यौन शिक्षा पर समझ विकसित करने की जरूरत

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संदर्भः हरियाणा-पंजाब एवं चंडीगढ़ में अगले साल से यौन शिक्षा देने के हाईकोर्ट के निर्देश

प्रमोद भार्गव

हरियाणा, पंजाब और चंडीगढ़ के विद्यालयों में 2018-19 के शिक्षा सत्र से हरियाणा उच्च न्यायालय ने यौन शिक्षा का पाठ पढ़ाने के निर्देश दिए हैं। साथ ही न्यायालय ने दोनों राज्यों समेत चंडीगढ़ प्रशासन से कहा है  िक वे एक महीने के भीतर पाठशालाओं में दी जाने वाली यौन शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार करे और अगले शिक्षा सत्र से उसे पढ़ाने का प्रबंध करे। अदालत ने इस हेतु अच्छे शिक्षकों की पहचान करने और उन्हें यौन शिक्षा देने के तरीके का प्रशिक्षण देने का भी निर्देश दिया है। अदालत ने यह निर्देश हरियाणा की एक नाबालिग बच्ची के साथ हुए दुराचार के नतीजतन उसके गर्भवती होने की घटना को देखते हुए दिए हैं। अदालत का मानना है कि बालक-बालिकाएं इस शिक्षा के जरिए जागरूक होंगे तो ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा। हाईकोर्ट ने स्कूली बच्चियों की तय समय-सीमा में चिकित्सा परीक्षण कराए जाने के निर्देश भी दिए है। जिससे यदि किसी बच्ची के साथ कुछ गलत हुआ है तो उसका समय रहते पता चल जाए। हरियाणा सरकार हरियाणा सरकार पहले से ही यह शिक्षा दिए जाने की तैयारी में थी, इसलिए उसने अदालत को बताया कि वह यौन शिक्षा के प्रति गंभीर है और उसने 18 वर्ष तक की उम्र के लिए अलग-अलग आयु वर्ग के छात्र-छात्राओं के लिए पाठ्य सामग्री का प्रारुप तैयार कर लिया है।

देश में अर्से से विद्यालय स्तर पर यौन शिक्षा को लेकर जबरदस्त हो-हल्ला है। हो-हल्ला अथवा हल्ला बोल शब्दों का इस्तेमाल इसलिए किया, क्योंकि शालाओं में यौन शिक्षा दिए जाने के संदर्भ में न तो कोई नियोजित वैज्ञानिक नजरिया है, न ही कोई दूरदृष्टि है। और न ही नैतिकता के संदर्भ में किसी चिंतन की परवाह है। अर्थात् यौन शिक्षा के संदर्भ में जब तक भारतीय परिवेश में सामाजिक और नैतिक मूल्यों व मान्यताओं के अनुरूप यौन शिक्षा के स्वरूप और पद्धति निर्धारित नहीं हो जाते तब तक यौन शिक्षा को शालाओं में लागू करने के गैर जिम्मेदाराना दबाव को हल्ला बोल कहना ही औचित्यपूर्ण होगा। इस लिहाज से अदालत को जो पाठ्यक्रम हरियाणा सरकार ने तय किया है, उसका विषय विशेषज्ञों से गंभीर अध्ययन भी कराना होगा

 

हमारे यहां किशोरों को शिक्षा देने के बहाने अक्सर विदेशी शिक्षा व कार्यक्रमों की नकल को शिक्षा का आदर्श मान लिया जाता है। 20वीं सदी के अंतिम दशक में दिल्ली में जनसंख्या और यौन शिक्षा संबंधी विषयों से संबंधित एक एशियाई देशों का सम्मेलन हुआ था, जिसमें यौन शिक्षा पाठशालाओं में लागू करने के लिए जबरदस्त वातावरण बनाया गया। दावा किया गया कि बालक-बालिकाओं में आज जितना भी अंधविश्वास और अज्ञान है, उसका कारण यौन शिक्षा नहीं देना है। इसके बाद काहिरा में जनसंख्या व विकास विषय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। भारत के राज्यों के शिक्षा मंत्रियों ने इसमें भागीदारी की थी। इसमें गर्भपात, विवाह पूर्व संतानोंत्पत्ति के अधिकार जैसे विवादास्पद मुद्दों पर चर्चा हुई थी। इसके बाद ‘किशोर वय शिक्षा कार्यक्रम 2005‘ में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने शुरू किया। लेकिन इसे लागू करने अथवा न करने की छूट राज्य सरकारों को दे दी गई। ज्यादातर सरकारों ने इस पाठयक्रम को नकार दिया। विडंबना यह भी रही कि जिन राज्य सरकारों ने इस कार्यक्रम को शुरू किया, उन्होंने छठी कक्षा से ही मानव शरीर और उसकी प्रक्रियाओं की शुरूआती जानकारी देना शुरू कर दी। जबकि यह पाठ्यक्रम कक्षा 12 से शुरू होना था। इसके तहत यौन शिक्षा, नशीले पदार्थों के दुष्प्रभाव, एड्स के खतरे आदि की शिक्षा दी जानी थी। अलबत्ता सार्वजनिक जीवन में यौन चर्चा की वर्जनाओं के चलते इसका विरोध हुआ और यह पढ़ाई ठप हो गई।

यौन शिक्षा के नाम से इसे पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के मायने इस बात के द्योतक हैं कि शुरूआत से ही इस शिक्षा को लागू करने के लिए मनोवैज्ञानिक समझ से काम नहीं लिया गया। नतीजतन सांस्कृतिक चिंतन देने और परिवार ही संस्कार की पाठशाला मानने वाले देश में यौन शिक्षा केवल सुरक्षित यौनाचार की तरकीबों की जानकारी भर नहीं होना चाहिए ? यदि पाठ्यक्रमों के निर्माता थोड़ी सूझबूझ से काम लें तो यौन शिक्षा को शरीर विज्ञान और स्वास्थ्य रक्षा विषयक जैसे नाम दिए जा सकते हैं ?

