नक्सलवाद का कडवा सच!

हमारे देश में नक्सलवाद को राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री देश की सबसे बडी या आतंकवाद के समकक्ष समस्या बतला चुके हैं। अनेक लेखक भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिख रहे हैं। राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का बयान लिखने वालों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति जाकर देखना तो दूर, उन क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों तक का दौरा नहीं किया है। अपने आप को विद्वान कहने वाले और बडे-बडे समाचार-पत्रों में बिकने वाले अनेक लेखक भी नक्सलवाद पर लिखते हुए नक्सलवाद को इस देश का खतरनाक कोढ बतला रहे हैं।

कोई भी इस समस्या की असली तस्वीर पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। या यह कहा जाये कि असल समस्या के बारे में उनको ज्ञान ही नहीं है। अनेक तो नक्सलवाद पर की असली तस्वीर पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की नीति से लिखे जाने वाले आलेख और राजनेताओं के भाषण इस समस्या को उलझाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। राजनेता एवं नौकरशाहों की तो मजबूरी है, लेकिन स्वतन्त्र लेखकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे असल को छोडकर सत्ता के गलियारे से निकलने वाली ध्वनि की नकल करते दिखाई दें। जिन लेखकों की रोजी रोटी बडे समाचार पत्रों में झूठ को सज बनाकर लेखन करने से चलती है, उनकी विवशता तो समझ में आती हैं, लेकिन सिर्फ अपने अन्दर की आवाज को सुनकर लिखने वालों को कलम उठाने से पहले अपने आपसे पूछना चाहिये कि मैं नक्सलवाद के बारे में अपने निजी अनुभव के आधार पर कितना जानता हँू? यदि आपकी अन्तर्रात्मा से उत्तर आता है कि कुछ नहीं, तो मेहरबानी करके इस देश और समाज को गुमराह करने की कुचेष्टा नहीं करें।

नक्सवाद पर कुछ लिखने से पहले मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मैं किसी भी सूरत में हिंसा का पक्षधर नहीं हूँ और नक्लल प्रभावित निर्दोष लोगों के प्रति मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति है। इसलिये इस आलेख के माध्यम से मैं हर उस व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता हूँ, जिन्हें इंसाफ की व्यवस्था को बनाये रखने में आस्था और विश्वास हो। जिन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त इस मूल अधिकार (अनुच्छे-14) में विश्वास हो, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। जिनको संवैधानिक व्यवस्था मैं आस्था और विश्वास हो, लेकिन याद रहे, केवल कागजी या दिखावटी नहीं, बल्कि जिन्हें समाज की सच्ची तस्वीर और समस्याओं के व्यावहारिक पहलुओं का भी ज्ञान हो वे ही इन बातों को समझ सकते हैं। अन्यथा इस लेख को समझना आसान या सरल नहीं होगा?

यदि उक्त पंक्तियों को लिखने में मैंने धृष्टता नहीं की है तो कृपया सबसे पहले बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात को समझने का प्रयास करें कि एक ओर तो कहा जाता है कि हमारे देश में लोकतन्त्र है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के नाम पर 1947 से लगातार यहाँ के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष चुनावों का नाटक खेला जा रहा है। यदि देश में वास्तव में ही लोकतन्त्र है तो सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी वर्गों का समान रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? सभी वर्गों के लोगों की हर क्षेत्र में समान रूप से हिस्सेदारी भी होनी चाहिये। अन्यथा तो लोकतन्त्र होने के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं!

कुछ कथित प्रबुद्ध लोग कहते हैं, कि इस देश में तो लोकतन्त्र नहीं, केवल भीड तन्त्र है। इस विचारधारा के लोगों से मेरा सवाल है कि यदि लोकतन्त्र नहीं, भीडतन्त्र है तो केवल दो प्रतिशत लोगों के हाथ में इस देश की सत्ता और संसाधन क्यों हैं? भीडतन्त्र का प्रभाव दिखाई क्यों नहीं देता? भीडतन्त्र के पास तो सत्ता की चाबी होती है, फिर भी भीडतन्त्र इन दो प्रतिशत लोगों को सत्ता एवं संसाधनों से बेदखल क्यों नहीं कर पा रहा है? इन सवालों के उत्तर तलाशने पर पता चलेगा कि न तो इस देश में सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है और न हीं इस देश की ताकत भीडतन्त्र के पास है!

