अरविंद जयतिलक
ऐसे वक्त में जब पूरा देश कोरोना के खिलाफ जंग लड़ रहा है नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ राज्य के सुकमा जिले के चिंतागुफा थाना क्षेत्र में 17 जवानों को मौत के घाट उतार पुनः साबित किया है कि वे हद दर्जे के नीच और राष्ट्रविरोधी हैं। शहीद हुए जवानों में 12 डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) और 5 एसटीएफ के जवान हैं। नक्सलियों ने जवानों को तब निशाना बनाया जब वे जंगल से वापसी के दरम्यान कसालपाड़ व मिनपा के बीच नक्सली एंबुश में फंस गए। चूंकि नक्सली पहले से ही घात लगाकर बैठे थे लिहाजा वे अपने कायरतापूर्ण कृत्य में कामयाब रहे। उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकार बिना देर किए इन नक्सलियों का फन कुचल शहीद जवानों का बदला ले। ऐसा इसलिए कि नक्सलियों का दुस्साहस बढ़ता जा रहा है। अभी गत वर्ष ही नक्सलियों ने महाराष्ट्र राज्य के गढ़चिरौली जिले के जाम्बुरगढ़ क्षेत्र में खूनी खेल को अंजाम दिया था। उस समय पुलिस की विशेष कमांडो फोर्स के 15 जवान शहीद हुए थे। गत वर्ष पहले नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ राज्य के ही नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा में खूनी खेल खेलते हुए भाजपा के काफिले को आइईडी विस्फोट से उड़ा दिया था जिसमें विधायक भीमा मंडावी और उनके सुरक्षा में लगे चार जवान शहीद हुए थे। आंकड़ों पर गौर करें तो विगत पांच वर्ष में नक्सली हिंसा की लगभग 6000 घटनाएं हुई हैं जिसमें 1250 नागरिक और तकरीबन 550 सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं। हां, यह सही है कि जवानों की सतर्कता के कारण पिछले कुछ समय से नक्सलियों पर नकेल कसा है और उनकी आक्रामकता कुंद हुई है। पिछले कई मुठभेड़ों के दौरान वे भारी संख्या में मारे गए हैं। उनका हौसला टूटा है। जवानों की सतर्कता के कारण छत्तीसगढ़ को छोड़ नक्सल प्रभावित 10 राज्यों में नक्सली घटनाओं में कमी आ रही है। नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई में तकरीबन डेढ़ दर्जन से अधिक शीर्ष नक्सली मारे जा चुके हैं। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में इस साल नक्सली हिंसा की एक भी घटना नहीं हुई। इसी तरह बिहार में भी कम हिंसक घटनाएं दर्ज हुई हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षाबलों को सफलता मिल रही है जिससे घबड़ाकर वे आक्रामक दिखने की कोशिश कर रहे हैं। याद होगा आज से 7 वर्ष पहले 25 मई, 2013 को भी झीरम घाटी में नक्सलियों ने कांग्रेस के काफिले पर हमला बोलकर 31 लोगों की जान ली थी। तब इस हमले में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनके पुत्र दिनेश पटेल, पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र वर्मा एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल की जान गयी थी। 2014 के चुनाव के पहले भी नक्सलियों ने दरभा के टाहकवाड़ा में सीआरपीएफ के दल पर हमला कर 15 जवानों की जान ली थी। 2014 के चुनाव के बाद फरसेगढ़ से लौट रही पोलिंग पार्टी की बस को भी उड़ा दिया था जिसमें सात मतदान कर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। दो राय नहीं कि जवानों की सतर्कता के कारण नक्सली घटनाओं में कमी आयी है लेकिन देश के कई राज्यों में नक्सली अभी भी अपहरण और फिरौती जैसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। वे फिरौती और अपहरण के पैसे से घातक हथियार खरीद रहे हैं। वे झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे प्राकृतिक संसाधनों वाले राज्यों में काम करने वाली कंपनियों से रंगदारी वसूल रहे हैं। यही नहीं वे इन क्षेत्रों में चलने वाली केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का एक बड़ा हिस्सा भी हड़प रहे हैं। नक्सल प्रभावित जनता नक्सलियों की जबरन वसूली से तंग आ चुकी है। अब जब सरकार द्वारा हाशिए पर पड़े लोगों को रोजगार कार्यक्रमों के जरिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम किया जा रहा है तो वे नहीं चाहते हैं कि उनका निवाला नक्सली डकारें। दरअसल नक्सली एक खास रणनीति के तहत सरकारी योजनाओं में बाधा डाल रहे हैं। वे नहीं चाहते हैं कि ग्रामीण जनता का रोजगारपरक सरकारी कार्यक्रमों पर भरोसा बढ़े। उन्हें डर है कि अगर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी योजनाएं फलीभूत हुई तो आदिवासी