महाराजा हरि सिंह की जीत को नेहरु ने पराजय में बदल दिया

जम्मू कश्मीर के चुनाव सिर पर हैं तो ज़ाहिर है राज्य में महाराजा हरि सिंह की चर्चा होगी ही । लेकिन इस बार प्रदेश में नेहरु की भूमिका को लेकर भी बहस शुरु हो गई है । जम्मू कश्मीर की वर्तमान हालत के लिये ज़िम्मेदार कौन है ? नेहरु या महाराजा हरि सिंह ? जब बहस शुरु हो ही गई है तो जरुरी है कि नीर क्षीर न्याय हो ।

ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि महाराजा हरि सिंह को 1947 में रियासत पर संभावित कबाइली आक्रमण की पूर्व सूचना नहीं थी । वे जानते थे कि पाकिस्तान रियासत को हथियाने के लिये बल प्रयोग कर सकता है । जम्मू कश्मीर के उस समय के राजनैतिक वातावरण को देख कर कोई भी चतुर राजनीतिज्ञ सहज ही अन्दाज़ा लगा सकता था कि नेहरु किसी भी हालत में रियासत को देश की नई सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने नहीं देंगे क्योंकि उनकी एक ही शर्त थी कि महाराजा अपना सिंहासन त्याग कर उस पर उनके मित्र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को बिठा दें । महाराजा के लिये इस शर्त को मानना संभव ही नहीं था । इसका कारण केवल यही नहीं था कि शेख़ अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ डोगरो कश्मीर छोड़ो का आन्दोलन छेड़ा था । उसका एक दूसरा प्रमुख कारण भी था । शेख़ अब्दुल्ला का जनाधार सारी रियासत में नहीं था , बल्कि रियासत के पाँच संभागों में से एक संभाग कश्मीर घाटी की जनसंख्या के एक हिस्से तक ही सीमित था । गिलगित-बल्तीस्तान में शिया समाज का बहुमत था जिनका शेख़ की नैशनल कान्फ्रेंस से कोई भी ताल्लुक़ नहीं था । वैसे भी शिया समाज , मुसलमानों द्वारा सताया हुआ समाज था और शेख़ मुसलमानों के समर्थक थे । इसी प्रकार जम्मू संभाग और लद्दाख संभाग में भी शेख़ की पकड़ नहीं थी । इस स्थिति में यदि महाराजा प्रशासन का व्यापक लोकतंत्रीकरण करना भी चाहते तो उसका तरीक़ा बिना चुनाव करवाये और लोक इच्छा को जाने बिना शेख़ अब्दुल्ला के हवाले रियासत कर देना तो नहीं हो सकता था ।

अब हरि सिंह दो ओर से घिर चुके थे । पाकिस्तान रियासत को हथियाने के लिये कोई भी तरीक़ा इस्तेमाल कर सकता था और माऊंटबेटन किसी भी तरीक़े से रियासत पाकिस्तान को दिलवाने के लिये कोई चाल चल सकते थे । इन दोनों की कूटनीति और बलनीति को पराजित करने के लिये महाराजा ने भी तुरप का पत्ता चल दिया । उन्होंने पाकिस्तान को यथास्थिति संधि के लिये लिखा और यह प्रस्ताव उसने दिल्ली के पास भी भेजा । पाकिस्तान ने तो इसे स्वीकार कर लिया लेकिन दिल्ली में नेहरु इसे लेकर भी आँख मिचौनी खेलने लगे । जबकि दिल्ली को यथास्थिति संधि की जो शर्तें भेजी गईं थीं , वे देश की नई संघीय व्यवस्था के पक्ष में थीं । विभाजन के बाद बचा भारत डोमीनियन अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ब्रिटिश इंडिया का उत्तराधिकारी राज्य था । इसलिये १८३६ में कश्मीर घाटी को लेकर जम्मू रियासत व ब्रिटिश इंडिया में हुई अमृतसर संधि के पालन का दायित्व , यथास्थिति संधि के बाद स्वाभाविक रुप से ही दिल्ली पर आ जाता । महाराजा हरि सिंह परोक्ष रुप से यह स्थिति पैदा कर रहे थे कि यदि पाकिस्तान बल प्रयोग से जम्मू कश्मीर हथियाने का प्रयास करता है तो भारत सरकार उसमें वैधानिक रुप से दख़लंदाज़ी कर सकती है । लेकिन भारत सरकार में बैठ कर इस संधि को होने से रुकवाने के पीछे किस का दिमाग़ था ? यह अभी भी रहस्य ही बना हुआ है । संधि के प्रस्ताव को अस्वीकार करके दिल्ली ने एक सुनहरे अवसर गँवा दिया था ।

