ब्रह्मपुत्र मसले पर संजीदगी ज़रूरी

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अरुण तिवारी

ब्रह्मपुत्र मूल के तिब्बती हिस्से में अपने हिस्से में अपनी हरकतों को लेकर चीन एक बार फिर विवाद में है। हालंकि यह पहली बार नहीं है कि तिब्बती हिस्से वाले ब्रह्मपुत्र नद पर चीन की अनैतिक हरकतों को लेकर विवाद खड़ा हुआ हो। चीन पर इससे पहले भी बांध निर्माण के अलावा भारत आने वाले तिब्बती प्रवाहों में परमाणु कचरा डालने का आरोप भी लग चुका है। इस बार लगा आरोप ज्यादा संगीन इसलिए है कि इस बार मामला बांध निर्माण का न होकर, प्रवाह के मार्ग को ही चीन की ओर मोड़ लेने हेतु 1000 किलोमीटर लंबी सुंरग बनाने को लेकर है। चर्चा है कि यह सुरंग तिब्बत से लेकर चीन के ज़िगजियांग क्षेत्र के तकलीमाकन रेगिस्तान तक जायेगी। पूर्वी अरुणाचल के पालीघाट से चुने गये लोकसभा सांसद श्री निनांग एरिंग का आरोप है कि ब्रह्मपुत्र के चीनी हिस्से में जलदोहन का कार्य पहले ही आरम्भ किया जा चुका है।उन्होने आंशका जताई है कि नवंबर के महीने में सियांग के जल के कीचड़युक्त और सीमेंट मिश्रित होने का कारण सुरंग का निर्माण हो सकता है। यह पहली बार है कि सियांग का पानी पिछले दो माह से मटमैला बना हुआ है। भारत के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग ने श्री निनांग एरिंग की आशंका की पुष्टि की है। विभाग द्वारा पेश तथ्यों के मुताबिक प्रयोगशाला में उच्च तकनीकी फोटोमीटर के जरिए जांचे गये नमूनों मंे निनांग का गंदलापन 0 से 5 के मान्य स्तर की तुलना में 425 पाया गया। जांच के लिए और नमूने भेजे जाने की जानकारी देते हुए विभाग ने आशंका व्यक्त की कि यदि सियांग नदी और ब्रह्मपुत्र नद में गंदलेपन का यह स्तर कायम रहा, तो जलीय जीव व वनस्पतियों की भारी मात्रा में क्षति हो सकती है। ज़िला आयुक्त ने चेतावनी जारी की कि यह स्थिति बनी रही तो सियांग का जल उपयोग लायक ही नहीं बचेगा।

 

हालांकि अपनी प्रारम्भिक जांच के मुताबिक, भारत सरकार का केन्द्रीय जल संसाधन व नदी विकास मंत्रालय सियांग और ब्रह्मपुत्र में आये कीचड़ व नदी मार्ग में पैदा हुई बाधा का कारण 17 नवंबर को तिब्बत में आये भूकंप को बतासर था; किंतु असम सरकार के जलसंसाधन मंत्री केशव गोगोई द्वारा ब्रह्मपुत्र के पानी को ‘पीने लायक नहीं’ घोषित किए जाने के बाद केन्द्र ने जांच के लिए विशेषज्ञ दल भेजने की बात की है और विदेश मंत्रालय द्वारा इस मसले को चीनी पक्ष के समक्ष उठाने के संकेत दिए गये हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, इस स्थिति की वजह भारतीय हिस्से में हुई कोई कारगुजारी भी हो सकती है। मसले को लेकर वजह या कूटनीति चाहे  जो हो, हक़ीकत यही है कि ब्रह्मपुत्र को भारत आने से पूर्व ही चीनी भू-भाग की ओर से मोड़ लेने का ख्याल अपने आप में काफी चिंताजनक और खतरनाक है। इसकी अनदेखी अनुचित होगी।

 

क्यों अति महत्वपूर्ण ब्रह्मपुत्र ?

 

