नक्‍सलवाद मतलब आतंकवाद

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chattisgarh_tribals_killed_TPE_20070115देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब 15 सितंबर, 2009 को दिल्ली में पुलिस अधिकारियों के सम्मेलन में नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा बताया तो वे कुछ नयी बात नहीं कह रहे थे। इसके पहले भी देश के गृहमंत्री और कई नक्सल प्रभवित राज्यों के मुख्यमंत्री यह बात कहते आए हैं। बावजूद इसके हमारी सरकारें न जाने क्यों नक्सलवाद के खिलाफ एक समन्वित और परिणाम केंद्रित अभियान छेड़ने में असफल साबित हो रही हैं। नक्सली देश में हिंसक अभियान चला रहे हैं निरीह जनता को अपना निशाना बना रहे हैं पर देश का गरीब, आदिवासी तबका अपने नेताओं की राजनीतिक इच्छाशक्ति के इंतजार में खड़ा है।

सरकारी तंत्र की विफलता इन नक्सल प्रभावित इलाकों में साफ दिखती है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसे को हजम करने की कोशिशों से ज्यादा प्रयास कभी नहीं दिखे। सच कहें तो छत्तीसगढ़ में सलवा जूडूम के माध्यम से पहली बार नक्सलियों को वैचारिक और मैदानी दोनों मोर्चों पर शिकस्त देने के प्रयास शुरू हुए। यह अकारण नहीं है कि सलवा जुड़ूम का आंदोलन तो पूरी दुनिया में कुछ बुद्धिजीवियों के चलते निंदा और आलोचना का केंद्र बन गया किंतु नक्सली हिंसा को नाजायज बताने का साहस ये बुद्धिवादी नहीं पाल पाए। जब युद्ध होते हैं, तो कुछ लोग अकारण ही उसके शिकार होते ही हैं। संभव है इस तरह की लड़ाई में कुछ निर्दोष लोग भी इसका शिकार हो रहे हों। लेकिन जब चुनाव अपने पुलिस तंत्र और नक्सल के तंत्र में करना हो, तो आपको पुलिस तंत्र को ही चुनना होगा। क्योंकि यही चुनाव विधि सम्मत है और लोकहित में भी। पुलिस के काम करने के अपने तरीके हैं और एक लोकतंत्र में होने के नाते उसके गलत कामों की आलोचना तथा उसके खिलाफ कार्रवाई करने के भी हजार हथियार भी हैं। क्योंकि पुलिस तंत्र अपनी तमाम लापरवाहियों के बावजूद एक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, जिस पर समाज, सरकार और अदालतों की नजर होती है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि पहली बार उन्होंने इस ‘छद्म जनवादी युद्ध को राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दी। वे देश के पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने इस समस्या को उसके राष्ट्रीय संदर्भ में पहचाना।

नक्सलवाद के खिलाफ आगे आए आदिवासी समुदाय के सलवा-जुड़ूम आंदोलन को कितना भी लांछित किया जाए, वह किसी भी कथित जनक्रांति से महान आंदोलन है। महानगरों में रहने वाले, वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुद्धिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं, लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की यातना और पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते। इस तरह का ढोंग रचकर वैचारिकता का स्वांग रचने वाले लोग यहां के दर्द को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे पीड़ा और दर्द के ही व्यापारी हैं। उन्हें बदहाल, बदहवास हिंदुस्तान ही रास आता है। हिंदुस्तान के विकृत चेहरे को दिखाकर उसकी मार्केटिंग उन्हें दुनिया के बाज़ार में करनी है, डालर के बल पर देश तोड़क अभियानों को मदद देनी है। उन्हें वैचारिक आधार देना है, क्योंकि उनकी मुक्ति इसी में है। दुनिया में आज तक कायम हुई सभी व्यवस्थाओं में लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था माना गया है। जिनकी इस लोकतंत्र में भी सांसें घुट रही हैं, उन्हें आखिर कौन सी व्यवस्था न्याय दिला सकती है। वे कौन सा राज लाना चाहते हैं, इसके उत्तर उन्हें भी नहीं मालूम हैं। निरीह लोगों के खिलाफ वे एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका अंत नजर नहीं आता। अब जबकि सरकारों को चाहे वे केंद्र की हों या राज्य की कम से कम नक्सलवाद के मुद्दे पर हानि-लाभ से परे उठकर कुछ कड़े फैसले लेने ही होंगे। नक्सल प्रभावित सभी राज्यों और केंद्र सरकार के समन्वित प्रयासों से ही यह समस्या समूल नष्ट हो सकती है। समाधान का रास्ता भी यही है। सही संकल्प के साथ, न्यूनतम राजनीति करते हुए ही इस समस्या का निदान ढूंढा जा सकता है।

