सरकारी तंत्र में कामकाज की संस्कृति को बढ़ाने की जरुरत

विवेक कुमार पाठक
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

आज देश में सरकारी सिस्टम एक अजब गजब बीमारी से संक्रमित नजर आ रहा है। ये बीमारी एक से दूसरे दूसरे से तीसरे और इसी तरह निरंतर आगे बढ़ती जा रही है। बीमारी का नाम है। काम से तौबा मतलब कामकाज की संस्कृति का नितांत अभाव। आज सरकारी दफतर और कार्यालय कामकाज की संस्कृति से निरंतर दूर होते जा रहे हैं।भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में केन्द्रीय सरकार और राज्यों की सरकारें जनता की सेवा कर सकें इसके लिए उनके पास बड़ा सरकारी सिस्टम है। कमान संभालने के लिए संघ लोक सेवा आयोग और राज्यों के लोक सेवा आयेग हैं तो मध्यम , कनिष्ठ और निचले स्तर पर केन्द्र और राज्य सरकारें सीधी और विभिन्न एजेंसियों के साथ संस्थागत रुप से भर्ती प्रक्रिया आयोजित करती हैं। इनसे चुने गए लोग सरकारी कर्मचारी बन जाते हैं। वे सरकारी कर्मचारी जो जनता के जमा किए करों से जनता के हित में सरकार के नेतृत्व में काम करते हें।

जनता के करों से देश के सभी शासकीय कर्मचारियों को नियमित अंतराल से पांचवे, छठवें और अब सांतवे वेतनमान दिए जा रहे हैं। ऐसे में जनता को उनके बदले में इन कर्मचारियों से उपेक्षापूर्ण व्यवहार को कतई जायज नहीं कहा जा सकता। देश और प्रदेश के शासकीय कर्मचारियों ने खुद आकर सरकारी सिस्टम को अपनाया है तो उन्हें जनता के प्रति जवाबदेही दिखाना भी चाहिए। सिर्फ दफतर में आना ही जवाबदेही नहीं है। दफतर में काम भी होना व दिखना भी जरुरी है। वर्तमान में समाज में सरकारी सेवा आरामतलब जीवन का पर्याय बन चुकी है। देश प्रदेश के करोड़ों युवा बड़ी बड़ी डिग्रियां करने के बाबजूद सरकारी चपरासी बनने को लालायित हैं। हम आए दिन नामी अखबारों में कुछ पदो के लिए हजारों उच्च शि्िक्षत युवाओं को चपरासी पद के लिए आवेदन करते युवाओं की बेतहाशा भीड़ देखते हैं। ये भीड़ है तो इसकी साफ वजह है। युवा प्रायवेट क्षेत्र में कम अवसरों से भयाक्रांत हैं तो निजी क्षेत्र में बिना किसी कायदे कानून के कारण चलने वाले शोषण से भी उब चुके हैं। वे निजी क्षेत्र में उत्साह के साथ काम करने जाते हैं मगर निजी क्षेत्र में उनके अधिकारों की रक्षा को लेकर सरकार की भूमिका शून्य है। प्रायवेट क्षेत्र में काम करने वाले हजारों लोग आए दिन अपने शोषण की शिकायतें करते हैं मगर उन्हें उनके श्रम के बदले न तो उचित मेहनताना मिलता है और न ही सम्मान और सुरक्षा। सरकार के सारे श्रम कानून सिर्फ सरकारी क्षेत्र तक सीमित हैं एवं निजी क्षेत्र में श्रमिक सुरक्षा कानून और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का पालन कराने में सरकारें नाकाम रही हैं। निजी क्षेत्र में रोजगार में इसी अनिश्चितता और असुरक्षा ने आज सरकारी नौकरी को युवा वर्ग की सबसे पहली पसंद बना रखा है। सरकारी क्षेत्र का आरामतलब जीवन एक तरह की गलत संस्कृति की ओर युवाओं को आगे बढ़ने की राह दिखाता है। लंबे समय से बिना किसी व्यवस्थित पर्यवेक्षण और जिम्मेदारी प्रशासन के कारण आज सरकार कर्मचारी का अपना एक अलग तरह का अवचेतन बन गया है। पुराने सरकारी कर्मचारियों ने जिस तरह का सुस्त और लापरवाह कामकाज का राग अपनाया उससे नए कर्मचारी भी संक्रमित हो रहे हैं। सरकारी कार्यालयों में काम न करने वाले कर्मचारी काम करने वाले कर्मचारियों को हतोत्साहित करते हैं साथ ही जनता के प्रति जवाबदेही प्रशासन का हिस्सा होने से जी चुराते हैं।
आज जिन सरकारी कर्मचारियों की संख्या देश में कुल 3 फीसदी भी नहीं है वे देश के उस सिस्टम का नेतृत्व कर रहे हैं जो 97 फीसदी जनसंख्या के लिए काम करने पदों पर बिठाया गया है। ये 3 फीसदी लोग सवा अरब जनसंख्या वाले भारत देश में जनता के करों से जमा हुए कोष से तनख्वाह व वेतन पाते हैं।
ये जिस सरकार के मुलाजिम हैं असल में वो कुछ सदस्यीय मंत्रीपरिषद और उसके पीएम और सीएम तक सीमित नहीं है। सरकार असल में देश के करदाता नागरिकों ने एक सामूहिक व्यवस्था को चलाने की सरकार के नाम पर कुछ लोगों को देश और प्रदेश चलाने की जिम्मेदारी दी है। ये कुछ माननीय जनप्रतिनिधि और कार्यपालिका के सदस्य सरकारी कर्मचरियों को अपने व्यक्तिगत कोष से वेतन नहीं देते हैं। सरकारी कर्मचारियों को वेतन देश प्रदेश गांव देहात शहर गली मोहल्ले कॉलोनी और हाउसिंग सोसायटी से लेकर झुग्गी बस्ती में रहने वाला करदाता भी देता है। देश में जो भी नागरिक जीवन जी रहा है। सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक और सोने के बाद से सुबह दुबारा उठने तक किसी न किसी रुप में सरकार को अलग अलग तरह के करों के रुप में अपनी कमाई का हिस्सा दे रहा है। ये कमाई का हिस्सा जो जितना कम ज्यादा कमा रहा है उतना कम ज्यादा सरकार चलाने सरकारों को दे रहा है। ऐसे में देश के हर नागरिक का अधिकार है कि उसके कर से संचालित सरकारी सेवाएं गुणवत्तापूर्ण हो। उसका कर राष्ट्र की संपत्ति है जिसका सही उपयोग हो ये देखना सवा अरब नागरिकों के द्वारा चुनी गई सरकारों का दायित्व है। सरकारी दायित्व बिना सरकारी कर्मचारियों के पूरा होना एक छलावे के अलावा कुछ नहीं है अत जनता की खून पसीने और मेहनत की कमाई से वेतन और तनख्वाह लेने वाले सरकारी कर्मचारियों को एक जिम्मेदार सिस्टम का हिस्सा बनना चाहिए। एक सरकारी कर्मचारी अकेला बदलाव नहीं ला सकता मगर लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की भावना एक एक के अपनाने से ही खत्म होगी। देश के हर सरकारी कर्मचारी को अप्रत्यक्ष रुप से अपने वेतनदाता और तनख्वाहदाता के प्रति सम्मान दिखाते हुए कामकाज की संस्कृति को अपनाने बदलाव करना चाहिए क्योंकि कामकाज ही मनुष्यता है और यही सबकी जरुरत है।

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