कंडोम के उचित उपयोग ढ़ूँढने की जरूरत

condom_1आज से सात साल पहले वाराणसी के एक पत्रकार श्री राजीव दीक्षित के एक खोजपूर्ण रिर्पोट को लेकर जमकर बावेला मचा। उक्त रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया था कि परिवार नियोजन कार्यक्रम को सफल बनाने के गरज से मुफ्त में बाटाँ जानेवाला कंडोम दम्पतियों के बेडरूम में जाने के बजाय साड़ी बुनकरों के करघों की भेंट चढ़ता है। रिर्पोट के अनुसार वाराणसी के बुनकर साड़ी में प्रयुक्त होनेवाले सोने और चाँदी के महीन तारों में चमक पैदा करने के लिए कंडोम की चिकनाहट का उपयोग करते हैं। इस काम में वे तकरीबन पचास हजार कंडोम रोज खर्च करते हैं। बुनकरों ने यह भी बताया कि करघों को सुचारू रूप से चलाने में भी कंडोम की चिकनाहट (जो एक द्रव विशेष की वजह से होती है) बड़ी कारगर होती है। इतनी भारी संख्या में कंडोम हासिल करने के लिए बुनकरों को जनसंख्या नियंत्रण और एड्स उन्मूलन में सक्रिय सरकारी व गैर सरकारी एंजेंसियों पर निर्भर होना पड़ता है। रिर्पोट में इस बात की चर्चा है।

मगर कंडोम की ऐसी उपयोगिता सुनकर सरकार की खुलती पोल पट्टी पर पूर्ण विराम लगाया जाना उचित नहीं। बल्कि देश के सुदूरवर्ती गाँवों और पहाड़ी इलाकों में परिवार नियोजन के इस ‘सस्ते सुविधापूर्ण सुरक्षित व सहज साधन की जितनी उपयोगिता है, वह हमे अचंभित ही नहीं करती बल्कि उन बौद्धिकजनों के लिए धन्यवाद के शब्द भी पर्याप्त नहीं लगते जो कंडोम को बहुपयोगी बनाते हैं।

गाँवों-देहातों में अक्सर देखा जाता है कि बच्चे सफेद बैलून से खेल रहे होते हैं। ये वैसे कंडोम हैं जिन्हें ये शरारती बच्चे ब्लॉक ऑफिस में धूल चाट रहे पैकेटों से लूट लाते हैं। लावारिश हालत में पडे निरोध यदि बच्चों के खेलने के काम आते है तो लड़कों के लिए जवान हो रही बालाओं के साथ छेड़ छाड़ और होली के हुड़दंग में भाभियों – सालियों से हंसी ठिठोली के साधन बन जाते हैं। गाँवों में कंडोम ज्यादातर इन्हीं कामों में खर्च होते हैं। इन दिनों इसकी उपयोगिता अपने देश में भयंकर रूप से बढ़ती जा रही है। विशेषकर जब से मजबूत सड़कों और जल रिसाव से मुक्त मकान के छतों के निर्माण में ठेकेदार लाखों की संख्या में कंडोम खरीदने लगे हैं। यह बात तो बहुत पुरानी हो चुकी है कि म0 प्र0 के धार और झाबुआ जैसे इलाकों में ग्रामीण खेतों में शौच जाते वक्त मुफ्त में मिले कंडोम में पानी भरकर ले जाते हैं। गरीबी की मार में बेचारों की बर्तन खरीदने की औकात भले ही न हो पर समस्या से उबरना तो उन्हें आता ही है। इससे सस्ता और सुविधापूर्ण उपाय और क्या हो सकता है?

उड़ीसा के क्योंझर और झारखंड के हजारीबाग जिलों में इन दिनों चिकनी और मजबूत सड़क बनाने का राज अब समझ में आ रहा है। यहाँ के ठेकेदार भी वाराणसी के बुनकरों के माफिक लाखों कंडोम खरीदते हैं। वे इसे अलकतरे और पत्थरों के टुकड़ों के साथ मिलाकर सड़क बनाते हैं। उनका कहना है कि इस मिश्रण से सड़कें मजबूत और चिकनी होती हैं और उनमें दरारें भी नहीं पड़तीं।

