आदिवासी क्षेत्रों में कार्य योजना की आवश्यकता

राजगोपाल पीवी

यह बात शत प्रतिशत सच है कि छत्तीसगढ़ को कुदरत ने अनगिनत संपदा से नवाजा है। जिसका उपयोग यदि सही ढ़ंग से किया जाए तो क्षेत्र के विकास में काफी सहायक सिद्ध होगा। परंतु यहां परिस्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। नक्सल प्रभावित इस क्षेत्र में विकास नाममात्र हो पा रहा है। मौजूदा हालात में सरकारी कर्मचारी खौफ के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य नहीं करना चाहते हैं। जिससे यह समूचा क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ता चला जा रहा है। सरकार ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए ही योजनाएं तैयार करती है। परंतु उसे कार्यान्वित करने वाले कर्मचारी ही जब इस क्षेत्र से स्वंय को दूर रखते हैं तो विकास का कार्य कैसे पूरा हो सकता है। इसके लिए जरूरी है सरकार द्वारा प्रस्तावित योजना और कार्य प्रणाली में सुधार करने की।

इनमें ऐसे लोगों को जोड़ने की आवश्‍यकता है जो कम से कम ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर काम कर सकें। इस कार्य के लिए गैर सरकारी संगठन अधिक कारगर साबित होंगे। परंतु यह अजीब विडंबना है कि सरकारी कर्मचारी खौफ से ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने से कतराते हैं वहीं दूसरी ओर सरकार गैर सरकारी संगठनों को केवल इस कारण वहां कार्य करने की इजाजत नहीं देती है क्योंकि वह सरकार के कार्यप्रणाली की आलोचना करते हैं। यदि आप इस पूरे मामले को बारीकी से समझने का प्रयास करेंगे तो आपको स्पष्‍ट नजर आएगा कि कुछ लोग पूरी तरह ग्रामीणों को सशस्त्र बलों के रहमोकरम पर छोड़ देना चाहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ समेत आदिवासी क्षेत्रों में एक ऐसा समूह कार्यरत है जो इस तनाव को खत्म नहीं होने देना चाहता है क्योंकि इसके पीछे उनके फायदे छुपे हुए हैं। अब प्रश्‍न यह उठता है कि हम छत्तीसगढ़ को इस प्रकार की परिस्थिति से कैसे बचाएं?

ऐसा नहीं है कि गैर सरकारी संगठन छत्तीसगढ़ में कार्यरत नहीं हैं। सच्चाई तो यह कि इनके प्रति सरकार की नीयत साफ नहीं है। शंकर गुहा नियोगी एक महान यूनियन लीडर थे। जिन्होंने ट्रेड यूनियन को एक नई उंचाई प्रदान की। मजदूरों को एक सूत्र में बांधने के साथ साथ इन्होंने उनके उत्थान के लिए भी कई कार्य किए। भिलाई क्षेत्र के कोयला खदानों में कार्यरत मजदूरों को मेडिकल सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए इन्होंने एक अस्पताल का निर्माण करवाया। मजदूर यूनियन के माध्यम से इन्होंने शराब के प्रति सफलतापूर्वक जागरूकता अभियान चलाया। उस जमाने में मैं भी उनके साथ कार्य किया करता था। मुझे 1995 की उन बड़ी रैलियों में एक आज भी याद है जिसे दो गैर सरकारी संगठनों ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा‘ तथा ‘एकता परिषद‘ ने रायपुर में आयोजित किया था। हम ट्रेड यूनियन तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को आपस में जोड़ने का प्रयास कर रहे थे। बदकिस्मती से नियोगी जी की हत्या कर दी गई। हमें अब भी शंका है कि इस हत्या के पीछे शराब माफियाओं का हाथ है। शंकर गुहा नियोगी ने छत्तीसगढ़ में मजदूरों की ताकत और एकता का एक सपना देखा था। मजदूरों से इन्हें प्यार था और उनके अधिकार के लिए ही उन्होंने अपना जीवन निछावर किया है।