यौन शिक्षा के साथ नैतिकता और शिष्टाचार के संदर्भ जोड़े जाने नितांत अनिवार्य हैं। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति, पाश्चात्य मूल्य और सोशल मीडिया, ने घरों में जब से पैठ बनाकर अश्लीलता, हिंसा, अपसंस्कृति और अनैतिकता के दुष्प्रभाव छोड़ना शुरू किए हैं, तब से जबरदस्त तरीके से सांस्कृतिक मूल्यों के हृास के साथ नैतिकता का पतन हुआ है। इस तरह जो दूषित वातावरण निर्मित हुआ, उसके चलते ही कम आयु के लड़कों द्वारा नाबालिग लड़कियों के साथ यौनिक अत्याचार अथवा बलात्कार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। हालांकि इस तरह के अपराधी पेशेवर नहीं होते। वे मानसिक व शारीरिक रूप से कमजोर व विकृत होते हैं और इस मानसिक विकृति के विकार की जड़ में इंटरनेट द्वारा सामाजिक मूल्यों को धता बताकर परोसे जा रहे ऐसे कार्यक्रम हैं, जिनमें सेक्स और नाजायज संबंधों के मूल्यों को स्थापित कर थोपा जा रहा है। ये अश्लील विज्ञापन और कार्यक्रम ही स्कूली बच्चों के दिमाग पर बुरा असर डाल रहे हैं।

यौन शिक्षा को मौजूदा स्वरूप में विद्यालय स्तर पर लागू करना इन्हीं विकारों को विस्तार देना है। क्योंकि बच्चों को जब जननांगों के स्वरूप और उनकी क्रियाओं के बारे में बताया व समझाया जाएगा तो क्या बालमनों में कामभावनाओं की कामजनित जुगुप्सा जागृत नहीं होगी ? और यदि होगी तो क्या वे बतौर प्रयोग शारीरिक मिलन के लिए उत्कट नहीं होंगे ? यौन शिक्षा वाले स्कूलों में यदि शिक्षा का यह कुरूप सिलसिला चल निकला तो नाबालिगों के बीच बलात्कार अथवा यौनाचार की संख्या बढ़ेगी ही, अविवाहित मातृत्व की समस्या भी पाश्चात्य देशों की तरह विकराल रूप धारण कर लेगी। समाज और परिवार के लिये ऐसे प्रकरण शर्मनाक होंगे, लिहाजा तय है कि यौन अपराधों में भी बेतहाशा इजाफा होगा, जिस पर बाद में अंकुश लगाना नामुमकिन होगा। दुनिया के जिन देशों में भी यौन शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल रही है वे न तो खजुराहों जैसे काम-कला के श्रेष्ठ मंदिर दे पाए ?  और न ही  वात्स्यायन द्वारा लिखित ‘कामसूत्र’ जैसा काम-विषयक अनूठा ग्रंथ दे पाए ? दरअसल हमारी ये प्राचीन धरोहरें नग्नता और अश्लीलता के प्रतीक न होकर सृष्टि-सृजन के ज्ञान-स्त्रोत हैं।

प्रछन्न रूप से यौन शिक्षा बाजारवाद का हिस्सा है। दरअसल, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आमद के साथ दवाओं के लिए खुले बाजार के जो कानून बने हैं और जिस तेजी से कामवद्र्वक दवाएं व यौन सुरक्षा संबंधी वस्तुओं की आमद बढ़ी है, उससे लगता है देश में यौनाचार को बढ़ावा देने के लिये ये कंपनियां यौन शिक्षा को एक बहाना बना रही हैं। इन कंपनियों का खास मकसद तो अपने उत्पाद खपाने के लिये उपभोक्ता तैयार करना है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मंशा के संबंध में यहां एक सटीक लेकिन नितांत बेहूदा उदाहरण देना जरूरी है। कुछ समय पहले अखबारों में एक समाचार छपा था कि बिहार के धनवाद के एक कन्या हायर सेकेण्ड्री स्कूल में, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने पहले तो यौन शिक्षा पर एक फिल्म दिखाई, फिर प्रचार के लिये अपने उत्पाद के रूप ‘नेपकिन’ मुफ्त में भेंट किये। कल ऐसी ही कोई कंपनी किसी स्कूल में जाकर यौन शिक्षा के बहाने एड्स की रोकथाम पर फिल्म दिखाए और फिर बालकों को मुफ्त में निरोध के पैकेट बांटे तो आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वर्तमान में यौन शिक्षा लाभ का साधन और साध्य बनने वाली है।

चूंकि मेरी राय में यौन शिक्षा या यौन जागरूकता एक सार्वजनिक मुद्दा न होकर नितांत व्यक्तिगत मामला है, जो बच्चों की प्रकृति, मानसिकता और स्वास्थ्य के अनुरूप अलग-अलग उम्र में स्वयं काम भावनाओं को जगाता है। अब जरूरत है कि ये भावनाएं उम्र के तकाजे के चलते दूषित वातावरण से प्रभावित न हों तो इन्हें जागरूक बनाने का पहला दायित्व परिवार में माता-पिता, बड़े भाई-बहनों या दोस्तों को ही संभालना  चाहिए। इसके साथ ही पर सोशल मीडिया पर जो अश्लील और भड़काउ चित्रों तथा बातचीत को सर्वसुलभ बनाया जा रहा है, उस पर भी पाबंदी लगाने की जरूरत है।

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