नया पिछड़ा आयोग गठन की तैयारी

0
198

प्रमोद भार्गव

केंद्रीय मंत्रीमंड़ल ने राष्ट्रीय पिछड़ वर्ग आयोग की जगह नया आयोग के गठन को मंजूरी दे दी है। पिछडे़पन के आधार पर आरक्षण की बढ़ती मांग को देखते हुए यह फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अघ्यक्षता में संपन्न हुई कैबिनेट की बैठक में लिया गया। इसे संवैधानिक दर्जा भी दिया जाएगा। मौजूदा आयोग को यह दर्जा नहीं है। पिछड़ा वर्ग कल्याण से जुड़ी संसदीय समिति ने भी यही सिफारिश मंत्रीमंडल को की थी। नए आयोग का नाम ’सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग (एनएसईबीसी) होगा।

इसे नए कदम का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अब पिछड़ा वर्ग सूची में किसी नई जाति को जोड़ने या हटाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास नहीं रहेगा। वर्तमान में सूची में जातियों के नाम जोड़ने व हटाने का काम सरकार के स्तर पर होता है। संसद की मंजूरी के बाद ही सूची में बदलाव संभव हो सकेगा। यह फैसला उत्तर प्रदेश चुनावा में भाजपा को मिली शानदार जीत के परिप्रेक्ष्य में आया लगता है। यहां पार्टी की जीत में पिछड़े वर्ग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अपना दल जैसी छोटी पार्टियों के माघ्यम से भाजपा ने ओबीसी वोट बैंक में पैठ बनाई थी। केंद्र के इस कदम को इसी सामाजिक ताने बाने के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के तौर पर देखा जा रहा है। इससे भाजपा के दूरगामी राजनीतिक हित सधते दिखाई दे रहे है। यह फैसला ऐसे समय आया है जब आरक्षण की मांग देश के अनेक प्रदेशों में उठ रही है। गुजरात  के पटेल, राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा के जाट और आंध्र प्रदेश के कापू  समुदाय के लोग आंदोलनरत थे। गुजरात में तो इसी साल के अंत में चुनाव होने हैं। माना जा रहा है कि मोदी सरकार ने आयोग के गठन का प्रस्ताव लाकर फिलहाल इन समुदायों को विश्वास में लेने की कोशिश की है। साफ है कि भाजपा इस फैसले के जरिये पिछड़ा और अति पिछड़ो में मजबूत पैठ बना लेगी।

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने को कहा गया है। इसमें शर्त है कि यह साबित किया जाए कि दूसरों के मुकाबले इन दोनों पैमानों पर पिछड़े हैं, क्योंकि बीते वक्त में उनके साथ अन्याय हुआ है, यह मानते हुए उसकी भरपाई के तौर पर आरक्षण दिया जा सकता है। राज्य का पिछड़ा वर्ग आयोग राज्य में रहने वाले अलग-अलग वर्गो की सामाजिक स्थिति का ब्योरा रखता है। वह इसी आधार पर अपनी सिफारिशें देता है। अगर मामला पूरे देश का है तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अपनी सिफारिशें देता है। देश में कुछ जातियों को किसी राज्य में आरक्षण मिला है तो किसी दूसरे राज्य में नही मिला है। मंडल आयोग मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ कर दिया था कि अलग-अलग राज्यों में हालात अलग-अलग हो सकते हैं।

 

वैसे तो आरक्षण की मांग जिन प्रांतों में भी उठी है, उन राज्यों की सरकारों ने खूब सियासी खेल खेला है, लेकिन हरियाणा मे यह खेल कुछ ज्यादा ही खेला गया है। जाट आरक्षण के लिए मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सरकार ने बीसी ;पिछड़ा वर्ग सी नाम से एक नई श्रेणी बनाई थी, ताकि पहले से अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहीं जातियां अपने अवसर कम होने की आशंका से खफा न हों। साथ ही बीसी-ए और बीसीबी-श्रेणी में आरक्षण का प्रतिशत भी बढ़ा दिया था। जाटों के साथ जट सिख, बिषनोई, त्यागी, रोड, मुस्लिम जाट व मुल्ला जाट बीसी-सी श्रेणी में मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण से लाभान्वित हो गए थे। इस विधेयक में यह दृष्टि साफ झलक रही थी, कि जाट आंदोलन से झुलसी सरकार ने यह हर संभव कोशिश की है कि राज्य में सामाजिक समीकरण सधे रहें। लेकिन उच्च न्यायालय ने इन प्रावधानों को खारिज कर दिया था।

 