अनेक राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं और दिन-प्रतिदिन नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करते जा रहे, न्यूनतम राजनीति करते हुए ही इस समस्या का निदान ढूंढा जा सकता है। नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं।

नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है। छोटे-छोटे इलाकों में बंदूकों के बल पर अपनी सत्ताएं कायम कर किसी भी आंदोलन की उपलब्धि नहीं कही जा सकती। क्योंकि तमाम अराजक तत्व और माफिया भी कुछ इलाकों में ऐसा करने में सर्मथ हो जाते हैं। सशस्त्र संघर्ष में भी जनसंगठनों का अपना योगदान होता है। ऐसे में बहुत संभव है कि नेपाल के माओवादियों की तरह अंततः नक्सल आंदोलन को मुख्यधारा की राजनीति में शिरकत करनी पड़ेगी। पूर्व के उदाहरणों में स्व. विनोद मिश्र के गुट ने एक राजनीतिक पार्टी के साथ पर्दापण किया था तो नक्सल आंदोलन के सूत्रधार रहे कनु सान्याल भी हिंसा को नाजायज ठहराते नजर आए। क्रांतिकारी वाम विकल्प की ये कोशिशें साबित करती हैं कि आंतक का रास्ता आखिरी रास्ता नहीं है। नक्सली संगठनों और स्वयंसेवी संगठनों के बीच के रिश्तों को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। महानगरों में नक्सली आंदोलन से जुड़े तमाम कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की गयी है। वे जनसंगठनों का निर्माण कर सक्रिय भी हो रहे हैं।

संसदीय राजनीति अपनी लाख बुराइयों के बावजूद सबसे बेहतर शासन व्यवस्था है। ऐसे में किसी भी समूह को हिंसा के आधार पर अपनी बात कहने की आजादी नहीं दी जा सकती। नक्सलवाद आज भारतीय राज्य के सामने एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में एक साझा रणनीति बनाकर सभी प्रभावित राज्यों और केंद्र सरकार इसके खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी। जिसमें यह साफ हो कि या तो नक्सल संगठन लोकतंत्र के माध्यम से अपनी बात कहने के लिए आगे आएं, हिंसा बंद करें और इसी संसदीय प्रणाली में अपना हस्तक्षेप करें। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र विरोधी आवाज को राज्य को शांत कर देना चाहिए। देश की शांतिप्रिय आदिवासी, गरीब और जीवनसंर्घषों से जूझ रही जनता के खून से होली खेल रहे इस आतंकी अभियान का सफाया होना ही चाहिए। यह कितना अफसोस है कि सलवा जुडूम के शिविरों में घुसकर उनके घरों में आग लगाकर उन्हें मार डालने वाले हिंसक नक्सलियों को भी इस देश में पैरवीकार मिल जाते हैं। वे निहत्थे आदिवासियों की, पुलिस कर्मियों की हत्या पर आंसू नहीं बहाते किंतु जेल में बंद अपने साथियों के मानवाधिकारों के चिंतित हैं। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र है तभी असहमति का अधिकार सुरक्षित है। आप राज्य के खिलाफ धरने-प्रदर्शन कर रहे हैं। अदालतें है, जहां आप मानवाधिकार की बात कर सकते हैं। क्या आपके कथित क्रांतिकारी राज्य में आपके विरोधी विचारों को इतनी आजादी रहेगी। ऐसे में सभी लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोंगों को यह सोचना होगा कि क्या नक्सली हमारे लोकतंत्र के लिए आज सबसे बड़ा खतरा नहीं हैं। सत्ता में बैठी सरकारों को भी सोचना होगा कि क्या हम अपने निरीह लोगों का खून यूं ही बहने देंगें। समस्या को इसके सही संदर्भ में समझते हुए भारतीय राज्य को ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे सूदूर वनवासी आदिवासी क्षेत्रों तक सरकार का तंत्र पहुंचे वहीं दूसरी ओर हिंसा के पैरोकारों को कड़ी चुनौती भी मिले। हिंसा और लोकतंत्र विरोधी विचार किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। इस सच को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना बेहतर होगा। वरना हमारे लोकतंत्र को चोटिल करने वाली ताकतें ऐसी ही अराजकता का सृजन करती रहेंगीं।

– संजय द्विवेदी

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  1. द्विवेदी जी ने नक्सलवाद का यथार्थ चित्रण किया है। जब तक राजनैतिक इक्छाशक्ति नहीं होगी तब तक नक्सलवाद, आतंकवाद नही खत्म होगा। शहरी एवं गांव के निवासियों के अधिकार और सुविधाए जब तक बराबर नहीं होगे तब तक ये समस्याऐ उठती रहेंगी। इन समस्याओं के ब़ने में हमारे देश की लालफीताशाही बहुत ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि भ्रष्टाचार आजकल सरकारी कार्यालयों का संवैधानिक अधिकार हो गया है।

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