नवजोत सिद्धू कांग्रेस के लिए लिये वरदान या अभिशाप ?

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तनवीर जाफ़री

नवजोत सिद्धू का मैं और मेरे जैसे करोड़ों भारतवासी घोर प्रशंसक हैं । 1983 से 1999 तक भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य के रूप में  उन्होंने कई बार अपनी शानदार बल्लेबाज़ी से  देश का नाम रौशन किया है। उसके बाद शानदार फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी में  दूरदर्शन पर क्रिकेट मैचों की कॉमेंट्री देना,टी वी के पर्दे पर अनेक कार्यक्रमों में उनके धमाकेदार प्रदर्शन, राजनैतिक दलों के मंच पर उनका आकर्षक भाषण आदि उनके गुणों में शामिल हैं । उनके ‘ठोको ताली और ‘गुरू ‘ शब्द की अदायगी से तो गोया यह शब्द उन्हीं के लिये निर्धारित हो गये हैं। परन्तु इन दिनों पंजाब कांग्रेस के भीतर नवज्योत सिद्धू की वजह जिस तरह का घमासान दिखाई दे रहा है उसे देखकर यह सोचना ज़रूरी हो गया है कि उपरोक्त तमाम विशेषताओं वाले सिद्धू क्या अपने स्वभाव,अपनी महत्वाकांक्षाओं अपने बड़बोलेपन और राजनीति में जल्दबाज़ी की उनकी प्रवृति जैसी कई बातों की वजह से क्या वे स्वयं को राजनीति के मैदान के भी सफल खिलाड़ी साबित कर पायेंगे ?                              