1 अक्टूबर 1993 को तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल ने सांसद रामजीलाल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था। देशराज कांबोज भी इसके अध्यक्ष रहे थे। 7 जून 1995 को पिछड़े वर्ग की सूची में 5 जातियों अहीर-यादव,गुर्जर, सैनी, मेव, लोध तथा लोधा को शामिल किया गया। आर्थिक व सामाजिक रूप से सक्षम मानते हुए इस सिफारिश से जाट,जट सिख समेत बांकी 5 जातियों को आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया गया। इसी सिफारिश के तहत 20 जुलाई 1995 को राज्य के पिछड़े वर्ग को दो भाग वर्ग-ए और वर्ग-बी में बांटकर 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था। साथ ही 16 प्रतिशत आरक्षण वर्ग-ए  ;तब 67 जातियां और 11 प्रतिशत आरक्षण वर्ग-बी ;6 जातियां को दिया गया। 8 अप्रैल 2011 को भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सरकार ने जस्टिस केसी गुप्ता की अध्यक्षता में फिर आयोग का गठन किया। इसकी सिफारिश के आधार पर 12 दिसंबर 2012 को जाट,जट सिख, त्यागी, रोड, और बिषनोई जातियों को विशेष पिछड़ा वर्ग में शामिल कर 10 प्रतिशत का आरक्षण का प्रावधान किया गया। किंतु अदालत ने इन्हें संविधान-सम्मत नहीं माना।

आरक्षण के इस सियासी खेल में अगली कड़ी के रूप में महाराष्ट्र आगे आया। यहां मराठों को 16 फीसदी और मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कर दिया गया था। महाराष्ट्र में इस समय कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। सरकार ने सरकारी नौकरियों,शिक्षा और अर्द्ध सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित किया था। महाराष्ट्र में इस कानून के लागू होने के बाद आरक्षण का प्रतिशत 52 से बढ़कर 73 हो गया था। यह व्यवस्था संविधान की उस बुनियादी अवधारणा के विरुद्ध थी,जिसके मुताबिक आरक्षण की सुविधा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। बाद में मुंबई उच्च न्यायलय ने इस प्रावधान पर स्थगन आदेश जारी कर दिया। फैसला आना अभी शेष है।

इस कड़ी में राजस्थान सरकार ने सभी संवैधानिक प्रावधानों एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को दरकिनार करते हुए सरकारी नौकरियों में गुर्जर,बंजारा,गाड़िया लुहार,रेबारियों को 5 प्रतिशत और सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक 2015 में पारित किया था। इस प्रावधान पर फिलहाल राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया है। यदि आरक्षण के इस प्रावधान को लागू कर दिया जाता तो राजस्थान में आरक्षण का आंकड़ा बढ़कर 68 फीसदी हो जाएगा, जो न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लघंन है। साफ है, राजस्थान उच्च न्यायालय इसी तरह के 2009 और 2013 में वर्तमान कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार द्वारा किए गए ऐसे ही कानूनी प्रावधानों को असंवैधानिक ठहरा चुकी है।

वैसे देश के जाट,गुर्जर,पटेल और कापू ऐसे आर्थिक व शैक्षिक रूप से सक्षम और राजनीतिक पहुंच वाले लोग हैं,जिन्हें आरक्षण दिए जाने की कोई लाचारी प्रत्यक्ष तौर से दिखाई नहीं देती है। बावजूद ये जातियां अपने को पिछड़ों की सूची में शामिल कराने में उतावली हैं,तो इसका एक ही कारण है कि सरकारी नौकरियों से जुड़ी प्रतिष्ठा और आर्थिक सुरक्षा ? जबकि पिछड़ी जातियों की अनुसूची में जाटों को शामिल करने की केंद्र सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना को सुप्रीम कोर्ट 17 मार्च 2015 को खारिज कर चुकी है। अदालत ने इस सिलसिले में स्पश्ट रूप से कहा है कि पुराने आंकड़ों के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। अदालत ने जाटों को आरक्षण पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग अयोग की नसीहत नकारने के सरकार के फैसले को भी अनुचित ठहराया था। अदालत ने कहा था,इस परिप्रेक्ष्य में आयोग की सलाह आधारहीन नहीं है, क्योंकि आयोग एक विधायी संस्था है। आयोग ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में भरतपुर व धौलपुर के जाटों को केंद्र की ओबीसी की सूची में शामिल करने से मना कर दिया था। कारण ये जातियां पिछड़ी नहीं रह गईं हैं, इसलिए पिछड़े होने के मानक पूरे नहीं करती हैं। लेकिन केंद्र ने आयोग की रिपोर्ट पर यह आरोप मढ़कर नजरअंदाज कर दिया था कि आयोग ने जमीनी हकीकत पर विचार नहीं किया। साफ है, जब तक जाट या आरक्षण की प्रतिक्षा में खड़े अन्य दबंग व सक्षम समुदाय सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक रूप से पिछड़े घोशित नहीं कर दिए जाते, तब तक किसी भी वादे या विधेयक पर अमल की उम्मीद संभव नहीं है ? इस हेतु अब नए प्रावधान क्या बनते हैं यह एनएसईबीसी का प्रारूप बनने पर पता चलेगा। यह तो सर्वाविदित है कि राज्य सरकारें और राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के लिए ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को समय-समय पर हवा देते रहे हैं। राज्य सरकारें तो अपने स्तर पर पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था दबंग जातियों के अनुसार करती भी रही हैं।  अब भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार संविधान संशोधन के जरिए सामाजिक और शैक्षिक रूप सें पिछड़े वर्ग के लिए नया आयोग गठन करना चाहती है तो इसका स्वागत होना चाहिए। बषर्ते इसमें राजनीतिक लाभ की जगह सामाजिक कल्याण और समरसता का ध्यान रखा जाए।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here