उपरोक्त परिप्रेक्ष में नक्सलवाद को समझने के लिये हमें आदिवासियों के बारे में भी कुछ मौलिक बातों को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि अधिसंख्य लोगों द्वारा यह झूठ फैलाया जा रहा है कि केवल आदिवासी ही नक्सलवाद का संवाहक है! वर्तमान में आदिवासी की दशा, इस देश में सबसे बुरी है। इस बात को स्वयं भारत सरकार के आँकडे ही प्रमाणित करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक आदिवासी का केवल शोषण ही शोषण किया जाता रहा है। मैं एक ऐसा कडवा सच उद्‌घाटित करने जा रहा हँू, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं! वो यह कि आजादी के बाद से दलित नेतृत्व ने भी आदिवासी वर्ग का जमकर शोषण, अपमान एवं तिरस्कार किया है। आदिवासियों के साथ दलित नेतृत्व ने हर मार्चे पर कुटिल विभेद किया है। इसकी भी वजह है। आदिवासियों के शोषण का हथियार स्वयं सरकार ने दलित नेतृत्व के हाथ में थमा दिया है।

इस देश के संविधान में अनुसूचित जाति (दलित) एवं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) नाम के दो आरक्षित वर्ग प्रारम्भ से ही बनाये गये हैं। जिन्हें संक्षेप में एससी एवं एसटी कहा जाता है। यही संक्षेपीकरण सम्पूर्ण आदिवासियों का और इस देश के इंसाफ पसन्द लोगों का दुर्भाग्य है। इन एससी एवं एसटी दो संक्षेप्ताक्षरों को आजादी के बाद से आज तक इस देश के सभी राजनेताओं और नौकरशाहों ने पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया है। इन दोनों वर्गों के उत्थान के लिये बनायी गयी नीतियों में कहीं भी इन दोनों वर्गों के लिये अलग-अलग नीति बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया।

सरकार की कुनीतियों के चलते, एससी एवं एसटी वर्गों के कथित हितों के लिये काम करने वाले सभी संवैधानिक, सरकारी, संसदीय, गैर-सरकारी एवं समाजिक प्रकोष्ठों पर देशभर में केवल एससी के लोगों ने ऐसा कब्जा जमाया कि आदिवासियों के हित दलित नेतृत्व के यहाँ गिरवी हो गये। दलित नेतृत्व ने एससी एवं एसटी के हितों की रक्षा एवं संरक्षण के नाम पर केवल एससी के हितों का ध्यान रखा। केन्द्र या राज्यों की सरकारों द्वारा तो यह तक नहीं पूछा जाता कि एससी एवं एसटी वर्गों के अलग-अलग कितने लोगों या जातियों या समाजों का उत्थान किया गया? ०९ प्रतिशत मामलों में इन दोनों वर्गों की प्रगति रिपोर्ट भेजने वाले और उनका सत्यापन करने वाले दलित होते हैं। जिन्हें आमतौर पर इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आदिवासियों के हितों का संरक्षण हो रहा है या नहीं और आदिवासियों के लिये स्वीकृत बजट दलितों के हितों पर क्यों खर्चा जा रहा है या क्यों लैप्स हो रहा है?

आदिवासियों के उत्थान की कथित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जाती रही है, जो आदिवासियों की पृष्ठभूमि को एवं आदिवासियों की समस्याओं के बारे में तो कुछ नहीं जानते, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना कुछ किये आदिवासियों के लिये आवण्टित फण्ड को हजम कैसे किया जाता है! ऐसे ब्यूरोके्रट्‌स को दलित नेतृत्व का पूर्ण समर्थन मिलता रहा है। स्वाभाविक है कि उन्हें भी इसमें से हिस्सेदारी मिलती होगी? यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि दलित नेतृत्व में सभी लोग आदिवासियों के विरोधी या दुश्मन नहीं हैं, बल्कि आम दलित तो आज भी आदिवासी के प्रति बेहद संवेदनशील है।

यही नहीं यह जानना भी जरूरी है कि एक जाति विशेष के कुछेक चालाक लोगों ने एससी एवं एसटी वर्गों की कथित एकता के नाम पर हर जगह कभी न समाप्त किया जा सकने वाला कब्जा जमा रखा है। ये लोग एससी की अन्य कमजोर (संख्याबल में) जातियों के भी शोषक हैं। आदिवासी भी प्रशासन में संख्यात्मक दृष्टि से दलितों की तुलना मे आधे से भी कम है। जिस देश में हर जाति एक राष्ट्रीय पहचान रखती हो, उस देश में एक वर्ग में बेमेल जातियों को शामिल कर देना और संवैधानिक रूप से दो भिन्न वर्गों (एससी एवं एसटी) को एक ही डण्डे से हाँकना, किस बेवकूफ की नीति है? यह तो सरकार ही बतला सकती है, लेकिन यह सही है कि आदिवासी की पृष्ठभूमि एवं जरूरत को आज तक न तो समझा गया है और न हीं इस दिशा में सार्थक पहल की जा रही है।