आज हम छत्तीसगढ़ में जो कुछ देख रहे हैं वह उनके सपने और विचारधारा के विपरीत है। ट्रेड यूनियन से बचने के लिए मजदूरों को देश के अलग अलग भागों से लाया जाता है। यही कारण है कि जब उन्हें न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जाती है तो कोई इसके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करता है। कई बार ऐसी सूचनाएं मिली हैं कि काम के दौरान हादसे का शिकार मजदूर की लाश को महज 5000 रूपए के साथ घरवालों को उड़ीसा अथवा बिहार भेज दिया जाता है। जो मानवाधिकार का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन है। भारत जैसा देश जहां श्रमिकों की एक बड़ी संख्या मौजूद है, मजदूरों के साथ ऐसे व्यवहार पर आष्चर्य होता है। यह इस बात का अहसास दिलाता है कि अब शंकर गुहा नियोगी जैसी विचारधारा पर चलने वाले लोगों की काफी कम संख्या है। जो मजदूरों के हक के लिए जीते और मरते हैं। जिसपर हम सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्‍यकता है। इस मामले को जल्द से जल्द हल कराने के लिए मानव अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले संगठन तथा उन लोगों को साथ मिलकर कार्य करने चाहिए जो कमजोर लोगों के विकास के काम कर रहे हैं।

आज छत्तीसगढ़ में यह भी देखने को मिल रहा है कि पुलिस कैंप बनाने के नाम पर अधिक से अधिक जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है। जबकि फॉरेस्ट राइट एक्ट के तहत स्थानीय लोगों को जमीनें नहीं दी जा रही हैं। 1978-79 में जब मैंने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया था तो वह एक अलग छत्तीसगढ़ की छवि थी। मैंने ऐसे कई ग्रामीणों को तैयार किया था जो अपने क्षेत्र की समस्याओं के लिए आवाज बुलंद कर सकें। उन दिनों समस्याएं भी छोटी हुआ करती थीं जैसे वृद्धावस्था पेंशन, जनवितरण प्रणाली में खामियां, पंचायत भवन का निर्माण और शराबबंदी जैसी समस्याएं थीं। वास्तव में एकता परिशद का गठन ऐसी ही समस्याओं के हल के लिए उस समय किया गया था जब ग्रामीणों ने यह महसूस किया था कि इनसे निजात पाने के लिए एक साझा मंच की आवष्यकता है। एकता परिशद की यात्रा के दौरान छत्तीसगढ़ से गुजरते समय मुझे माडा गांव की असलियत से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। इस गांव में करीब 32 परिवार रहते हैं। जिनकी रोजी रोटी का एकमात्र साधन जंगल की जमीन है। परंतु यह गांव वन विभाग के क्षेत्र में आता है इसलिए जमीन पर आदिवासियों का दावा नकार दिया गया। वर्तमान में यही आदिवासी वन विभाग के लिए मजदूर के रूप में कार्यरत हैं।

अफसोस की बात यह है कि जिस जमीन से इनके घर का वर्शों से चुल्हा जलता आ रहा है उसी जमीन के यह कभी मालिक नहीं बन सकते हैं। सिर्फ इसलिए क्योंकि कानूनी रूप से इनके पास जमीन से संबंधित कोई प्रमाण नहीं रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद अब भी कई गांवों को जंगल के क्षेत्र में ही दर्शाया जाता है। मैं आशा कर रहा था कि जिन क्षेत्रों में नक्सल अधिक सरगर्म हैं वहां सरकार आदिवासियों के लिए जमीन के मुददे को जरूर हल करेगी। इस कार्य के लिए सरकार को इन क्षेत्रों में सक्रिय गैर सरकारी संगठनों का सहयोग प्राप्त हो सकता है। क्योंकि ऐसी संगठनें इन्हीं मुददों पर वर्शों से कार्य कर रही हैं। परंतु यह उसी वक्त संभव है जब सरकार की मंशा साफ हो। उसे आदिवासियों के हितों की वास्तव में चिंता हो। (चरखा फीचर्स)

(लेखक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here