गौरतलब है कि ब्रह्मपुत्र का मूल स्त्रोत, तिब्बत के आंगसी ग्लेशियर में स्थित है। ब्रह्मपुत्र को इसके तिब्बती भू-भाग में ‘सांगपो’ के संबोधन से जाना जाता है।तिब्बत और भारत के हिस्से में कई प्रवाह ब्रह्मपुत्र से मिलते हैं। सियांग उनमें से एक है। प्रवाह की लंबाई के मामले में ब्रह्मपुत्र का विशाल प्रवाह भारत में 918 किलोमीटर और बांग्ला देश में  363 किलोमीटर की तुलना में यह प्रवाह तिब्बत में ज्यादा लंबाई (1625 किलोमीटर) तय करता है। एक विशाल और वेगवान प्रवाह होने के कारण ही ब्रह्मपुत्र  को नदी न कहकर, नद कहा जाता है। खासियत यह कि ब्रह्मपुत्र, चार हज़ार फीट की ऊंचाई पर बहने वाला दुनिया का एकमात्र प्रवाह है। जल की मात्रा के आधार पर देखें, तो भारत में सबसे बड़ा प्रवाह ही है। वेग की तीव्रता (19,800 क्युबिक मीटर प्रति सेकेण्ड) के आधार पर देखें, तो ब्रह्मपुत्र दुनिया का पांचवां सबसे शक्तिशाली जलप्रवाह है। बाढ़ की स्थिति में यह ब्रह्मपुत्र के वेग की तीव्रता एक लाख क्युबिक मीटर प्रति सेकेण्ड तक जाते देखा गया है। यह वेग की तीव्रता ही है कि ब्रह्मपुत्र एक ऐसे अनोखे प्रवाह के रूप में भी चिन्हित है, जो धारा के विपरीत ज्वार पैदा करने की शक्ति रखता है। ब्रह्मपुत्र की औसत गहराई 124 फीट और अधिकतम गहराई 380 फीट आंकी गई है। 2906 किलोमीटर लंबी यात्रा करने के कारण ब्रह्मपुत्र, दुनिया के सबसे लंबे प्रवाहों में से एक माना गया है। ब्रह्मपुत्र, जहां एक ओर दुनिया के सबसे बडे़ बसावटयुक्त नदद्वीप – माजुली की रचना करने का गौरव रखता है, वहीं एशिया के सबसे छोटे बसवाटयुक्त नदद्वीप उमानंद की रचना का गौरव भी ब्रह्मपुत्र के हिस्से में ही है। सुंदरबन, दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा क्षेत्र है। सच्ची बात यह है कि इतना बड़ा डेल्टा क्षेत्र निर्मित करना अकेले गंगा के बस का भी नहीं था। ब्रह्मपुत्र ने गंगा के साथ मिलकर सुंदरबन का निर्माण किया।

 

सांस्कृतिक महत्व

 

पूर्वोत्तर भारत के लिए ब्रह्मपुत्र का सांस्कृतिक महत्व भी कुछ कम नहीं। चरक संहिता के एक सूक्त पर गौर कीजिए :

 

रिमण्डलेर्मध्ये मेरुरुत्तम पर्वतः।
ततः सर्वः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।।
हिमालयाधरनोऽम ख्यातो लोकेषु पावकः।
अर्धयोजन विस्तारः पंच योजन मायतः।।

 

यह सूत्र, मेरु पर्वत स्थित आधा योजन यानी चार मील चौड़े और पांच योजन यानी चालीस मील लंबे क्षेत्र को आदिमानव की उत्पत्ति का क्षेत्र मानती है। महर्षि दयानंद रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के आठवें समुल्लास में सृष्टि की रचना ‘त्रिविष्टप’ यानी तिब्बत पर्वत बताया गया है। महाभारत कथा भी देविका नदी के पश्चिम मानसरोवर क्षेत्र को मानव जीवन की नर्सरी मानती है। इस क्षेत्र में देविका के अलावा ऐरावती, वितस्ता, विशाला आदि नदियों का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक, जिस समशीतोष्ण जलवायु को मानव उत्पत्ति का क्षेत्र मानते हैं, तिब्बत के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित मानसरोवर ऐसा ही क्षेत्र है। अभी तक मिले साक्ष्यों के आधार पर सृष्टि में मानव उत्पत्ति का मूल स्थान तिब्बत ही है। मान्यता है कि सृष्टि की रचना ब्रह्म ने की। इस नाते मानव, ब्रह्म का पुत्र ही तो हुआ। संभवतः इसी नाते हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने मानव उत्पत्ति के मूल स्थान से निकलने वाले प्रवाह का नाम ’ब्रह्मपुत्र’ रखा। वैसे कथानक यह है कि अमोघा ने जिस संतान को जन्म दिया, उसे ब्रह्मपुत्र कहा गया। दूसरे कथानक के अनुसार ऋषि शान्तनु आश्रम के निकट कुण्ड का नाम ब्रह्मकुण्ड था। उससे संबंध होने के कारण इसका नाम ब्रह्मपुत्र हुआ।

 