दूसरी ओर इस देश के केवल दो प्रतिशत लोग लच्छेदार अंग्रेजी में दिये जाने वाले तर्कों के जरिये इस देश को लूट रहे हैं और 98 प्रतिशत लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। मुझे तो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इन दो प्रतिशत लोगों में हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वालों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कई गुनी है, लेकिन उनमें से किसी बिरले को ही कभी फांसी की सजा सुनाई गयी होगी? इसके पीछे भी कोई न कोई कुटिल समझ तो काम कर ही रही है। अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव है कि अन्य 98 प्रतिशत लोगों को छोटे और कम घिनौने मामलों में भी फांसी का हार पहना कर देश के कानून की रक्षा करने का फर्ज बखूबी निभाया जाता रहा है। यदि किसी को विश्वास नहीं हो तो सूचना अधिकार कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से आंकडे प्राप्त करके स्वयं जाना जा सकता है कि किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों ने एक साथ एक से अधिक लोगों की हत्या की और उनमें से किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों को फांसी की सजा दी गयी और किनको चार-पाँच लोगों की बेरहमी से हत्या के बाद भी केवल उम्रकैद की सजा सुनाई गयी? आदिवासियों को सुनाई गयी सजाओं के आंकडों की संख्या देखकर तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सदमाग्रस्त हो सकता है!

यही नहीं आप आँकडे निकाल कर पता कर लें कि किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार अधिक होते हैं? किस जाति के लोग बलात्कार अधिक करते हैं और किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर सजा दी जाती है एवं किस जाति की महिला के साथ बलात्कार होने पर मामला पुलिस के स्तर पर ही रफा-दफा कर दिया जाता है या अदालत में जाकर कोई सांकेतिक सजा के बाद समाप्त हो जाता है?

आप यह भी पता कर सकते हैं कि इस देश के दो प्रतिशत महामानवों के मामलों में प्रत्येक स्तर पर कितनी जल्दी न्याय मिलता है, जबकि शेष 98 प्रतिशत के मामलों में केवल तारीख और तारीख बस! मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग आदि के द्वारा सुलटाये गये मामले उठा कर देखें, इनमें कितने लोगों को न्याय या मदद मिलती है? यहाँ पर भी जाति विशेष एवं महामानव होने की पहचान काम करती है। पेट्रोल पम्प एवं गैस ऐजेंसी किनको मिल रही हैं? अफसरों में जिनकी गोपनीय रिपोर्ट गलत या नकारात्मक लिखी जाती है, उनमें किस वर्ग के लोग अधिक हैं तथा नकारात्मक गोपनीय रिपोर्ट लिखने वाले कौन हैं? संघ लोक सेवा आयोग द्वारा कौनसी दैवीय प्रतिभा के चलते केवल दो प्रतिशत लोगों को पचास प्रतिशत से अधिक पदों पर चयनित किया जाता रहा है? जानबूझकर और दुराशयपूर्वक मनमानी एवं भेदभाव करने की यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है!

ऐसी असंवेदनशील, असंवैधानिक, विभेदकारी और मनमानी प्रशासनिक व्यवस्था एवं शोषक व्यवस्था में आश्चर्य इस बात का नहीं होना चाहिये कि नक्सनवाद क्यों पनप रहा है, बल्कि आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि इतना अधिक क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार होने पर भी केवल नक्लवाद ही पनप रहा है? लोग अभी भी आसानी से जिन्दा हैं? अभी भी लोग शान्ति की बात करने का साहस जुटा सकते हैं? लोगों को इतना होने पर भी लोकतन्त्र में विश्वास है?

