नक्सल समस्याः जड़ में हल तलाश कीजिए

शम्स तमन्ना

रामेश्‍वरी(बदला हुआ नाम) 56 वर्ष, अब अपने घर वापस नहीं चाहती है। हालांकि उसका अपना घर और खेत सब मौजूद है। लेकिन जिस गांव को उसने नक्सलियों के डर से बारह साल पहले छोड़ दिया वहां दुबारा जिंदगी शुरू करना मंजूर नहीं है। नक्सलियों द्वारा अपने पति की हत्या का मंजर वह आज भी नहीं भूली है। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिला स्थित आमागांव पंचायत के सेरसांगी गांव की रहने वाली रामेष्वरी का पति लल्ली राम (बदला हुआ नाम) गांव का एकमात्र पढ़ा लिखा इंसान था। जिसका पुलिस का मुखबिर होने के शक में माओवादियों ने कत्ल कर दिया था। पति के अंतिम संस्कार के दिन ही वह अपने दो छोटे बच्चों के साथ गांव छोड़कर अंतागढ़ में सरकार के बनाए कैंप में चली गई।

ऐसे कैंपों को मुखबिरों की बस्ती के नाम से पुकारा जाता है। देश में धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर मोहल्लों, पारा और बस्तियों का बसना आम बात है, लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसे कई सरकारी कैंप हैं जिन्हें मुखबिरों की बस्ती के नाम से जाना जाता है। इस कैंप में वह लोग रहते हैं जो नक्सलियों की नजर में पुलिस के खबरी हैं। इस कैंप में कोई बारह साल पहले आया है तो किसी को आए दो माह हुए हैं। अपनों से दूर रहने की पीड़ा इनमें साफ झलकती है। इस बस्ती में रहने वाले राजकुमार दर्रो (बदला हुआ नाम) के अनुसार साप्ताहिक हाट में गांव के लोगों से मुलाकात होती है लेकिन सभी इनसे बात करने से कतराते हैं। उन्हें इस बात का डर होता है कि कहीं नक्सलियों को भनक लग गई तो उनका भी गांव में जीना मुशकिल हो जाएगा।

प्राकृतिक संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ को उसकी इस उपलब्धि से कम नक्सल प्रभावित क्षेत्र से अधिक जाना जाता है। राज्य का बस्तर डिवीजन और उड़ीसा के इससे सटे कुछ क्षेत्रों तक सरकार से ज्यादा नक्सलियों की हुकुमत चलती है। पषुपति (नेपाल) से तिरूपति (आंध्रप्रदेश) तक बने रेड कॉरिडोर का यह क्षेत्र केंद्र बिंदु बन चुका है। सरकार के समानांतर यहां माओवादियों की जनताना सरकार चलती है। जहां देश की सर्वोच्च अदालत नहीं जन अदालत प्रभावी है। यह माओवादी नेता कोटेश्वसर राव उर्फ किशनजी के उस दावे की मजबूती की तरफ भी इशारा करता है जिसमें किशनजी ने अगले 50-60 वर्षों में देश में तख्ता पलट करने की चेतावनी दी थी। हालांकि तात्कालीन गृह सचिव जीके पिल्लई ने किशनजी के बयान को यह कहकर हल्के में लिया था कि माओवादी सपना देखते रहें। आखिर लोकतंत्र में सभी को सपने देखने का हक है। जाहिर है सरकार ने उनकी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन पिछले कुछ वर्शों में बड़ी तादाद में सुरक्षा बलों पर हमले, इटली के पर्यटक का अपहरण, विधायक झीना हिकाका और फिर कलक्टर अलेक्स पॉल मेनन का दुस्साहसपूर्ण अपहरण इस बात की तरफ इशारा है कि माओवादी अपने सपने को हकीकत में बदलने की क्षमता भी रखते हैं। कलक्टर मेनन के अपहरण का शोर अभी पूरी तरह से थमा भी नहीं था कि माओवादियों ने दंतेवाड़ा में चालक समेत सीआरपीएफ के छह जवानों का कत्ल और कांकेर जिला के बांदे थाना से महज सौ मीटर की दूरी पर साप्ताहिक बाजार में दिनदहाड़े एक सहायक पुलिस उप निरीक्षक की हत्या कर अपने मंसूबे को पूरा करने की खुलेआम चुनौती दे डाली है। केवल सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच वर्षों के दौरान नक्सली हिंसा में 3,000 हजार से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। जिसमें आम नागरिकों के अलावा सुरक्षा बलों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। नक्सली हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं इससे प्रभावित चार राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और बिहार में हुई है। इस दौरान माओवादियों ने छोटी बड़ी करीब 6,500 से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया है। प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी नक्सलियों के पांव पसारने की खुफिया रिपोर्ट के बाद सरकार को इससे निपटने के लिए नई रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है।

नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार द्वारा चलाया गया ऑपरेशन ग्रीन हंट से समस्या सुलझने की बजाए और पेचिदा ही हुआ है। इस ऑपरेशन में नक्सलियों को जितना नुकसान नहीं पहुंचा उससे अधिक उनके जवाबी हमले में सरकार ने अपने सिपाही खोए हैं। पाठकों को याद होगा दंतेवाड़ा की वह घटना जिसमें अबतक के सबसे बड़े नक्सली हमले में 73 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। बस्तर से लगा दंतेवाड़ा नक्सलियों के लिए सबसे अधिक सुरक्षित क्षेत्र है। जो घने जंगलों के साथ साथ पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। नक्सली इस जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं जबकि सरकार ने उनसे लोहा लेने वाले वैसे सुरक्षाकर्मियों को मोर्चे पर लगा रखा है जिन्हें क्षेत्र की विशेष जानकारी नहीं होती है। ऐसे में वह माओवादियों द्वारा किए गए अचानक हमलों या गुरिल्ला हमलों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं। दूसरी ओर नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों के मांइस प्रोटेक्टिव व्हीकल (एमपीवी) पर हमला कर उसे क्षतिग्रस्त करने के बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या माओवादियों को आंतकवादियों का समर्थन मिलने लगा है? भारी बख्तर और बुलेटप्रुफ शीशे से लैस एमपीवी सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाला एक ऐसा वाहन है जो मध्यम स्तर तक के बारूदी सुरंगों और आईईडी विस्फोटकों से होने वाले धमाकों को झेलने के लिए बनाया गया है। इस वाहन को रोकने के लिए एंटी टैंक माइन इस्तेमाल की जाती है जो मिलिट्री ग्रेड की होती है। इसका प्रयोग अंतरराष्ट्रीय स्तर के कुछ बड़े आंतकी संगठन ही करते हैं। ऐसे में नक्सलियों द्वारा इसका इस्तेमाल गंभीर खतरे की ओर इशारा करता है। दूसरी ओर सलवा जुड़ुम, एसपीओ और कोया कमांडो के माध्यम से नक्सलियों से निपटने की सरकार की मंशा ने न सिर्फ स्थानीय ग्रामीणों को नक्सलियों का दुश्मंन बना दिया बल्कि स्वंय सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया।

