योजनाओं की घोषणा नहीं क्रियान्वयन चाहिए

राम कुमार

आजादी के बाद से अबतक देश में कितनी योजनाएं बनी हैं इसका हिसाब-किताब रखना बहुत मुश्किल है। राष्‍ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, मनरेगा, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना, इंदिरा आवास योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना मिड डे मील, विकलांग पेंशन योजना, वृद्धावस्था पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना, फसल बीमा योजना, समृद्ध योजना जैसी अनेक योजनाएं हैं जो केंद्र के माध्यम से चलाई जा रही हैं। जबकि प्रत्येक राज्य सरकारें भी अपने नागरिकों के लिए इन योजनाओं के अलावा राज्य कल्याण योजनाओं का संचालन कर रखा है। इसके अतिरिक्त समुदाय, धर्म और भाषा के नाम पर अलग से केंद्र और राज्य सरकारों की अनेकों योजनाएं चल रही हैं। इनमें से कई वर्तमान में चल रही हैं तो कई योजनाएं अपनी अवधि पूर्ण कर समाप्त हो चुकी हैं। लेकिन कितनी योजनाएं शत-प्रतिशत धरातल पर कामयाब हो पाई हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन हैं।

भारत गांवों का देश है इसलिए विश्‍व भर में इसे ग्रामीण प्रधान राश्ट्र के रूप में देखा जाता है। रोजगार के लिए पलायन के बावजूद जनसंख्या शहरों के मुकाबले अब भी गांवों में अधिक है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो देश की अर्थव्यवस्था में अपनी अहम भूमिका निभा रही है। आज ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार द्वारा बहुत से कार्य किए जा रहे हैं। जिससे गांवों में निवास करने वाले लोगों के साथ साथ गांवों का विकास हो सके। फिर भी आज देश के ऐसे बहुत से ग्रामीण इलाकें हैं जहां सरकार द्वारा चलाए जा रही योजनाएं गांवों तक पहुंच तो जाती है लेकिन उन्हें इसके बारे में जानकारी नहीं हो पाती है। जिससे इन योजनाओं का ग्रामीण क्षेत्रों के लोग लाभ नहीं उठा पाते हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र छत्तीसगढ़ का कुल्हारकट्टा गांव भी है, जो कांकेर जिला के भानुप्रतापपुर ब्लॉक का अंग है। इसका उल्लेख करना इसलिए भी आवश्‍यक है क्योंकि इसे राज्य का एक जागरूक गांव के रूप में देखा जाता है। जहां सरकारी कागज पर सभी योजनाएं लागू हैं। इसके बावजूद यहां के लोगों को अधिकतर योजनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ब्लॉक से मात्र 10 किमी दूर इस गांव की आबादी 1099 है। जहां बीपीएल परिवारों की संख्या 96 और एपीएल परिवारों की संख्या 92 है। यहां के अधिकतर लोगों की आजिविका कृषि या फिर बांस से बने सामान तैयार करने पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त कई परिवार घर चलाने के लिए रोजगार के लिए षहर भी पलायन करते रहते हैं।

खास बात यह है कि जागरूक गांव कहलाने के बावजूद इस गांव के कई लोगों को राषन कार्ड तक उपलब्ध नहीं है। जिससे वह अनेकों योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। गरीबों के घर चूल्हा जलाने में मदद करने के लिए राज्य सरकार की ओर से दो रूपए प्रति किलो चावल का वितरण किया जाता है। लेकिन इसका लाभ उठाने के लिए उनके पास राशन कार्ड का होना लाजमी है। जो इनके पास सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि इन्हें कार्ड बनवाने और इससे होने वाले लाभों के प्रति किसी ने भी जागरूक नहीं किया है। एक बात और केंद्र सरकार भले ही राजीव गांधी राष्‍ट्रीय विद्युतीकरण योजना के तहत तय समयसीमा में गांव गांव तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य हासिल करने का दावा करती हो, लेकिन इस गांव की किस्मत में षायद बिजली नसीब ही नहीं है। यह गांव हाल ही में आई अक्षय कुमार की फिल्म जोकर के पागलपुर गांव की तरह है। जो शायद बिजली विभाग के नक्षे में ही नहीं है। यही कारण है कि अभी तक इस गांव में रौशनी के लिए वहीं लालटेन का इस्तेमाल किया जाता है। जिसे अब षहर के बच्चे किताबों में पढ़ते हैं।

कुल्हारकट्टा के लोग सरकार की मनरेगा जैसी उन योजनओं के लाभ से भी अनजान हैं जिसने केंद्र की यूपीए सरकार को दुबारा सत्ता की चाबी सौंपने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस योजना के तहत जरूरतमंदों को 132 रूपए की मजदूरी के साथ सौ दिनों का रोजगार मिलता है। इसके लिए ग्रामीणों के पास जॉब कार्ड होना अनिवार्य है। यहां तक तो योजना का लाभ पहुंच चुका है और गांव के सभी बेरोजगारों का जब कार्ड बना हुआ है। लेकिन गांव वाले मनरेगा के तहत काम करना पसंद नहीं करते हैं। क्योंकि उन्हें काम का भुगतान एक से दो महीने बाद किया जाता है। गांव के नौजवान बालू गोहना का तर्क है दिहाड़ी मजदूर किसी काम को इस आधार पर करना पसंद करता है कि इससे आज उसके घर का चुल्हा जल सकेगा। लेकिन जब समय पर ही भुगतान न हो तो ऐसे रोजगार का क्या फायदा? मनरेगा जैसी कारआमद योजना को यदि ईमानदारीपूर्वक जमीन पर उतारा जाए तो इससे न सिर्फ गांव की किस्मत बदल चुकी होती बल्कि विकास का पैमाना भी छलक गया होता। लेकिन भ्रष्‍टाचार ने इस महत्वाकांक्षी योजना की कामयाबी पर ही ग्रहण लगा दिया है। आज देश में ग्रामीण स्तर पर यदि किसी भ्रष्‍टाचार की चर्चा की जाती है तो वह मनरेगा ही है। जिसकी शुरूआत पंचायत स्तर पर ही होती है। हालांकि सरकार की ओर से शुरू किए गए सोषल ऑडिटिंग ने इसमें भ्रष्‍टाचार पर अंकुश लगाने का काम किया था। लेकिन वह भी राजनीति का शिकार हो गया। सामाजिक कार्य के विशेषज्ञ और रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्‍वविद्यालय में सामाजिक कार्य विभाग के सहायक प्रोफेसर शिव सिंह बघेल का मानना है कि सोशल ऑडिट ने मनरेगा में हो रहे भ्रष्‍टाचार पर लगाम लगाया था। गांव वालों के लिए यह एक ऐसा शस्त्र था जिसमें बिना एक बूंद खून बहाए भ्रष्‍टाचारी रूपी दुश्‍मन का खात्मा किया जा सकता था।

ऐसे में प्रश्‍न उठता है कि आखिर योजनाएं किसके लिए और किस मकसद के लिए बनाई जाती हैं। जब इसका लाभ उठाने वालों को ही इसकी जानकारी समय पर नहीं पहुंच पाती है। आवश्‍यकता इस बात की है कि योजनाएं बनाने से पहले उसके क्रियान्वयन का खाका तैयार किया जाए। तभी वास्तव में हम अपनी योजनाओं को जमीनी स्तर पर शत-प्रतिशत कामयाब बना पाएंगे। तभी उसके औचित्य की पूर्ण प्राप्ति संभव है। (चरखा फीचर्स)

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