एक झूट की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है, वह यह कि नक्लवादियों के बारे में यह कु-प्रचारित किया जाता रहा है कि नक्सली केवल आदिवासी हैं! जबकि सच्चाई यह है कि हर वर्ग का, हर वह व्यक्ति जिसका शोषण हो रहा है, जिसकी आँखों के सामने उसकी माँ, बहन, बेटी और बहू की इज्जत लूटी जा रही है, नक्सलवादी बन रहा है! कल्पना करके देखें माता-पिता की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की उम्र की लडकी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! स्थानीय जन-प्रतिनिधि आहत परिवार को संरक्षण देने के बजाय बलात्कारियों को पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होती है। ऐसे हालात में ऐसे परिवार के माता-पिता या बलात्कारित बहनों के भाईयों को क्या करना चाहिये? इस सवाल का उत्तर इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्वास रखने वाले पाठकों से अपेक्षित है।

दूसरी तस्वीर, अपराध कोई ओर (बलशाली) करता है और पुलिस द्वारा दोषी से धन लेकर या अन्य किसी दुराशय से किसी निर्दोष को फंसा दिया जाता है। बेकसूर होते हुए भी वह कई वर्षों तक जेल में सडता रहता है। इस दौरान जेल गये व्यक्ति का परिवार खेती, पशु आदि सब बर्बाद हो जाते हैं। उसकी पत्नी और, या युवा बहन या बेटी को अगवा कर लिया जाता है। या उन्हें रखैल बनाकर रख लिया जाता है। अनेक बार तो 15 से 20 वर्ष के युवाओं को ऐसे मामलों में फंसा दिया जाता है और उनकी सारी जवानी जेल में ही समाप्त हो जाती है। जब कोई सबूत नहीं मिलता है तो वर्षों बाद अदालत इन्हें रिहा कर देती है, लेकिन ऐसे लोगों का न तो कोई मान सम्मान होता है और न हीं इनके जीवन का कोई मूल्य होता है। इसलिये अकारण वर्षों जेल में रहने के उपरान्त भी इनको किसी भी प्रकार का मुआवजा मिलना तो दूर, ये लोग जानते ही नहीं कि मुआवजा है किस चिडिया का नाम!

हम सभी जानते हैं कि सरकार को गलत ठहराकर, सरकार से मुआवजा प्राप्त करना लगभग असम्भव होता है। इसीलिये सरकार से मुआवजा प्राप्त करने के लिये अदालत की शरण लेनी पडती है, जिसके लिये वकील नियुक्त करने के लिये जरूरी दौलत इनके पास होती नहीं और इस देश की कानून एवं न्याय व्यवस्था बिना किसी वकील के ऐसे निर्दोष को, निर्दोष करार देकर भी सुनना जरूरी नहीं समझती है। इसके विपरीत अनेक ऐसे मामले भी इस देश में हुए हैं, जिनमें अदालत स्वयं संज्ञान लेकर मुआवजा प्रदान करने के आदेश प्रदान करती रही हैं, लेकिन किसी अपवाद को छोडकर ऐसे आदेश केवल उक्त उल्लिखित दो प्रतिशत लोगों के पक्ष में ही जारी किये जाते हैं।

मुझे याद आता है कि एक जनहित के मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपने राज्य के उच्च न्यायालय को अनेक पत्र लिखे, लेकिन उन पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया, जबकि कुछ ही दिन बाद उन पत्रों में लिखा मामला एक दैनिक में प्रकाशित हुआ और उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उसे जनहित याचिका मानकर हाई कोर्ट के तीन वकीलों का पैनल उसकी पैरवी करने के लिये नियुक्त कर दिया। अगले दिन दैनिक में हाई कोर्ट के बारे में बडे-बडे अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुआ और हाई कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के पक्ष में अखबार द्वारा सदीके पढे गये। इन हालातों में अन्याय, भेदभाव और क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार के चलते पनपने वाले नहीं, बल्कि जानबूझकर पनपाये जाने वाले नक्सलवाद को, जो लोग इस देश की सबसे बडी समस्या बतला रहे हैं, असल में वे स्वयं ही इस देश की सबसे बडी समस्या हैं!

जैसा कि वर्तमान में सरकार द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्लवादियों को मारकर इस समस्या से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मार देने से बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उनका ईमानदारी से उपचार करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वालों से यह आशा नहीं की जा सकती कि नक्सलवाद या किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है! कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व अफसरशाह के प्रधानमन्त्री रहते तो बिल्कुल भी आशा नहीं की जा सकती।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

4 COMMENTS

  1. आपकी पोस्ट लाज़वाब है,पर में पूर्णतः सहमत नही हु,दलित नेतृत्व ज़रूर कुव्ह हद तक सकारात्मक बदलाव नही कर सक आदिवासियों के मूल समस्याओं में,पर कहीं न कहीं इसके लिए आदिवासी नेतृत्व की कमी और उनका एकजुट न होना भी महत्वपूर्ण कारक है।
    ये पोस्ट लगभग 9 साल से भी पुराना है,और वर्तमान में आपकी लेखनी में कहीं न कहीं सम्पूर्ण आदिवासी समस्या के लिए कमी आयी है और आप एक तरह से मीणा समस्या तक सिमट गई हैं।

