जातीय गरिमा से मुठभेड़ की जरुरत

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संदर्भ:- 14 अप्रैल डा भीमराव आंबेडकर की जयंती के अवसर पर-

प्रमोद भार्गव

सामाजिक अन्याय व असमानता की शुरूआत जाति आधाdr-ambedkar_रित सामाजिक व्यवस्था से आरंभ हुर्इ। यही कारण है कि भारतीय जन-जीवन में जाति-व्यवस्था की शिकार दलित जातियों को प्रताड़ना, अवमानना और शोषण का सदियों दंश झेलना पड़ा। दुनिया के मानव सभ्यता के इतिहास में यह एक ऐसा कलंक है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसीलिए डा भीमराव आंबेडकर ने साफ शब्दों में कहा था कि ‘सामाजिक न्याय जातिविहीन सामाजिक संरचना से ही संभव है। लेकिन आज पूरे देश में जातीय गरिमा को उकसाया जाकर उसे मजबूत करने के उपक्रम चल रहे हैं। राजनेता जातीय चेतना उभारकर जातीय दंभ को महिमामंडित करने का काम कर रहे हैं। ऐसे में संविधान निर्माता के साथ-साथ समाज निर्माण के अग्रदूत डा आंबेडकर के साझा विरासत और सामूहिक जीवन शैली के वैचारिक सूत्रों को अमल में लाना सामाजिक समरसता के लिए बेहद जरुरी है।

आंबेडकर हिंदू समाज की वर्ण अथवा जाति व्यवस्था से बेहद पीडि़त थे। इतने पीडि़त थे कि वे हिंदुओं के जातीय गौरव की कमजोरियों पर प्रहार करते हुए, उन्हें चुनौती देते हुए ललकारते भी हैं, ‘एक पक्का हिंदू उस चूहे के समान है, जो अपने बिल को ही संसार मानकर, उसमें ही मस्त रहता है और दूसरों से कोर्इ संपर्क नहीं रखता। समाजशास्त्री जिसे परिवेश के प्रति जागरण कहते हैं, उसका हिंदुओं में घनघोर अभाव होता है। उनमें एक ही चेतना होती है और वह है जाति की चेतना। इसी वजह से कहते हैं कि हिंदू किसी समाज या देश की रचना नहीं कर सकते। जब हिंदू समाज जातीय कूपमंडूकता और धार्मिक पाखण्ड की गिरफत में आ गया तो उसकी अखण्डता और संप्रभुता दोनों पर ही कुठाराघात हुए। भारत से पाकिस्तान और बांग्लादेश 65 साल पहले ही अलग हुए हैं। कश्मीर में अलगाव का राग पुख्ता हो रहा है। वहां, संप्रदाय के आधार पर जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ कर हिंदु जातियों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति का विस्तार असम में आकार ले रहा है। वहां भी बांग्लादेशी घुसपैठियों ने जनसंख्यात्मक संतुलन ध्वस्त करके अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू कर दिया है। बीते साल असम में हुए दंगों का यही असंतुलन, सांप्रदायिक कटुता का आधार बना था।

लेकिन आंबेडकर अपनी बात इकतरफा नहीं करते। वे उन विसंगतियों और कूरीतियों की भी पड़ताल करते हैं, जिनके चलते जातीयता के परिप्रेक्ष्य में में उच्च जातीय समूहों की उदारता कम हुर्इ। वे कहते हैं, ‘हिंदू धर्म मिशनरी भावना वाला धर्म था या नहीं, यह तो विवादास्पद मुददा है। मैं मानता हूं कि कभी तो हिंदू धर्म में मिशनरी भावना जरुर रही होगी, अन्यथा इसका इतना व्यापक प्रभाव और प्रसार संभव नहीं था। अब सवाल उठता है कि हिंदू धर्म क्यों अपनी मिशनरी भावना खो बैठा ? मेरा जवाब है कि हिंदू धर्म ने तबसे मिशनरी भावना खो दी, जब से इसमें जाति प्रथा का उदय हुआ। ‘कालांतर में इस जातीय चक्रव्यूह ने एक ऐसा वतर्ुलाकार लिया, जिसका अंत फिलहाल दिखार्इ नहीं देता है। क्योंकि व्यूह एक सीधी रेखा में होता तो इसके समानांतर एक बड़ी रेखा खीचीं जा सकती है, लेकिन वतर्ुलाकार होने के कारण इसे भेदा जाना नामुमकिन बना हुआ है।