नक्सलवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी हुए हैं। सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच गोलियों ने इन्हीं आदिवासियों को अपना शिकार बनाया है। कहने में संकोच नहीं कि इसके पीछे गलत सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी आदिवासियों की दशा सबसे बुरी है। विकास के नाम पर जल-जगंल-जमीन से बेदखल कर देने की पॉलिसी ने ही नक्सलवाद को मजबूत किया है। यदि आप गौर करेगें तो देखेंगे कि नक्सलवाद उन्हीं जगहों पर सबसे ज्यादा मजबूत है जहां प्राकृतिक संपदा है जो सदियों से आदिवासियों के सरंक्षण में रही है। लेकिन उनके पास इसका कोई पुख्ता सबूत नहीं है कि जमीन उनकी है। विकास के नाम पर सरकार ने इन क्षेत्रों को कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया है। जिन आदिवासियों ने जमीन के बदले मिलने वाले मामूली मुआवजे को लेने से इंकार किया उन्हें नक्सली समर्थक बताकर न सिर्फ जेलों में बंद कर दिया गया बल्कि उनके घर की इज्जत को भी तार-तार किया गया। इस पूरे परिदृष्य पर गौर किया जाए तो साफ है कि आदिवासी दो बंदूक के बीच फंसकर रह गए हैं। माओवादी उन्हें पुलिस का मुखबिर होने का शक करती है तो दूसरी ओर पुलिस को उनपर माओवादियों के समर्थक होने का अंदेशा रहता है। यही कारण है कि कई नौजवान बिना किसी ठोस सबूत के वर्शों से जेल की सलाखों के पीछे जिंदगी गुजार रहे हैं। इस क्षेत्र को करीब से जानने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अजय बताते हैं कि अकेले कांकेर जैसी छोटी जेलों में तीन सौ आदिवासी युवा बंद हैं। राज्य के ऐसे कई जेल इसी का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार राज्य के विभिन्न जेलों में हजारों युवा आदिवासी केवल इस आरोप में ठूंस दिए गए हैं कि उन्होंने कभी हथियारबंद दस्ता के किसी सदस्य को एक वक्त का खाना खिलाया था। माओवादियों का साथ देने के आरोपों का सामना कर रहे स्थानीय नौजवानों के सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वह वास्तव में बंदूक उठाकर उनका साथ दें अथवा गांव छोड़कर चले जाएं।

ऐसे ही नाजुक मौकों का माओवादियों ने बखूबी फायदा उठाया। पहले से ही उपेक्षा का शिकार आदिवासियों ने अपनी जमीन छिनते देख हथियार उठा लिया और नक्सल बनते चले गए। यहां उन्हें जन अदालत में भले ही जमीन वापस न मिली हो लेकिन इंसाफ जरूर मिला जो शायद भारतीय अदालत में मिलना मुश्किल था क्योंकि इसके लिए पहले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करानी होती है जो पहले से ही उनपर सरकारी भाषा और लाठी का प्रयोग करती रही है। सामाजिक कार्यकर्ता केशव नक्सलवाद की मजबूती को सरकार द्वारा आदिवासी समाज की उपेक्षा को प्रमुख कारणों में एक मानते हैं। उनका मानना है कि आदिवासी समाज उन सुविधाओं से भी वंचित है जो एक अति पिछड़े गांव में भी होती है। जल, जंगल और जमीन ही इनकी जीविका का मुख्य स्त्रोत है। जिसका उचित मुआवजा दिए छिनने का विरोध करने पर इनपर ज्यादतियां की जाती हैं। यदि आजादी के बाद केवल एक प्रतिशत ही इन क्षेत्रों पर ईमानदारी से खर्च किया जाता तो 65 सालों में इन क्षेत्रों में 65 प्रतिशत विकास हो गया होता। अफसोस की बात तो यह है कि इनसे निपटने के लिए सरकार सुरक्षाकर्मियों पर पांच प्रतिशत बजट खर्च करने को तैयार है लेकिन इनके विकास के लिए एक प्रतिशत भी खर्च नहीं कर रही है।

हालांकि समय बदलने के साथ साथ केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी नीतियों में बहुत हद तक बदलाव करना षुरू कर दिया हैं विकास की कई परियोनाओं को जमीन पर उतारने की कोशिश की जा रही है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय जहां इस दिशा में ठोस पहल कर रहा है वहीं नक्सल प्रभावित राज्य विशेषकर छत्तीसगढ़ और बिहार सरकार भी प्रभावित क्षेत्रों के कल्याण के लिए कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को अमल में लाने की कोशिश कर रही है। ताकि युवा भटककर बंदूक उठाने की बजाए समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें। जो नक्सलियों की कमर तोड़ने में कारगर साबित हो सकता है। चूंकि नक्सल आदिवासी इलाकों में व्याप्त शोषण, गरीबी और बेरोजगारी को ही हथियार बनाकर अपने मंसूबों को पूरा करने की कोशिश करते हैं।

‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद का जन्म 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीनदार और किसानों के दरम्यान जमीन के झगड़े से हुआ। जिसमें पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई थी। नक्सलवादी संघर्ष का नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है। गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्‍वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है। सरकारी भवनों को उड़ाना, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्रों को नुकसान पहुंचाना इनका प्राथमिक लक्ष्य होता है। इसके पीछे इनका तर्क है कि स्कूलों में शिक्षा की बजाए सुरक्षा बलों को पनाह दी जाती है। माओवादी अपनी इन्हीं हरकतों के कारण धीरे धीरे आदिवासियों का विष्वास खोते जा रहे हैं। हर घर से एक बच्चे को जबरदस्ती नक्सली में भर्ती करने की पॉलिसी ने आग में घी का काम किया है। कई ग्रामीण अपने बच्चों के बेहतर भविश्य के लिए या तो गांवों से पलायन कर रहे हैं या फिर उन्हें दूसरे जिलों के हॉस्टल में भेज रहे हैं। अब युवा माओवादी विचारधारा से प्रभावित होकर बंदूक नहीं उठा रहे हैं। पुलिस और दंबगों के जुल्म से तंग आकर नक्सल में भर्ती होने वाली लड़कियों को यहां भी शोषण होने से अब उनका भी इस संगठन से मोहभंग हो रहा है। ऐेसे में नक्सल भले ही यह दावा करते हों कि सरकारी पॉलिसियों से अंसतुष्ट आदिवासी उनके साथ हैं, परंतु यह दावा शत-प्रतिशत सच नहीं है। अलबत्ता बंदूक का डर दिखाकर वह ग्रामीणों को समर्थन के लिए जरूर मजबूर कर देते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मुखबिरों की बस्तियां नहीं बसती। समय बीतने के साथ लोग अपने घरों को वापस जरूर लौटते।

बहरहाल सच्चाई जो भी हो लेकिन वास्तविकता यही है कि किसी भी प्रकार के सैन्य अभियान से माओवादियों का खात्मा संभव नहीं है। इसके लिए जरूरी है प्रभावित इलाकों का समग्र विकास। जिसमें स्थानीय आदिवासियों को तरजीह दी जाए। जहां युवाओं की आवाज को दबाने और कुचलने की बजाए उन्हें अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान किया जाए। यदि पुलिस और प्रशासन किसी इशारे पर काम करने की बजाए ईमानदारी से ही अपनी डयूटी निभा ले तो सरकार को नक्सलियों के सफाए के लिए सलवा-जूड़ुम जैसी घिनौनी योजना की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि यदि हम संजीदगी से विचार करें तो नक्सलवाद का हल मुमकिन है। बेहतर है कि समस्या के जड़ में ही समाधान तलाशा जाए। (चरखा फीचर्स)

(लेखक विगत कई वर्षों से प्रिंट एवं इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। बिहार तथा दिल्ली के कई प्रमुख समाचारपत्रों में कार्य करने के अलावा तीन वर्षों तक न्यूज एजेंसी एएनआई में भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। खेल तथा विभिन्न सामाजिक विषयों पर इनके आलेख प्रभावी रहे हैं। वर्तमान में मीडिया के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं पर कार्य करने वाली गैर सरकारी संस्था चरखा में ऐसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत हैं) 

1 COMMENT

  1. शम्स साहब आपकी लेख निश्चेय ही वर्तमान परिदृश्य के एक कडवी सच को उजागर करता है.
    वास्तव में आपने जो सलाह सरकार को दी है अगर उसपर गंभीरता से अमल में लाया जाए तो इस नक्सली समस्या का समाधान हो सकता है.
    आपके इस लेख के लिए साधुवाद.

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