नौजवानों को रोजगार मिलेगा और वे नक्सली संगठनों का हिस्सा नहीं बनेंगे। यही वजह है कि नक्सली समूह सरकारी योजनाओं में रोड़ा डाल बेरोजगार आदिवासी नवयुवकों को अपने पाले में लाने के लिए किस्म-किस्म के लालच परोस रहे हैं। वे अपने संगठन से जुड़ने वाले युवकों और युवतियों को सरकारी नौकरी की तरह नाना प्रकार की सुविधाएं मुहैया कराने का आश्वासन दे रहे हंै। नक्सली आतंक की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब वे कंप्युटर शिक्षा प्राप्त ऐसे नवयुवकों की तलाश कर रहे हैं, जो आतंकियों की तरह हाईटेक होकर उनके विध्वंसक कारनामों को अंजाम दे। नक्सली अब परंपरागत लड़ाई को छोड़ आतंकी संगठनों की राह पकड़ लिए हैं। अगर शीध्र ही सरकार उनके खतरनाक विध्वंसक प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगायी तो उनके कंप्युटराइज्ड और शिक्षित गिरोहबंद लोग जंगल से निकलकर शहर की ओर रुख करेंगे और ऐसी स्थिति में उनसे निपटना कठिन होगा। पर अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास कर रही है। उन्हें विश्वास में ले रही है। लेकिन नक्सली अपनी बंदूक का मुंह नीचे करने को तैयार नहीं हैं। खतरनाक बात यह कि नक्सलियों का संबंध आतंकियों से भी जुड़ने लगा है। पूर्वोत्तर के आतंकियों से उनके रिश्ते-नाते पहले ही उजागर हो चुके हैं। पूर्वोत्तर के आतंकी संगठन द्वारा नक्सलियों के प्रशिक्षण की बात देश के सामने उजागर हो चुकी है। याद होगा गत वर्ष पहले आंध्र प्रदेश पुलिस बल और केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों ने एक संयुक्त कार्रवाई में आधा दर्जन ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया था जो नक्सलियों को लाखों रुपए मदद दिए थे। खबर तो यहां तक थी कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ नक्सलियों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए अंडवल्र्ड की मदद से उन्हें आर्थिक मदद पहुंचा रही है। यह तथ्य है कि कि नक्सलियों के राष्ट्रविरोधी कृत्यों में नेपाली माओवादियों से लेकर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी संगठन भी रुचि ले रहे हैं। गत वर्ष पहले आइएसआइ और नक्सलियों का नागपुर कनेक्शन देश के सामने उजागर हो चुका है। नक्सलियों के पास मौजूद विदेशी हथियारों और गोला बारुदों से साफ है कि उनका संबंध भारत विरोधी शक्तियों से है। आज की तारीख में नक्सलियों के पास रुस-चीन निर्मित अत्याधुनिक घातक हथियार मसलन एके छप्पन, एके सैतालिस एवं थामसन बंदूकें उपलब्ध हैं। इसके अलावा उनके पास बहुतायत संख्या में एसएलआर जैसे घातक हथियार भी हैं। याद होगा कुछ साल पहले नक्सलियों ने बिहार राज्य के रोहतास जिले में बीएसएफ के शिविर पर राकेट लांचरों से हमला किया था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर नक्सलियों को ऐसे खतरनाक देशी-विदेशी हथियारों की आपूर्ति कौन कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि देश के तथाकथित अर्बन बुद्धिजीवी ही उनकी मदद कर रहे हैं? इससे इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसा इसलिए कि इन बुद्धिजीवियों द्वारा अकसर दलील दिया जाता है कि नक्सलियों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई को रोककर ही नक्सल समस्या का अंत किया जा सकता है। पर वे यह नहीं बता पाते हंै कि जब सरकार द्वारा बातचीत के लिए आमंत्रित किया जाता है तो वे सकारात्मक रुख क्यों नहीं दिखाते ? विडंबना यह भी कि नक्सली समर्थक बुद्धिजीवी जमात नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने के प्रयास के बजाए इस बात पर ज्यादा बहस चलाने की कोशिश करता है कि नक्सलियों के साथ सरकार अमानवीय व्यवहार कर रही है। यही नहीं वे नक्सली आतंक को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई बताने से भी नहीं चूकते हैं। दुखद यह है कि इन बौद्धिक जुगालीकारों को विद्रुप, असैद्धांतिक और तर्कहीन नक्सली पीड़ा तो समझ में आती है लेकिन नक्सलियों द्वारा बहाए जा रहे निर्दोष जवानों के खून और हजारों करोड़ की संपत्ति का नुकसान उनकी समझ में क्यों नहीं आता है। जब भी अर्द्धसैनिक बलों द्वारा नक्सलियों को मुठभेड़ में मार गिराया जाता है तो इस जमात द्वारा अपनी छाती धुनना शुरु कर दिया जाता है। वे न सिर्फ मुठभेड़ को फर्जी ठहराने की कोशिश करते हैं बल्कि सुरक्षाबलों की शहादत का भी अपमान करते हैं। यह कृत्य देश के विरुद्ध है।