लेकिन यथा स्थिति संधि को लेकर टालमटोल वाला रवैया अख़्तियार कर लेने से महाराजा को इतना तो स्पष्ट हो ही गया था कि यदि कल पाकिस्तान रियासत पर आक्रमण करता है तो नेहरु रियासत की मदद नहीं करेंगे । नेहरु ने स्पष्ट ही महाराजा हरि सिंह के आगे दो लकीरें खींच दी थीं । जब तक सत्ता उनके मित्र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को नहीं सौंप देते , तब तक देश की नई संघीय व्यवस्था का हिस्सा बनने का रास्ता बंद और दूसरी लकीर उससे भी ख़तरनाक थी कि यदि पहली शर्त नहीं मानते तो रियासत पर पाकिस्तानी हमले की हालत में संघीय सेना रियासत की सहायता भी नहीं करेगी ,जबकि नेहरु और महाराजा हरि सिंह दोनों ही अच्छी तरह जानते थे कि पाकिस्तान निकट भविष्य में हमला करने वाला है ।

इस आक्रमण के समय भारत में स्थिति क्या थी , इसका सहज अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय हिन्दोस्तान डोमीनियन का सेना प्रमुख भी अंग्रेज़ था और पाकिस्तान का सेना प्रमुख भी अंग्रेज़ ही था । भारत डोमीनियन और पाकिस्तान डोमीनियन का संयुक्त सेना प्रमुख भी अंग्रेज़ ही था । ऊपर से सबसे बड़ी बात यह कि भारत डोमीनियन के गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबेटन भी सैनिक पृष्ठभूमि के ही थे । जब पाकिस्तान ने कबायलियों की आड़ में जम्मू कश्मीर पर हमला किया तो इन सभी में आपस में साँझी संवाद रचना होती थी , ऐसे अनेक प्रमाण अब उपलब्ध हैं । इसे महाराजा का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि रियासत का अपना सेना प्रमुख भी एक अंग्रेज़ ही था । उस समय इंग्लैंड सरकार की घोषित नीति पाकिस्तान को सशक्त बनाना था ताकि वह रुस के साम्यवादी विस्तार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके । इस वातावरण में रियासत को लेकर किसी भी निर्णय की चाबी महाराजा के पास थी , इसलिये श्रीनगर में सबसे ज़्यादा ख़तरा उनके जीवन को ही था । इन विपरीत परिस्थितियों में भी महाराजा हरि सिंह अपने राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी में डटे हुये थे । वे किसी भी हालत में उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं थे ।

इतना ही नहीं , पाकिस्तान सरकार ने रियासत के साम्प्रदायिक तत्वों की सहायता से मीरपुर ज़िला के तरन खेल नामक गाँव में ३० अगस्त १९४७ को जम्मू कश्मीर की स्वतंत्र अन्तरिम सरकार की घोषणा भी करवा दी । मक़सद केवल दुनिया को यह विश्वास दिलाना था कि अब रियासत में महाराजा हरि सिंह का शासन नहीं रहा है और वहाँ नई सरकार का गठन हो गया है । इस तथाकथित सरकार ने महाराजा हरि सिंह को गिरफ़्तार करने के नाम पर आदेश पारित कर दिये और उसकी आड़ में पाकिस्तान सरकार ने गुप्त रुप से किसी भी तरीक़े से महाराजा का अपहरण करने के लिये अपने एजेंट भी भेज दिये । महाराजा के लिये संदेश साफ था , या तो पाकिस्तान में रियासत को शामिल कर दो या फिर अपहरण करके बलपूर्वक यह काम करवा लिया जायेगा । जब जम्मू कश्मीर राज्य , जो भारत का मुकुट माना जाता है , अपने अस्तित्व के लिये सबसे विकट संघर्ष कर रहा था , तब नेहरु के नेतृत्व में दिल्ली ने पीठ दिखा दी । दिल्ली की अपनी शर्त थी । शेख़ अब्दुल्ला की ताजपोशी महाराजा हरि सिंह स्वयं अपने हाथों से करें । महाराजा हरि सिंह का जीवन ही संकट में था । पिछले एक हज़ार साल से हिन्दोस्तान पर सभी हमले दर्रा ख़ैबर के रास्ते से ही होते आये थे और अब जब कई सौ साल की ग़ुलामी के बाद देश आज़ाद हो रहा था तो उसी ओर से एक बार फिर कबायली हमले की छाया साफ़ दिखाई दे रही थी । यह इतनी साफ़ और गहरी थी कि जिस शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की ताजपोशी को लेकर प्रधानमंत्री नेहरु कोप भवन में जा बैठे थे , वह अब्दुल्ला अपना परिवार लेकर इन्दौर भाग गया । लेकिन महाराजा हरि सिंह श्रीनगर में ही डटे रहे ।

