राजनीति के भंवर में एनसीटीसी- प्रमोद भार्गव

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nctcयह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम आतंकवाद और माओवादी नक्सली हिंसा को भी राजनीतिक नफे-नुकसान और राज्यों के संघीय अधिकार के आईने से देख रहे हैं। इस संकुचित दृष्टि ने एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र को राजनीति के भंवरजाल में उलझा दिया है। इस स्थिति से जाहिर होता है कि हमारे केंद्रीय नेतृत्व में न तो समन्वय बनाने की क्षमता है और न ही राष्ट्रीय संकल्प शक्ति ! क्योंकि मुख्यमंत्रियों की बैठक में इस कानून को वजूद में लाने का विरोध न केवल गैर कांग्रेसी सरकारों ने किया, बल्कि तीन कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी किया। हालांकि एनसीटीसी जैसे कानून की जरुरत ज्यादातर राज्य महसूस कर रहे हैं। क्योंकि संगठित और आयतित आतंकवाद से जहां सीमांत प्रदेश परेशान हैं, वहीं एकीकृत माओवादी हिंसा ने पशुपति से लेकर तिरुपति तक एक पूरा एक गलियारा ही बना लिया है। जाहिर है विभिन्न प्रांतों में फैली इस हिंसा से कोई एक राज्य कारगर ढंग से नहीं निपट सकता है। इस सीमाई और आंतरिक दहशतगर्दी से केंद्रीय कानून के जरिये ही निपटा जा सकता है। लेकिन समन्वय और राजनीतिक अकुशलता के चलते एक जरुरी कानून का वजूद फिलहाल खटाई में पड़ गया।

एनसीटीसी के गठन की पहली आहट 2001 में संसद पर हुए आतंकवादी हमले के बाद सुनाई दी थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार इस विचार को मसौदे में भी तब्दील नहीं कर पाई। इसके बाद नवंबर 2008 में हुए मुंबई हमले के बाद एनसीटीसी पर गंभीरता से विचार हुआ। मसौदा बना और कैबिनेट में एक प्रस्ताव लाकर पारित कर दिया गया। इस पूरे मामले में पारदर्शिता का अभाव था। न तो पहले मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर सलाह-मश्वरा किया गया है और न इस कानून के परिप्रेक्ष्य में संसद को विश्वास में लिया गया। इस समय पी चिंदबरम् गृहमंत्री थे। उनकी मंशा थी कि राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद से लड़ने के लिए एक साझा कानूनी ढांचा अस्तित्व में लाया जाए। इस विचार में गुप्तचरों से मिली सूचनाओं का विश्लेषण और अनुसंधान करना था। वह भी पुलिस और खुफिया एजेंसियों की साझेदारी से। इसी कड़ी में नेटग्रिड और राष्ट्रीय जांच एजेंसी को वजूद में लाया गया था। ये दोनों ही कानून संसद को विश्वास में लिए बिना महज अधिसूचना जारी करके वजूद में लाए गए थे। इसी कड़ी में एनसीटीसी है। दरअसल बाला-बाला इन कानूनों को वजूद में लाने की पृष्ठभूमि में सरकार की मंशा थी कि वह देश को यह संदेश देने में कामयाब हो जाए कि आतंकवाद-माओवाद के सफाए के लिए केवल वही चिंतित है। जबकि विपक्ष और गैरकांग्रेसी सरकारों को इस समस्या से निजात की कोई चिंता ही नहीं है।

बीते साल फरवरी में एनसीटीसी से संबंधित अधिसूचना जारी की गई और मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें इस कानून को अपने राज्यों में अमल के लिए कहा गया। देश के 15 मुख्यमंत्रियों ने इसका जबरदस्त विरोध किया। इस विरोध में कांग्रेस शासित राज्य असम और महाराष्ट्र भी शामिल थे। तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेस और समाजवादी पार्टी भी विरोध में थे। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता और नरेन्द्र मोदी तो मुखर विरोध पर उतर आए थे। मोदी ने तो यहां तक कहा था कि सरकार ‘राज्य के भीतर राज्य का गठन’ प्रक्रिया को आगे बढ़ा रही है।

मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण एनसीटीसी के प्रस्तावित प्रारुप में कई फेर-बदल किए गए। मुख्यमंत्रियों को दो प्रमुख आपत्तियां थीं, एक, एनसीटीसी को आईबी के मातहत रखना और दूसरे, एनसीटीसी की कार्रवाई शाखा को तलाशी लेने, गिरफ्तारी करने जैसे राज्य पुलिस के अधिकार भी दे दिए गए हैं, जो कि संघीय ढांचे के खिलाफ और राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण है। 5 मई 2012 को मुख्यमंत्रियों की जो बैठक हुई उसमें बदले स्वरुप एनसीटीसी को आईबी की बजाए सीधे गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। दूसरे वह कोई भी कार्रवाई या तो संबंधित राज्य की पुलिस के मार्फत करेगी या उसकी भागीदारी से। लेकिन इसके बावजूद बैठक से कुछ हासिल नहीं हुआ।