उधर भवन निर्माता भी कम नहीं–बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभानअल्लाह। छतीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बहुमंजिली इमारतें खूब बन रही हैं। ठेकेदार खम ठोककर जल रिसाव से मुक्त मकान इमारतें बना रहे हैं। इसके लिए वे छत ढालते वक्त कंडोम का पूरा बिछावन बना डालते हैं, जो जल रिसाव नहीं होने देता। ठेकेदार इस नायाब तकनीक को जन जन तक प्रचारित कर रहे हैं जिसे वे कहीं और से सीख कर व्यवहार में ला रहे हैं। उड़ीसा, म0 प्र0 और छतीसगढ़ के ठेकेदारों का मानना है कि भूख से या अन्य किन्हीं कारणों से मरने को छोड़ चुके आदिवासियों को कंडोम बाँटना सरकार की मूर्खता है। इसलिए वे इनका प्रयोग राष्ट्र निर्माण में कर रहे हैं। ऐसे उपयोगों से प्रेरणा पाकर ही भारतीय सेना भी तोपों बंदूकों के बैरल के मुँह ढँकने में कंडोम उपयोग में ला रही है।

अब चिंता की बात यह नहीं कि जनसंख्या नियंत्रण क्यों कर सफल नहीं हो पा रहा है? क्योंकि आज देश के सामने कुछ ही विकल्प हैं, चमकदार रेशमी बनारसी साड़ियाँ- जल रिसाव से मुक्त छतें-चिकनी-रपटीली – दरारहीन सड़कें या जनसंख्या नियंत्रण। जनसंख्या नियंत्रण के और भी विकल्प हैं, उपाय हैं। निरोध कंडोम का उपयोग तो बुनकर ठेकेदार करेंगें ही। लखनऊ के किंग जॉर्ज हॉस्पीटल की एक रिर्पोट के अनुसार हर साल देश में 1.5 करोड़ उत्पादित कंडोम का चौथाई हिस्सा ही सही उपयोग में लाया जाता है। तो शेष? इस सवाल के जवाब के लिए सरकार को टॉस्क फोर्स बनाने की जरूरत पड़ सकती है जो कंडोम को बुनकरों ठेकेदारों तोपों के बैरल्स के बजाय उनके उचित उपयोग के उपाय ढ़ूँढ़ सकती है।

-अमरेंद्र किशोर

6 COMMENTS

  1. आज जाना कि कंडोम का इस तरह और इतने बड़े पैमाने पर दुरूपयोग भी होता है . आगे भी ऐसी जानकारियां देते रहें

  2. बहुत पहले बच्चों की विज्ञान पत्रिका में पढ़ा था कि रबर के दूध को मिला कर ऐसफॉल्ट डालने से सड़क मजबूत बनती है। CSIR ने दक्षिण भारत में प्रायोजित कर कुछ किलोमीटर सड़क भी बनवाई थी लेकिन जैसा होता है – सरकारी अनुसन्धान फाइलों में ही पड़ा रहा। अब जनता ने कण्डोम के रूप में उस शोध का आविष्कार कर लिया है।
    आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें नींद से जागें और कुछ कर दिखाएँ। जनता तो ऐसे जुगाड़ लगाती ही रहेगी।

  3. हर बात के लिए सरकार को कोसना गलत है. गलत उपयोग जनता कर रही है, जहाँ करना चाहिए नहीं कर रही और मुफ्त के माल का दोहन कर रही है और दोष सरकार को! कण्डोम उपलब्ध है तभी उपयोग हो रहा है. कहाँ करना है यह जनता देखे.

  4. अमरेन्द्र किशोर जी
    नमस्कार !
    आपके इस आलेख की जितनी तारीफ की जाये उतनी ही शायद कम हो. क्यूंकि आज कल के इस व्यस्त जीवन में हम केवल टी.वी और समाचार पत्रों के माध्यम से ही सरकार के द्वारा चलाई जाने वाली नीतियों और रणनीतियों के बारे में जान पाते है किन्तु आप जैसे लोगो के आलेखों में छुपे तथ्यों से हम ये जान पाते है की सरकार द्वारा चलाई गई उन नीतियों का लोगो पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ता है . और उन्हें वो किस तरह से अपने जीवन में प्रयोग में लेता है!

    परिवार नियोजन के लिए जितनी ही योजनाये और कदम उठाये जाये वो कम ही है किन्तु यदि उनका सही तरीके से पालन ना हो तो वो चमकदार रेशमी बनारसी साड़ियाँ- जल रिसाव से मुक्त छतें-चिकनी-रपटीली – दरारहीन सड़कें बनाने में ही होता है !

    आपके इस आलेख को ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े जिससे उनमें जागरूकता का भावः उत्पन होने के साथ ये भी पता चले की सरकार अपनी नीतियों की घोषणा और लागु तो कर देती है किन्तु उसके बाद आँख मूंद कर व्यस्त से व्यस्त दिखने का ढोंग करती है. और चुनाव आने पर अपनी इन्ही नीतियों की दुहाई दे दे कर वोट बटोरती है

    – आरती शर्मा

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