बहुत से लोगों ने उनको सलाह दी कि देश भर में फैले हुये मज़हबी उन्माद को देखते हुये , उन्हें सेना के मुसलमान सैनिकों को शस्त्र विहीन कर देना चाहिये । लेकिन महाराजा हरि सिंह का अपनी प्रजा और सैनिकों पर विश्वास इतना गहरा था कि उन्होंने ऐसी सलाह देने वालों को ही लताड़ लगाई । रियासत के अंग्रेज़ सेनापति ने रियासती सेना को निष्प्रभावी बनाने के लिये , उसे राज्य की लम्बी सीमा पर छितरा दिया । ऐन वक़्त पर मुसलमान सैनिक हथियारों समेत दुश्मन के साथ जा मिले । महाराजा हरि सिंह ने एक सच्चे सैनिक की तरह श्रीनगर में अपना मोर्चा संभाले रखा । प्रजा में घबराहट न फैले , इसके लिये महाराजा ने अपनी दिनचर्या और शासन व्यवस्था सामान्य तरीक़े से ही जारी रखी । ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को सेना का दायित्व सौंपते हुये कहा कि अंतिम सैनिक और अंतिम गोली तक लड़ो ।

पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण में कबायली रियासत की सीमा में प्रवेश कर गये । लूटपाट और हत्या का बाज़ार गरम हो गया । हरि सिंह का सेनापति राजेन्द्र सिंह अपनी पूरी सामर्थ्य से शत्रु की सेना को रोकने का प्रयास कर रहा था । रियासत में भय व्याप्त न हो जाये , इसलिये हरि सिंह सारे काम सामान्य तरह से ही निपटा रहे थे । विजय दशमी का उत्सव परम्परागत तरीक़े से मनाया जा रहा था और हरि सिंह वहाँ उपस्थित थे । ख़तरा उन की ओर क़दम दर क़दम बढ़ रहा था लेकिन वे अडिग थे । दिल्ली को उन्होंने सूचित कर दिया था कि हमला शुरु हो चुका है । अब सरकार को सहायता भेजने में और बिलम्ब नहीं करना चाहिये ,नहीं तो जम्मू कश्मीर हाथ से चला जायेगा । लेकिन दिल्ली में नेहरु-माऊंटबेटन की जोड़ी ज़मीं बैठी थी । जम्मू कश्मीर को लेकर दोनों की अपना अपना एजेंडा था । माऊंटबेटन ने अपनी रणनीति बना ली थी । उन्होंने पहली शर्त लगा दी । सहायता तब मिलेगी जब रियासत देश की संघीय शासन व्यवस्था में शामिल होने के लिये तैयार नहीं हो जाती । माऊंटबेटन को लग रहा होगा कि यह तो संभव हो ही नहीं सकेगा क्योंकि नेहरु बिना शेख़ अब्दुल्ला की ताजपोशी करवाये , हरि सिंह को देश की प्रस्तावित संघीय शासन व्यवस्था के नज़दीक़ भी नहीं फड़कने देंगे । लेकिन मान लो हरि सिंह ने नेहरु की यह शर्त मान ली तब ? उसका रास्ता भी माऊंटबेटन के पास था । भारत की संघीय व्यवस्था में जम्मू कश्मीर रियासत को शामिल करने के बाद वे महाराजा हरि सिंह को अलग से एक पत्र लिख देंगे जिसमें कहा जायेगा कि कालान्तर में इस प्रस्ताव पर जनता की इच्छा भी जानी जायेगी ।

लेकिन जैसा माऊंटबेटन को आशा थी ही । नेहरु संकट की इस घड़ी में भी भारत माता के मुकुट को बचाने के लिये सहमत नहीं हुये । वे अपनी शर्त पर पहले की तरह अडे थे । उनके मित्र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की ताजपोशी । इस प्रस्ताव को लेकर रियासती मंत्रालय के सचिव वी. के मेनन श्रीनगर पहुँचे । मेनन ने सारी उम्र अंग्रेज़ सरकार की ही नौकरी बजाई थी । वे तुरन्त समझ गये संकट की इस घड़ी में महाराजा हरि सिंह का श्रीनगर में रहना कितना जोखिम भरा है । कबायलियों के भेष में पाकिस्तानी सेना किसी क्षण भी श्रीनगर में आ सकती थी । एक बार महाराजा हरि सिंह पाकिस्तानी सेना या कबायलियों के हाथ में पड़ गये तो फिर कश्मीर को पाकिस्तान में जाने से कोई नहीं बचा पायेगा । इसलिये उन्होंने महाराजा हरि सिंह को तुरन्त श्रीनगर छोड़ कर जम्मू जाने की सलाह दी । महाराज ने अत्यन्त अस्त व्यस्त स्थिति में रात्रि को जम्मू जाने की तैयारी कर ली । ऐसी बदबहासी , मानिकशाह ने लिखा , मैंने कभी नहीं देखी थी ।