असलियत यह है  कि ब्रह्मपुत्र, पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति भी है, सभ्यता भी और अस्मिता भी। ब्रह्मपुत्र, पूर्वोत्तर भारत की लोकास्थाओं में भी है, लोकगीतों में भी और लोकगाथाओं में भी। ब्रह्मपुत्र, भूपेन दा का संगीत भी है और प्रकृति का स्वर प्रतिनिधि भी। पूर्वोत्तर की रमणियों का सौंदर्य भी ब्रह्मपुत्र में प्रतिबिम्बित होता है और आदिवासियों का प्रकृति प्रेम भी और गौरवनाद् भी। आस्थावानों के लिए ब्रह्मपुत्र, ब्रह्म का पुत्र भी है और बूढ़ा लुइत भी। लुइत यानी लोहित यानी रक्तिम। भारत में ब्रह्म के प्रति आस्था का प्रतीक मंदिर भी एकमेव है और  ब्रह्म का पुत्र कहाने वाला प्रवाह भी एकमेव। गंगा नदी, ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर ही सुंदरबन का निर्माण करती है।भौतिक विकास की धारा बहाने वालों की योजना में भी ब्रह्मपुत्र एक ज़रूरत की तरह विद्यमान है, चूंकि एक नद के रूप में ब्रह्मपुत्र एक भौतिकी भी है, भूगोल भी, जैविकी भी, रोज़गार भी, जीवन भी, आजीविका भी, संस्कृति और सभ्यता भी। ब्रह्मपुत्र का यात्रा मार्ग इसका जीता-जागता प्रमाण है।

 

क्यों उचित नहीं अनदेखी ?

 

कुल मिलाकर हम ब्रह्मपुत्र नद को पूर्वोत्तर भारत की एक ऐसा नियंता कह सकते हैं, जिसके बगैर पूर्वोत्तर भारत की समृद्धि की कल्पना का चित्र अधूरा ही रहने वाला है। अतः ब्रह्मपुत्र मूल पर चीन की अनैतिक हरकतों की अनदेखी एक ऐसी भूल होगी; जिसकी भरपाई पूवोत्तर भारत के लिए केन्द्र सरकार का भेजा समूचा बजट और योजनायें भी मिलकर न कर सकेंगी।

इस सावधानी की ज़रूरत इसलिए भी है, चूंकि पूर्व में की गई अपनी हरकतों की वजह से चीन भारत का एक ऐसा ताकतवर और षडयंत्रकारी पड़ोसी सिद्ध हो रहा है, जिस पर विश्वास करना भारत को हमेशा मंहगा पड़ा है। पंचशील समझौते के बावजूद आक्रमण, भारतीय सीमा में आये दिन घुसपैठ, अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताने का दावा, एक ओर प्रधानमंत्री श्री मोदी से गलबंहिया तो दूसरी ओर अंतराष्ट्रीय मंचों में भारतीय दावेदारी का विरोध, नेपाल को भारत की दोस्ती से दूर करने हेतु आर्थिक प्रलोभन, आतंकवादी संगठन जैस-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अज़हर को प्रतिबंधित करने हेतु संयुक्त राष्ट्र से लगाई भारतीय गुहार को कमजोर करने की चीनी कोशिश तथा सस्ते, किंतु घटिया गुणवत्ता वाले बिना ब्रांड वाले दैनिक उपयोग के सामानों से भारतीय बाज़ार को पाटकर भारत के छोटे कुटीर उद्योगों को मृतप्राय कर देने की चीनी कूटनीति इसकी मिसाल है।

 

गौर करने की बात है कि चीन की तमाम भारत विरोधी हरकतों के बावजूद, भारत की पूववर्ती केन्द्र सरकारों ने कभी खुलकर विरोध नहीं किया। तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय भारत में ज़रूर है; भारत में तिब्बतियों को पूरा संरक्षण और सम्मान भी सुलभ है, लेकिन भारत की किसी केन्द्र सरकार ने तिब्बतियों की एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग को किसी उचित अंतर्राष्ट्रीय फोरम पर आगे बढ़ाने का अधिकारिक प्रयास नहीं किया। यह सब स्थिति इस सच की जानकारी के बावजूद रही कि कांटा तो कांटे से ही निकलता है।

 

इधर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में सत्ता हासिल करने की भारतीय जनता पार्टी की सांगठनिक रणनीति और केन्द्र सरकार द्वारा पूर्वोत्तर के विकास में बजट व एक के बाद एक परियोजना झोंक देने की सोची-समझी नीति ने चीन को भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री व केन्द्रीय शासन की मंशा समझा दी है। अरुणाचल प्रदेश-तिब्बत सीमा के अंतिम नगर तवांग तक रेलवे लाइन, ब्रह्मपुत्र पर पुल, किनारे-किनारे लंबे राजमार्ग, दूरदर्शन के पूर्वोत्तर विशेष चैनल – अरुणप्रभा, सिंगापुर आदि के साथ भारत के सामरिक समझौताा, भारत द्वारा खुद की फौजी तैयारी तथाराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली तवांग तीर्थयात्रा और स्वदेशी जागरण मंच द्वारा चीनी सामानों की होली जलाकर विरोध दर्ज कराने जैसे बाड़बंदी कदमों देखते हुए चीन ने अपनी भारत विरोधी हरकतें तेज कर दी हैं। ऐसे में ब्रह्मपुत्र मूल में चीनी हरकत की अनदेखी, अपने चीन को उसकी हद में अनुशासित करने के भारतीय प्रयासों के प्रभाव को कमज़ोर करने जैसा आत्मघाती कदम साबित होगा। क्या यह उचित होगा ?

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