संकल्प से सिद्धि के लिये मन और माहौल चाहिए

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– ललित गर्ग-


हर व्यक्ति सफल होना चाहता है और सफलता की सीढ़िया चढ़ने के लिये संकल्प बहुत जरूरी है। संकल्प हमारी बहुत बड़ी शक्ति है और इसके द्वारा बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकता है। सफलता को हासिल करने के लिये तीन प्रकार की शक्तियां हैं- इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति और एकाग्रता की शक्ति। ये तीन शक्तियां कम या अधिक मात्रा में हर व्यक्ति के पास होती है। कोई भी इन तीन शक्तियों से हीन नहीं है। लेकिन सवाल इन्हें जागृत करने का है और उनको जीवनशैली बनाने का है। संकल्प शक्ति जिसने जगा ली, सचमुच वह विजयी बन सकता है। जब संकल्प जाग जाता है तो व्यक्ति और राष्ट्र जाग जाता है। संकल्प सो गया तो राष्ट्र भी सोया रह जाता है। इसलिए जीवन में संकल्प की दृढ़ता का प्रयोग बहुत जरूरी हैं।
कुछ लोग संकल्प लेने से घबराते हैं। उन्हें यह ज्ञान ही नहीं कि संकल्प के बिना किसी का विकास नहीं हो सकता। उपनिषद में कहा गया-संकल्पजा सृष्टिः। कोई भी सृष्टि हुई है, नया निर्माण हुआ है तो संकल्प के द्वारा हुआ है। आप नया मकान बनवाते हैं, नई फैक्टरी बैठाते हैं तो इसके पीछे आपका दीर्घकालिक चिंतन होता है। चिंतन के बाद उसके लिए संकल्पित होेते हैं, तब कहीं जाकर वह संकल्प चरितार्थ होता है। कोई भी सफलता सीधे नहीं मिलती, एकाएक नहीं मिलती। दूसरी संकल्पजा शक्ति एक बहुत बड़ी शक्ति है। हर व्यक्ति को किसी भी मंजिल तक पहुंचने, या कोई भी लक्ष्य हासिल करने या किसी भी परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिये पहले मन में संकल्पित होना होता है। ऐसे संकल्पों से जुड़ने वाले व्यक्ति जो संकल्प लेते हैं, उसका वे प्रतिदिन प्रयोग करते हैं या नहीं करते? उसका पुरावर्तन करते हैं या नहीं करते? अगर प्रतिदिन उसे दोहराते नहीं हैं तो वह संकल्प कभी स्थायी नहीं बन सकेगा। जहां स्वीकृत संकल्पों का पालन नहीं होता, फाॅलो-अप नहीं होता, वहां चारित्रिक न्यूनता आती है, शिथिलता आती है।
श्रम, संकल्प और सफलता एक दूसरे से जुड़े हैं। श्रम हो और संकल्प हो तो सफलता सुनिश्चित हो जाती है। इसमें प्रोत्साहन का भी बड़ा योग होता है। दूसरों के द्वारा और विशेष कर मार्गदर्शक की ओर से अगर प्रोत्साहन न मिले तो संकल्प के प्रति रुचि यथावत नहीं रह पाती और सफलता भी संदिग्ध हो जाती है। संकल्प करने वाले का उचित पुरुषार्थ नहीं है तो भी उसमें मंदता आ जाती है। पुरुषार्थ हो और विवेकपूर्ण पुरुषार्थ हो तो संकल्प फलवान बनता है।
संकल्प को सिद्धि तक पहुंचाने पूरे मन से तैयार होना होता है, उसके अनुकूल माहौल भी बनाना होता है। व्यक्ति में इसके लिये स्वयं को बदलने की तैयारी भी आवश्यक है। यह ज्वलंत प्रश्न है कि व्यक्ति स्वयं में बदलाव कैसे लाए? बदलाव के लिए नए क्षितिज का स्पर्श कैसे करें? नए परिवर्तन की नई दिशाओं का उद्घाटन कैसे किया जासकता है? इस संदर्भ में जब गहराई से चिंतन किया जाता है तब ज्ञात होता है कि जो व्यक्ति प्रत्येक स्थिति में संतुलन रख सकता है, वह नित्य नए सृजन की क्षमता को वृद्धिंगत