तब महाराजा ने वह ऐतिहासिक निर्णय लिया । उन्होंने देश की संघीय सरकार को देश की नई संघीय व्यवस्था में शामिल होने का प्रस्ताव भेजा । लेकिन इस व्यवस्था में शासन व्यवस्था के कौन से विषय राज्य के पास रहेंगे और कौन से संघीय सरकार के पास जायेंगे , इसका निर्णय हरि सिंह ने नहीं लिया था । वह सारा निर्णय तो संघीय सरकार के रियासती मंत्रालय ने ही निर्णय किया था । वह सभी रियासतों पर समान रुप से लागू होता था । लेकिन महाराजा हरि सिंह को तो एक दूसरा निर्णय इस प्रस्ताव के साथ ही पंडित नेहरु को सूचित करना था । वह था कि मैंने सत्ता आपके मित्र शेख़ अब्दुल्ला को सौंपने का निर्णय कर लिया है । क्योंकि हरि सिंह अब तक इतना तो समझ ही गये थे कि जब तक वे नेहरु की यह माँग पूरी नहीं करेंगे तब तक नेहरु जम्मू कश्मीर की तबाही अपनी आँखों से देखते तो रहेंगे लेकिन उसको देश की संघीय व्यवस्था में शामिल कर उसको बचाने का प्रयास नहीं करेंगे ।

लेकिन शायद नेहरु के पुराने व्यवहार को देख कर महाराजा हरि सिंह को यह भी लगता था कि हो सकता है इसके बाबजूद वे जम्मू कश्मीर के संघीय व्यवस्था का हिस्सा बनने के प्रस्ताव को ख़ारिज कर सैनिक सहायता देने से इन्कार कर दें । यदि ऐसा होता है तब ? तब उन्होंने अपने ए.डी.सी कैप्टन दीवान सिंह को आदेश दिया , यदि ऐसा होता है तो मुझे नींद से जगाने की जरुरत नहीं है । मेरी कनपटी पर गोली मार कर मुझे सदा के लिये सुला देना । यह कह कर वे सोने के लिये चले गये ।

महाराज हरि सिंह हार कर भी जीत गये थे और नेहरु जीत कर भी हार गये थे । लेकिन इधर दिल्ली में माऊंटबेटन की रणनीति का अध्याय पढ़ा जाना अभी बाक़ी था । महाराजा हरि सिंह के लिखे दोनों दस्तावेज़ प्राप्त होते ही उसने अपनी शतरंज की बिसात बिछा दी । महाराजा हरि सिंह का देश की संघीय व्यवस्था में शामिल होने का प्रस्ताव तो अब अमान्य किया ही नहीं जा सकता था । वह स्वीकार हो गया । विधिक कर्मकांड पूरा हो गया । लेकिन उसके बाद माऊंटबेटन ने हरि सिंह को अलग से एक चिट्ठी भी लिख दी कि रियासत में शान्ति स्थापित हो जाने के बाद इस प्रस्ताव पर लोगों की राय भी ली जायेगी । लेकिन माऊंटबेटन अच्छी तरह जानते थे कि लोगों की राय के सहारे ही ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हितों की रक्षा नहीं हो पायेगी । इसलिये शान्ति स्थापित ही न हो सके इसलिये वे नेहरु को मना कर इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में ले गये । वैसे तो लोगों की राय जानने वाली चिट्ठी की कोई क़ानूनी हैसियत नहीं थी लेकिन ख्याली कनकौआ उड़ाने वालों के लिये वह ही काफ़ी थी । नेहरु की कांग्रेस से लेकर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का परिवार उसी को इतने लम्बे अरसे से कनकौआ की तरह उड़ा रहा है । महाराजा हरि सिंह की जीत को नेहरु-माऊंटबेटन और शेख़ अब्दुल्ला ने पराजय में बदल लिया जिस का दंश महाराजा हरि सिंह भी जीवन भर भोगते रहे और जम्मू कश्मीर की जनता आज तक भोग रही है ।

 

 

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