  2. श्री विकास शिरपुरकर जी, आपके द्वारा अवगत करवाये जाने के लिये धन्यवाद। इस ब्लॉग को आपके द्वारा अवगत करवाने पर मैंने देखा है। यह मेरा ब्लॉग नहीं है। न हीं इस ब्लॉग से मेरा कोई वास्ता है। हाँ इस पर मेरे ही आलेख को प्रदर्शित किया गया है। इससे पूर्व भी अनेक लोग मेरे अनेक आलेखों को इसी प्रकार से प्रदर्शित करते रहे हैं। उनमें से अनेक तो साभार या सौजन्य से लिख देते हैं।
    मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि तकनीकी रूप से निश्चय ही यह बौद्धिक सम्पदा की चोरी मानी जाती है, लेकिन यदि हम गहराई में जाकर देखें तो पायेंगे कि अन्तत: किसी भी आलेख को लिखने के पीछे लेखक का उद्देश्य किसी विचार या तथ्य या विश्लेषण को मानव समाज तक पहुँचाना होता है। यदि कोई ओर भी उसी विचार को आगे बढा रहा है तो समाज में विचार तो फैल ही रहा है। मेरे नाम से न सही किसी अन्य के नाम से ही सही।
    वैसे आपको अवगत करवा दूँ कि मेरा यह आलेख अनेक हिन्दी पोर्टल्स, ब्लॉग और समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हो चुका है। फिर भी आपने अवगत करवाकर निश्चय ही एक सजग और जागरूक नागरिक का परिचय दिया है। आपकी भावनाओं को ध्यान में रखकर मैंने उक्त ब्लॉग लेखक को निम्न सन्देश भेज दिया है।
    आप अपने आपको क्राईम रिपोर्टर लिखते हैं और दूसरे लेखकों के आलेख अपने ब्लॉग पर प्रदर्शित करते समय लेखक का नाम ही गायब कर देते हैं। कहीं ऐसा न हो कि क्राईम रिपोर्टर बनते-बनते आप स्वयं ही क्रिमिनल बन जायें। फिर भी मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। अभी बच्चे हो सो इतना ही कहूँगा कि गलती करना उतना बुरा नहीं है, जितना कि गलतियों को दोहराते जाना और पता लग जाने पर भी गलतियों को ठीक नहीं करना।
    मैं हूँ नक्सलवाद का क‹डवा सच आलेख का लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा।

  3. आ.डॉ.मीणा,

    सादर प्रणाम
    आपका आलेख पढा पूर्णतः तथ्‍य और तर्कों के आधारपर उतरने वाला आपका लेखन अच्‍छा लगा. लेकीन एक जागृत पाठक की हैसियत से मै आपको एक बात से अवगत कराना चाहता हूं, की आपका यह आलेख https://rohitbanchhor.blogspot.com/2010/03/blog-post_881.html
    इस ब्‍लॉग पर भी मेरे पढने मे आया है. यह आपका ब्‍लॉग है या नही ये मे नही जानता ले‍कीन बौद्धीक संपदा की चोरी मै सह नही पाया इसलिये आपको अवगत करा रहा हूं.

    धन्‍यवाद

  4. मीणा जी, आपके तर्क काफ़ी मजबूत हैं, लेकिन इस वजह से मोबाइल टावरों को उड़ाना, बिजली सप्लाई बाधित करना तथा आम नागरिकों को हिंसा का निशाना बनाना भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। यदि नक्सलवादियों की दुश्मनी सरकार नामक संस्था से है तो वे लोग राजनैतिक धारा में आने का प्रयास क्यों नहीं करते? सरकार से शिकायत है तो आम आदमी की मुश्किलें क्यों बढ़ाते हैं? पुलिस वालों (जो कि ऊपर से आये हुए आदेश के गुलाम हैं) को मारने की बजाय नेताओं और भ्रष्ट अफ़सरों को अपना निशाना क्यों नहीं बनाते? निश्चित रूप से आंदोलन में क्रियान्वयन और नीति सम्बन्धी गड़बड़ है इसीलिये नक्सल आंदोलन को आम जनता की सहानुभूति नहीं है…

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