन से प्रभावित करने के लिए मोटी रिश्वत भी लेने लग जाता है। साफ है, अग्रवाल ने डेढ़ करोड़ की रिश्वत देने के लिए कितनी जनकल्याणकारी योजनाओं को पलीता लगाया होगा, इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल है ?

इसी दौर में सीबीआई ने प्रवर्तन निदेशालय के पूर्व संयुक्त निदेशक जेपी सिंह को गिरफ्तार किया है। सिंह भारतीय राजस्व सेवा के 2000 बैच के अधिकारी हैं। इन पर आईपीएल किक्रेट सट्टेबाजी से जुड़े आरोपियों से रिश्वत लेने का आरोप है। सट्टेबाजी का यह मामला 2015 में दर्ज किया गया था। इस मामले में ईडी के अधिकारी संजय और दलाल विमल अग्रवाल व चंद्रेश पटेल को भी हिरासत में लिया गया है। इन अधिकारियों ने सट्टेबाजों को हवाला व दोहरे कराधान से बचाने के लिए आरोपियों से मोटी रिश्वत की मांग की थी। इसी समय नौ आयकर विभाग के अधिकारियों को भी रिश्वत लेने के मामलों में आरोपी बनाया गया है।

फिलहाल बड़े अधिकारियों पर कानूनी ष्किंजा कसा-सा लग रहा है। लेकिन हम जानते हैं कि कानूनों के ढोल में पोल के चलते अकसर नौकरशाह और राजनेता साफ-साफ बच निकलते हैं। यह आषंका सीबीबाई की पुख्ता जांच व कार्रवाही के बावजूद प्रशासनिक अधिकारियों के लिए ऐसे सुरक्षा कवच हैं, जिनके वर्चस्व के चलते अधिकारी दोषी होने के बावजूद बच जाते हैं। इस बाबत नौकरशाही के लिए ढाल बने संविधान के अनुच्छेद 310 एवं 311 हैं। नागरिक समाज इनमें बदलाव की मांग अर्से से कर रहा है, लेकिन इन सुरक्षा- कवचों को भेद पाना मुश्किल बना हुआ है। इसीलिए प्रशासनिक सुधार की बात की जा रही है। गोया, आला-अधिकारियों से संबंधित सेवा-शर्तों की जब तक नए सिरे से समीक्षा कर परिभाशित नहीं किया जाएगा, तब तक जरूरी नहीं कि एफआईआर दर्ज होने के बाद भी मामले अंतिम अंजाम तक पहुंच पाएंगे ? यह सही है कि नौकरशाहों से जुड़े ये जो मामले सामने आए हैं, ये सब डाॅ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल के हैं, बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी सरकार में नौकरशाही भ्रष्टाचार मुक्त व निर्मल हो गई है ? हकीकत तो यह है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगे और प्रशासनिक सुधार हों, इस दिशा में नरेंद्र मोदी ने भी अपने पौने तीन साल के कार्यकाल में कोई पहल नहीं की है। दरअसल विडंबना तो यह है कि राजनीतिक दलों के अजेंडे में प्रशासनिक सुधार शामिल ही नहीं हैं।

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