‘नव रूप में नव प्रीति में ,
आते रहेंगे ज्योति में;
अनुभूति में चित दीप में,
वाती जलाते श्रीति में !
वे दूर ना हम से गये,
बस टहलने सृष्टि गये;
अवलोकते हमको रहे,
वे और भास्वर हो रहे !
देही बदल आजाएँगे,
वे और प्यारे लगेंगे;
दुलरा हमें पुनि जाएँगे,
जो रह गया दे जाएँगे !
है लुप्त ना कोई यहाँ,
बस व्याप्ति के वश जहान;
है जन्मना मरना वहाँ,
पर सभी कुछ उनके मना !
नाटक नियति के पात्र वे,
अपना है धर्म निभा रहे;
‘मधु’ आ रहे या जा रहे,
गोदी सदा प्रभु की रहे !
गोपाल बघेल ‘मधु’