लेकिन सवाल उठता है कि जाति प्रथा का उदय कब हुआ और किन कारणों से हुआ ? वह भी मैला ढोने और मरे पशुओं के चर्म व्यापार से जुड़ी जाति व्यवस्था का ? मनुष्यता को अस्पृष्य या अछूत बना देने की शुरूआत इन्हीं कामों में लगे लोगों से हुर्इ। एक मत के अनुसार इसकी शुरूआत शुद्रो के उस वर्ग द्वारा हुर्इ, जो वर्तमान राजशाही व्यवस्था का विद्रोही था और समाज में सम्मानजनक भागीदारी के अधिकार की पुरजोरी से मांग कर रहा था। आर्य इस विरोध से खिन्न हुए और उन्होंने दण्ड स्वरुप इन विद्रेहियों से मानव मल साफ करने का सिलसिला शुरू कराया। दूसरा मत यह भी  है कि विजयी राजा जिन सैनिकों को बंदी बनाते थे, उन्हें अपमानित करने की दृष्टि से मैला साफ कराने का काम कराने लग गए। एक अन्य मत के अनुसार इसकी शुरूआत मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आगमन के साथ हुर्इ। मुगलवंश के शानशाहों की अनेक रानियां हुआ करती थीं। कर्इ राजपूत रानियों को उन्होंने जबरन अपने रनिवास में रखा। ऐसे में इन बादशाहों को इनके भागने की आशंका बनी रहती थी। इसलिए इन्हें शौच के लिए बाहर नहीं जाने दिया जाता था। इसीलिए किलों ओर महलों के रनिवासों व हरमों में शौचालय बनाए गए और इनमें मल-मूत्र सफार्इ के लिए पराजित युद्धबंदियों को लगाया गया। इन युद्धबंदियों में ज्यादातर राजपूत, क्षत्रिय और ब्राहमण थे।

इस शंका को डा आंबेडकर अपनी पुस्तक ‘हू वेअर शूद्राज में भी रेखांकित करते हैं। वे लिखते हैं, मुझे वर्तमान शूद्रों के वैदिककालीन शूद्रा वर्ण से संबंधित होने की अवधारणा पर संदेह है। वे आगे लिखते हैं, ‘वर्तमान दलित शूद्र वर्ण से नहीं हैं, अपितु उनका संबंध राजपूतों और क्षत्रियों से है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि भारत की लगभग सभी दलित जातियां, उपजातियां अपनी उत्पतित के स्त्रोत राजवंशियों, क्षत्रियों एवं राजपूतों में तलाशती हैं। बाल्मीकियों पर किए गए शोधों से पता चला है कि अब तक प्राप्त 624 उपजातियों को विभाजित करके जो 27 समूह बनाए गए हैं, इनमें दो ब्राह्मणो , रहम्णों के और शेष 25 क्षत्रियों के हैं। खटीक, पासी, चमार, महार, खंगार, पारथि, अगरिया इत्यादि जातियां दलित श्रेणी में होना अपना दुर्भाग्य मानती हैं। हालांकि सरकारी नौकरियों और लोकसभा, विधानसभा तथा पंचायती राज प्रणाली में आरक्षण की सुविधा मिल जाने से अब ये इस दुर्भाग्य के अभिशाप से मुक्त होना भी नहीं चाहतीं। लेकिन इस सुविधा की प्राप्ती के बावजूद सामाजिक भेदभाव की मानसिकता नहीं बदली है और जातिगत भेद समाज में बदस्तूर है।

हांलाकि यहां यह तथ्य भी गौरतलब है कि भारतीय समाज ने दलितों और आदिवासियों को आरक्षण की सुविधा बरकरार रखना कमोबेश स्वीकार लिया था, किंतु अपनी सत्ता की सुरक्षा के लिए वीपी सिंह ने जिस जल्दबाजी में पिछड़ी जातियों के आरक्षण से जुड़ी मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को संवैधानिक दर्जा दिया, तब से जातिवाद एक नए शकित-पुंज के रुप में उभरा। यह इतनी मजबूत संकीर्णता से उभरा कि इसने जाति-व्यवस्था विरोधी समूचे सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों की समरसतावादी चेतना पर पानी फेर दिया। नतीजतन संसदीय लोकतंत्र जातीय लोकतंत्र में बदलता जा रहा है। आज ज्यादातर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का आधार जातियता है। यही वजह है कि जातिगत दलों का वजूद भारतीय लोकतंत्र में बढ़ रहा है। यह स्थिति खतरनाक तो है ही संविधान की भावना सामाजिक न्याय के विरुद्ध भी है।

इसीलिए डा आंबेडकर ने सिखों और मुसलमानों में जो सामूहिक जीवन-शैली है, उसे अपनाने की सलाह हिंदुओं को दी थी। जिससे समानता, एकजुटता और जातिविहीनता समाज का वैकलिपक दृष्टिकोण देश के सामने आ सके। दलितों और वंचितों को संविधान के प्रजातांत्रिक मूल्यों से जोड़ने का यह एक कारगर उपाय था। लेकिन दुर्भाग्य से देश में जाति प्रथा की जड़े और उससे घृणा की हद तक जुड़ी कड़वड़ाहटें इतनी गहरी हैं कि तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद उनसे छुटकारा असंभव बना हुआ है। अब तो कोर्इ राजनीतिक दल इन कुरीतियों और विकृतियों से मुठभेड़ भी करता दिखार्इ नहीं देता। यहां तक की मायावती जातीय सत्ता हथियाने की बात तो करती हैं, लेकिन जातियता के बूते उछूत बना दिए गए लोगों के अछूतोद्धार की बात नहीं करतीं। सामाजिक न्याय और समरसता की बात नहीं करतीं। ऐसे में ब्राहम्ण, क्षत्रीय और पिछड़े जातीय सत्ता की बात करने लग गये, तो इसे एकाएक गलत कहना मुशिकल है ?

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