न्यायपालिका के सामाजिक आधार में विस्तार की जरूरत

-देवेन्द्र कुमार- court
भारत की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका को सामाजिक परिवर्तन के एक हथियार के रूप में देखा जाता रहा है और न्यायपालिका ने अपने कई महत्वपूर्ण फैसले के द्वारा सामाज को एक नई दिशा देने की कोशिश भी की है। बाबजूद इसके, न्यायपालिका का जो सामाजिक गठन रहा है, सामाज के जिस हिस्से, तबके और वर्ग से न्यायाधीश आते रहे हैं, उसका प्रभाव उन पर रहता है, या कहें की रह सकता है। किसी भी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे पर निर्णय करते वक्त वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता की तमाम कोशिशों के बावजूद न्यायाधीशों का अपने सामाजिक-सांस्कृतिक आधार से प्रभावित होना, रहना बिल्कुल सहज-स्वाभाविक है।
लगभग सौ वर्ष पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने कहा था कि आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर न्यायालयों का निर्णय जजों के सामाजिक-आर्थिक तत्व ज्ञान पर निर्भर करता है और भारत के संदर्भ में भी यह काफी हद तक सच है। समाज में चल रहे सामाजिक संधर्ष से उत्पन्न कड़वाहट के कारण न्यायाधीश अपने निर्णय में उस संधर्ष के अच्छे-बुरे पहलुओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। इसलिए कि जो व्यक्ति जिस सामाजिक परिवेश से आता है, जाने-अनजाने उस समाज की रुचि-अरुचि, अंघविश्वास एवं पूर्वाग्रह से उसका समस्त जीवन प्रभावित होता रहता है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएम भगवती ने भी स्वीकारा था कि चूंकि न्यायधीश संपन्न समाज- वकीलों में से ही आते रहे हैं, इसलिए अनजाने में ही वे कई पूर्वाग्रह पाले रहते हैं। अभी तक न्यायपालिका के सदस्यों को समाज के उस वर्ग से लिया जाता रहा है जो प्राचीन अंधविश्वासों एवं मान्यताओं से प्रभावित जीवन में अनुक्रम की अवधारणा से ओत-प्रोत है। अतः यह धारणा सवर्था गलत नहीं है कि न्यायाधीशों का वर्गहित उनके निर्णयों में उस बौद्धिक ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को रहने नहीं देता जो कि न्याय का तकाजा है।
न्यायाधीषों को शासित वर्ग की जीवनशैली, उनके दुख-सुख, पीड़ा-त्रासदी के बारे में बहुत कम जानकारी रहती है। शासित वर्ग की मर्यादा और प्रगति के संवर्द्धन-परिवर्द्धन के लिए बनाये गये ठोस उपायों के प्रति अमूमन उनकी सहानुभूति नहीं होती है। जबकि इस वर्ग की दुख-तकलीफ, पीड़ा-त्रासदी को समझने के लिए आज सहानुभूति से अधिक सम-अनुभूति की जरूरत है और सच यह है कि न्याय की देवी अपनी आंखें पर परंपराओं की पट्टी बांधे हुए हैं। जो उसे शासित वर्ग की वास्तविक समस्याओं से रु-ब-रु नहीं होने दे रहा है। हमारे समाज का जो हिस्सा समाज से बहिष्कृत है, शासन की परीधी से बाहर है, अपवादों को छोड़कर, आज भी न्याय पाना उसके लिए आसमान से तारे तोड़ेने के समान है।
न्यायपालिका की बनावट कुछ एेसी होनी चाहिए कि वह राष्टीय जीवन की समस्त सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं को प्रदर्शित कर सके और इसी को दृष्टिगत रखकर पूर्व राष्ट्रपति केआर. नारायणन ने कहा था कि न्यायपालिका में सभी बड़े क्षेत्रों और समाज के सभी वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। एेसा कहकर दरअसल केआर नारायाणन ने संविधान की प्रस्तावना में निहित सामाजिक तत्व ज्ञान का दोहराया भर था जिसके प्रति अपनी वचनबद्धता निरन्तर दोहराते रहने के बावजूद विभिन्न राजनीतिक दल और सरकार कार्यक्रम में लगातार उसकी उपेक्षा करते हैं। दुर्भाग्यवश राष्ट्रपति के रूप में श्री नारायणन की सक्रियता का हौवा खड़ा किया गया। इसे न्यायपालिका के मंडलीकरण की कोशिश भी कहा गया। केआर नारायणन की इस प्रयासों को दलित-पिछड़ा एवं वंचित तबकों को न्याय दिलाने की एक ईमानदार कोशिश के रूप में चिन्हित नहीं किया गया।
इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि हमारी न्याय व्यवस्था समाज के वंचित एवं शोसित तबकों के बीच अपनी साख लगातार खोती जा रही है और इस साख को बचाने का एक मात्र उपाय न्यायपालिका में इन तबकों की भागीदारी को सुनिश्चित करना हो सकता है। दलित-पिछड़ों की आबादी समपूर्ण राष्ट्र का 75 फीसदी है। बावजूद इसके न्यायपालिका में इनका प्रर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होगा तो क्या 10 फीसदी वाली आभिजात्य आबादी को राष्ट्र का सच्चा प्रतिनिधि माना जायेगा।
बार-बार योग्यता का सवाल खड़ा कर यह बताने की कोशिश की जाती है कि शोसित-वंचित जातियों में इसका अभाव है, पर क्या यह तथाकथित उच्च और प्रखर योग्यता हजारों बरसों से सामाजिक-आर्थिक और शैक्षशणिक अवसरों के एकाधिकारवादी दोहन-उपयोग का प्रतिफल नहीं है। फिर यहां सवाल योग्यता का नहीं होकर सहभागी लोकतंत्र की उस संकल्पना को पूरा करने का है, जिसकी बुनियादी शर्त सत्ता के सभी संस्थानों में सभी की सम्पूर्ण भागीदारी है।
अब तक न्यायाधीशों के चयन एवं उनकी नियुक्ति में क्षेत्रीय और धार्मिक पृष्ठभूमि की ओर ध्यान दिया जाता रहा है ताकि इसे प्रतिनिधित्व पूर्ण होने का रूप दिया जा सके। पर सामाजिक पृष्ठभूमि की उपेक्षा कर दी जाती है, इसे कभी विचारणीय मुद्दा नहीं नहीं बनाया जाता।
अब जरूरत इस बात की है कि न्यायपालिका में सभी सामाजिक समूहों को समान प्रतिनिधित्व देकर इसकी गिरती साख को और गिरने से रोका जाय। हमारे संविधान में भी सभी सामाजिक समूहों को प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई है,
एेसा लगता है कि हमने न्यायपालिका की स्वायत्तता के नाम पर एक राज्य सत्ता के अन्दर दूसरी राज्य सत्ता का सृजन कर दिया है जो हमारी संविधान की आत्मा के विपरीत है। अब यह संसद की जिम्मेदारी है कि एक ज्यूडिशियल एक्ट बनाकर न्यायपालिका में दलित-पिछड़ों की भागीदारी को सुनिश्चित करे। एेसा कर के ही न्यायपालिका के सामाजिक आधार को सुसंगत बनाया जा सकता है।

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