छत्तीसगढ़ में हाल ही में दरभा में हुए नक्सली हमले के बाद प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा आतंरिक सुरक्षा के सिलसिले में बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में एनसीटीसी पर एक बार फिर आम सहमति बनाने की कोशिश की गई। लेकिन इस बैठक में पिछले साढ़े चार साल से संप्रग सरकार इस केंद्रीय कानून को वजूद में लाने की जो कोशिशे कर रही थी, उन सभी पर पानी फिर गया। ममता बनर्जी और जयललिता ने केंद्र से मतभेदों के चलते बैठक में उपस्थित होना ही जरुरी नहीं समझा। नरेंद्र मोदी ने एक सुर में समूचा प्रस्ताव खारिज करके आगे के लिए संवादहीनता का वातावरण बना दिया। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इसके मौजूदा स्वरुप को नकार दिया। आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र और ओड़ीशा के मुख्यमंत्रियों ने इस कानून को केंद्र का राज्यों में बेज़ा दखल बताया। शिवराज सिंह चैहान ने राजनीति न करने से परहेज किया। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जरुर नक्सली हिंसा से निपटने के लिए केंद्र व राज्यों के बीच हर स्तर पर सहयोग की अपेक्षा की। हालांकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने इस समस्या की पृष्ठभूमि में राजनीतिक कारणों की पड़ताल की। जबकि दरभा में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हिंसक हमले के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों का बहुमत अब इस राय से सहमत नहीं है। नक्सली अब असमानता और अन्यास के लिए नहीं, बल्कि दिल्ली पर सत्ता कायमी के लिए लड़ रहे हैं। इसकी पृष्ठभूमि में नेपाल की प्रेरणा है और चीन व पाकिस्तान की शह। आदिवासी तो उनके लिए सिर्फ एक बहाना है।

देश के लिए यह चिंताजनक है कि राजनीतिक दल एनसीटीसी को केवल राज्यों के संकीर्ण अधिकार से जोड़कर देख रहे है। जबकि इस मसले पर देशहित से जुड़ी व्यापक दृष्टि की जरुरत है। यह ठीक है कि देश में कानून व्यवस्था की जवाबदारी राज्यों की है, लेकिन जब मामला अंतर्राष्ट्रीय प्रायोजित आतंकवाद से जुड़ा हो तो कानून व्यवस्था महज राज्यों के हवाले नहीं छोड़ी जा सकती ? जो राज्य एनसीटीसी के परिप्रेक्ष्य में यह सोच रहे हैं कि कानून व्यवस्था केवल राज्य के अधिकार क्षेत्र में है, वे राजनीति का ऐसा खेल, खेल रहे हैं, जिसमें व्यापक देशहित गौण रह जाता है। यहां गौरतलब है कि जब देश का संविधान रचा जा रहा था, तब न तो सीमा पर आतंकवाद था और न ही नक्सलवाद, माओवाद अथवा अग्रवाद जैसी आतंरिक चुनौतियां थी। इसलिए संविधान निर्माताओं ने कानून-व्यवस्था को राज्य के अधिकार क्षेत्र में रख दिया था। किंतु वर्तमान परिदृश्य में 28 राज्य और 7 केंद्रशासित प्रदेशों वाले देश में आतंकवाद से लड़ने के लिए जरुरी है कि कोई केंद्र द्वारा नियंत्रित कानून और पुलिस का ढांचा अस्तित्व में हो ? राज्य पुलिस आतंकवाद से किसी हाल में नहीं निपट सकती ? इस परिप्रेक्ष्य में मुख्यमंत्रियों को भी सोचने की जरुरत है कि एनसीटीसी को कारगर तंत्र बनाने के लिए इसे सीधे-सीधे नकारने की बजाए प्रस्तावित मसौदे में परिवर्तन के लिए कुछ अपनी ओर से सुझाव देते। भ्रम के पहलू दूर हों और राज्य के अधिकार भी सुरक्षित रहें, इस दिशा में सार्थक पहल करते तो उनकी मंशा में आतंकवाद से छुटकारे के उपाय दिखाई देते और जनता में यह संदेश नहीं जाता कि अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए एक राष्ट्रीय कानून को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। अब केंद्र सरकार से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह एनसीटीसी पर फिर से चर्चा के लिए मुख्यमंत्रियों की बैठक आहूत करेगी

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