                                    सिद्धू चाहे भारतीय जनता पार्टी में रहे हों या अब कांग्रेस में उन्हें उनके ‘सेलेब्रिटी ‘ व्यक्तित्व के चलते हर जगह स्टार प्रचारक का रुतबा हासिल होता है। वे जिस लहजे में बिंदास शैली में भाषण देते हैं वह भी जनता पूरी दिलचस्पी के साथ सुनती है। उनकी राजनैतिक पारी की शुरुआत भारतीय जनता पार्टी से हुई जहां उन्होंने अमृतसर से 2004 में लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 2009 में भी वे अमृतसर से ही पुनः लोकसभा चुनाव लड़े और फिर जीते।  परन्तु  2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से भाजपा ने अरुण जेटली को चुनाव लड़ाया और जेटली पराजित हुए। फिर भाजपा ने ‘सांत्वना ‘ के रूप में सिद्धू को राज्यसभा का सदस्य बनाया। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्यसभा सदस्य बनने के बाद से ही वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में  शामिल होने के इच्छुक थे परन्तु ऐसा न हो पाने व अकाली दल से अपने मतभेद जैसे कारणों के चलते उन्होंने 2016 में भाजपा एवं राज्यसभा की सदस्यता दोनों ही त्याग दी। उस दौरान कई दिनों तक उनके आम आदमी पार्टी में शामिल होने की अटकलें चलती रहीं। मीडिया ने यह अटकलें भी लगाईं कि यदि आम आदमी पार्टी सिद्धू को पंजाब विधानसभा चुनाव में मुख्य मंत्री के चेहरे के रूप में पेश करती है तो वे ‘आप’ में भी शामिल हो सकते हैं। इन अटकलों का आधार भी दरअसल यह था कि भाजपा छोड़ने के बाद उन्होंने  ट्वीट के माध्यम से कहा था कि “विपक्षी दल आम आदमी पार्टी ने पंजाब को लेकर उनके वीज़न का हमेशा मान रखा है, चाहे 2017 से पहले हुई बेअबदी हो, नशे का मुद्दा हो, किसानों के मसअले हों, भ्रष्टाचार हो या हाल के दिनों में पंजाब की जनता के सामने पैदा हुआ बिजली संकट हो। मैंने हमेशा पंजाब मॉडल को सामने रखा है और उन्हें (आप) पता है कि असल में कौन पंजाब के लिए लड़ रहा है।” सिद्धू के इस ट्वीट के बाद स्वभाविक तौर पर यह अंदाज़ा लगाया जाने लगा था कि वे कभी भी ‘आप’ परिवार के सदस्य हो सकते हैं। परन्तु इसी बीच सिद्धू ने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाकर इन अटकलों पर विराम लगाया और कहा कि केजरीवाल के पास मुझे देने के लिये है ही क्या ? इसके साथ ही उन्होंने अब तक की अपनी सभी राजनैतिक उपलब्धियां भी गिना डालीं।                                बहरहाल,अंततोगत्वा राहुल गाँधी से मिलने के बाद जनवरी 2017 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये। उनके पार्टी में शामिल होते ही विवादों की भी शुरुआत हो गयी। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह समेत पूरी पंजाब कांग्रेस ने सिद्धू का कांग्रेस में स्वागत तो ज़रूर किया परन्तु कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने साथ ही यह भी कहा कि वे अमृतसर से आगामी लोकसभा चुनाव पार्टी उम्मीदवार के रूप में लड़ेंगे जबकि सिद्धू की ओर से उन्हें पंजाब का उप मुख्यमंत्री बनाने की चर्चा चली। यहीं से कैप्टन अमरेंद्र सिंह व सिद्धू के बीच राजनैतिक टकराव की स्थिति पैदा हो गयी। कैप्टन ने पंजाब में कांग्रेस की सीटें अपेक्षाकृत कम आने के लिये भी सिद्धू को ही ज़िम्मेदार ठहराया। इन दोनों के बीच तल्ख़ी का एक कारण यह भी है कि कैप्टन जहाँ पटियाला राजघराने के पूर्व महाराज हैं वहीँ सिद्धू भी मूल रूप से पटियाला के ही निवासी हैं। सिद्धू के पिता भी पंजाब कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में रहे हैं। हालांकि सिद्धू कई बार अपने पिता की इस बात के लिये आलोचना करते भी सुने गये हैं कि वे कांग्रेस में क्योंकर रहे। परन्तु स्वयं सिद्धू के कांग्रेस की सदस्य्ता ग्रहण करते ही उनकी नज़रें कैप्टन अमरेंद्र सिंह की या उनके समानांतर किसी कुर्सी पर केंद्रित हो गयीं। दरअसल स्वयं कैप्टन अमरिंदर सिंह ने यह घोषणा की थी कि अब भविष्य में वे चुनावी मैदान में नहीं उतरेंगे।  ख़बरों के अनुसार कैप्टन की इसी घोषणा को आधार बनाकर सिद्धू ने कांग्रेस आलाकमान को इस बात के लिये राज़ी कर लिया कि पहले उन्हें 5 वर्ष के लिये उपमुख्यमंत्री बनाया जाये और यदि वे पांच वर्ष तक एक कारगर व अच्छे उप मुख्यमंत्री साबित हुए तो अगले चुनाव में वे मुख्य मंत्री कादावा भी पेश कर सकते हैं। इन्हीं उम्मीदों के साथ वे कांग्रेस में भी आए और पहली बार अमृतसर पूर्वी सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ा और भारी मतों से विजयी भी हुए। परन्तु कैप्टन अमरेंद्र सिंह न तो उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाने पर राज़ी हुए न ही पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद पर उनकी दावेदारी का समर्थंन किया। हाँ,कैप्टन ने सिद्धू को मंत्रिमंडल में शामिल तो किया परन्तु इच्छानुसार विभाग न मिलने के चलते उन्होंने कुछ ही समय बाद मंत्री पद से भी इस्तीफ़ा दे दिया।
                                  आख़िरकार लंबे राजनैतिक घमासान के बाद सिद्धू कांग्रेस आलाकमान को और कांग्रेस आलाकमान कैप्टन अमरेंद्र सिंह को इस बात के लिये राज़ी करने में सफल रहे कि सिद्धू को पंजाब प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया जाये। परन्तु सिद्धू के अध्यक्ष पद की ताजपोशी के दिन ही सिद्धू के बेलाग लपेट व बड़बोलेपन के अंदाज़ के भाषण से ही यह स्पष्ट हो गया था कि कैप्टन की गंभीरता व उनका जोशीलापन लंबे समय तक साथ नहीं चलने वाला। सिद्धू का पहला अध्यक्षीय भाषण ही उनके अपने पारिवारिक परिचय तथा सत्ता को चुनौतियां पर आधारित था। ‘गल ख़तम ‘ शब्द पर ख़त्म उनके भाषण से ही साफ़ हो गया था कि उनके  बड़बोलेपन का अंदाज़ ख़त्म नहीं होने वाला। उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से पंजाब के मंत्रियों को कांग्रेस कार्यालय में तीन घण्टे रोज़ हाज़री देने का ‘फ़रमान ‘ जारी कर सामानांतर सत्ता चलने का सन्देश भी दिया। राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं रखना ग़लत नहीं परन्तु इसके लिये गंभीरता सबसे ज़रूरी है क्योंकि यह खेल का मैदान या टीवी शो की स्टेज नहीं बल्कि सियासत का मैदान है । यह बात सिद्धू को अपने मित्र पाक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से सीखनी चाहिये। अन्यथा कीर्ति आज़ाद,अज़हरुद्दीन,चेतन चौहान,गौतम गंभीर जैसे और भी कई स्टार क्रिकेटर राजनीति में आये और अपनी अपनी पारी खेल गये परन्तु किसी ने अपनी पार्टी के समक्ष इस तरह का संकट कभी नहीं खड़ा किया। दल बदल के चलते वे पहले ही विवादित हो चुके हैं। उधर कांग्रेस में अब उनकी अगंभीरता व बड़बोलापन उनका दुश्मन बन चुका है। पार्टी में ‘ईंट से ईंट बजा देने’ जैसा मुहावरा इस्तेमाल करना उनके बड़बोलेपन की सबसे बड़ी मिसाल है। ऐसे में यह देखना होगा कि नवज्योत सिद्धू कांग्रेस के लिए लिये वरदान साबित होते हैं या अभिशाप।

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