करता हुआ अप्राप्य को प्राप्त कर लेता है। डोनाल्ड ट्रंप ने कभी कहा था-‘‘सफल होने के लिए आपको शेष दुनिया के 98 प्रतिशत लोगों से खुद को अलग करना होगा। निश्चित रूप से आप सबसे ऊंचे स्थित उस विशिष्ट दो प्रतिशत में शामिल हो सकते हैं और इसके लिए सिर्फ चतुर होना, मेहनत करना और बुद्धिमता से निवेश करना पर्याप्त नहीं है। कामयाबी का एक फाॅर्मूला, एक रेसिपी है, जिसे दो प्रतिशत लोग अपनाते हैं और आप भी कामयाब होने के लिए उसे अपना सकते हैं। वह है-बड़ा सोचो और जुट जाओ।’’
ऐसा नहीं है कि जो लोग बड़ा नहीं सोचते, वे सोचते ही नहीं। इस दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो सोचता न हो। मेरा कहना है कि अगर आप सोच ही रहे हैं तो क्यों न बड़ा सोचें। इस सोच के साथ संकल्प, इच्छा और एकाग्रता की शक्तियों को भी जोड़ लें। नेपोलियन हिल ने एक बार महसूस किया-‘‘दुःख और गरीबी स्वीकार करने के लिए जितना प्रयास अपेक्षित है, जीवन में ऊंचा लक्ष्य रखने के लिए उससे अधिक प्रयास की जरूरत नहीं है।’’ आपको बस एक पहल करनी है, एक संकल्प लेना कि आपको भव्य विचार रखने हैं। यह एक बर्गर और एक फल के बीच चयन करने जितना आसान है। आप दोनों ही चीजों को खा सकते हैं। आपको बस यह फैसला करना है कि आपको क्या चाहिए। मैंने एक बार कहीं पढ़ा था-‘‘जीवन में अक्सर आपसे मजबूत और प्रसन्न लोग आपके रास्ते में आते हैं। आप जब ऐसे लोगों के बारे में देखते या सुनते हैं तो उनसे ईष्र्या न करें। ईश्वर उन्हें आपको प्रोत्साहित करने के लिए आपके रास्ते में लाया है।’’
एक बार नेपोलियन हिल ने सुझाव दिया कि हमारा अंतिम लक्ष्य अपने आपको महान बनाना होना चाहिए, लेकिन तब तक अगली बड़ी चीज भावना और कार्य में जहां तक हो सके, महान लोगों का अनुकरण करना होना चाहिए। संस्कृत में एक मंत्र है-‘‘अहं ब्रह्म अस्मि’’ या ‘‘ईश्वर जो भी है, मैं हूं।’’ उसे फिर पढ़ें-‘‘ईश्वर जो भी है, मैं हूं।’’ कल्पना कीजिए, ईश्वर बाहर नहीं, अंदर है। हम व्यर्थ उसे बाहर मूर्तियों, ग्रंथों, पूजा-स्थलों में ढूंढ़ते रहते हैं। लेकिन वास्तव में वह आपके अंदर है। इसलिए जिस तरह आप मंदिर का सम्मान करते हैं, क्या आपको अपने अंतःस्थल का सम्मान करना चाहिए, जो ईश्वर का सही निवास है? एक कहावत है-‘‘कठिनाई से महानता मिलती है।’’ हर सीमितता अपने साथ अवसर लाती है। जिन लोगों ने दुनिया भर में किसी क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त की है, वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने कठिनाइयों और अवरोधों को पार किया है।
इन सब पहलुओं पर विचार कर ऐसी कोई ऐसी योजना बनाएं, जिससे स्थायित्व आए। स्थायित्व के लिए चार सूत्र हैं- पहले अपना संकल्प, फिर उसकी सिद्धि के लिए अपना पुरुषार्थ और श्रम, फिर दूसरों का प्रोत्साहन। संकल्प प्रारंभ में गीली मिट्टी का लोंदा होता है। उसे घड़ा बनाकर तुरंत उसमें पानी नहीं भरा जा सकता। पानी तभी उसमें टिकेगा, जब घड़ा आंच में पक जाएगा। हम संकल्प को पकाने की प्रक्रिया को समझें। आधार बनेगा तो पकने के बाद ही बनेगा। संकल्पशील व्यक्ति के लिए जागरूकता बहुत जरूरी है। प्रेषक

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