नेताजी की शर्मनाक उपेक्षा

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-अभिषेक रंजन-  subhash chandra bose

चित्र संसद भवन में नेताजी की याद में आयोजित समारोह का है. नेताजी की 117 वी जयंती थी, जिसके उपलक्ष्य में संसद भवन परिसर में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था. लेकिन इस कार्यक्रम में लालकृष्ण आडवाणी को छोड़कर कोई भी जाना पहचाना चेहरा श्रद्धांजलि देने नहीं पहुंचा. यही नहीं, गांधी परिवार से जुड़े लोगों की जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर अखबारों को विज्ञापनों से पाट देने और रिहायशी कार्यक्रमों पर करोड़ों लुटाने वाली सरकार ने कोई
भी बड़ा कार्यक्रम भी आयोजित नहीं किया. आज किसी भी अख़बार में कोई भी विज्ञापन नेताजी के लिए नहीं था. “कांग्रेस ने आज़ादी दिलाई” के लंबे-चौड़े भाषण देने वाले सोनिया, मनमोहन सिंह और हामिद अंसारी भी चुप रहे. सिर्फ राष्ट्रपति ने बंगाली होने का दायित्व निभाया और चार लाईनों की प्रेस रिलीज PIB को भेजकर सरकार ने अपने कर्तव्य से इतिश्री कर लिया.
दरअसल, यह तस्वीर बता रही है कि भारत में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की कितनी इज्जत सांसद और सरकार करते है! नेताजी के प्रसंशक होने के नाते यह तस्वीर देखकर भले ही हमें शर्म महसूस हो रहा हो, लेकिन इस घटना का कांग्रेस राज में होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, बल्कि यह स्वाभाविक घटना है.वास्तविकता तो यह है कि देश में लगभग 55 वर्ष तक राज करने वाली कांग्रेसी सरकारों ने कभी भी नेताजी को तवज्जों नहीं दी. इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि नेताजी महात्मा गांधी और नेहरु की इच्छाओं के विपरीत चलते रहे हैं. इस वजह से कांग्रेस ने हमेशा सुभाष के योगदानों को हाशिए पर रखा. भाजपा और संघ परिवार ही सुभाष को याद करते रहे. कांग्रेसीयों ने जहाँ तक हुआ, सुभाष से जुड़े कार्यक्रमों से दुरी ही बनाकर रखी. आज जहां भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में सुभाष का स्मरण किया, उनके योगदानों को याद किया. वही अध्यक्ष राजनाथ सिंह सुभाष के घर कटक(ओड़िसा) गए और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की. संघ परिवार के लोगों ने भी अपने अपने तरीके से सुभाष को याद किया, लेकिन एक सवाल पूछना जरुरी है कि कांग्रेस ने सुभाष को क्यों नहीं याद किया? क्या सुभाष संघी थे, इसीलिए कांग्रेस उन्हें अपना शत्रु मानते हैं या सुभाष कांग्रेस की उस राजनीति को चैलेन्ज करते थे जो अंग्रेजों की स्वामिभक्ति का परिचायक थी? इसे समझने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करते है.
**सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि महात्मा गांधी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़कर भगत सिंह को फांसी से माफ दिलाए. लेकिन गांधी ने अंगरेज़ सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। यही नहीं वे अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी
रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गांधी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गए, जो आजीवन बना रहा।
**1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ था। इस अधिवेशन में सुभाष ने पूर्ण स्वराज्य की मांग की थी, लेकिन गांधी सुभाष से सहमत नहीं थे। टकराहट कटुता में बदल गयी.

**1938 में गान्धीजी की सहमती से कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुन तो लिया गया मगर सुभाष की कार्यपद्धति गांधी को कभी पसन्द नहीं आयी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड पर दबाब बनाकर स्वतन्त्रता संग्राम को तेज किया जाए। कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते इन्होंने इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।
*1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के वक्त सुभाष और गांधी में फिर से टकराव हुआ. वे चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो अंग्रेजों के प्रति किसी भी मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। कोई भी राजी नहीं था तो सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर  द्वारा सुभाष को अध्यक्ष बनाए जाने की विनती संबंधी पत्र लिखने के बाद भी गान्धी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ। जिसमें सुभाष फिर से जित गए. वह विवाद इतना चला कि गांधी और सुभाष के रस्ते हमेशा के लिए अलग अलग हो गए.
साफ़ है, नेहरु और गांधी के आलोचक रहे नेताजी के योगदानों को न केवल कांग्रेस सरकारों ने उपेक्षित किया बल्कि उचित सम्मान भी देना जायज नहीं माना.
नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से सम्बन्धित दस्तावेज़ अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किये. लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं
पड़ता. उसने कुछ भी नहीं किया. अभी हाल में ही (16 जनवरी, 2014) को कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों
को सार्वजनिक करने की मांग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया है. उम्मीद है, नेताजी के मौत के रहस्यों पर से
पर्दा उठेगा. फिर भी उनकी उपेक्षा दुखद है.
शर्मनाक बात तो यह है कि बंगाल से होने के बावजूद बंगाली समुदाय में नेताजी की छवि को ख़राब करने में वामपंथीयों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. इसकी वजह से इतिहास की किताबों पर अपना अधिपत्य ज़माकर रखनेवाले वामपंथी बुद्धिजीवियों का वर्ग नेताजी के योगदानों को हमेशा कमतर ही आंकता रहा
है. वामपंथियों का विरोध इसीलिए रहा है कि वामपंथी नहीं चाहते थे कि द्वितीय विश्वयुद्ध में नेताजी जापान का साथ दे. अंग्रेजों के समर्थक रहे वामपंथियों ने तब सुभाष चंद्र बोस की खूब आलोचना भी की थी.
यह ठीक है कि नेताजी देश के करोड़ों दिलों पर अपनी जगह रखते है, जिसे किसी सरकारी समारोह या विज्ञापनों से नहीं तौला जा सकता, फिर भी सवाल है कि
नेताजी हमेशा “Forgotten Hero” ही रहेंगे? क्या कांग्रेस और कांग्रेसी सरकार नेताजी के व्यक्तित्व और कृतित्व को कुछ भी नहीं मानती? प्रख्यात इतिहासकार प्रोफेसर आर सी मजूमदार की किताब ‘भारत में स्वाधीनता का इतिहास-खण्ड 3 के पृष्ठ 609-610 पर लिखे इन पंक्तियों को उद्धृत करना समसामयिक है कि “1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का योगदान महात्मा गांधी से किसी भी प्रकार कम नहीं था, सम्भवत: वह उससे अधिक महत्वपूर्ण था.”  यह दुखद और शर्मनाक बात है कि भारत माता के इस सपूत को राजनीतिक वजहों से उचित सम्मान भी नहीं मिल रहा! सुभाष बाबू की आत्मा आज सचमुच में कराहती होगी!

2 COMMENTS

  1. नेताजी का योगदान देश कैसे भूल सकता है? पर आज कि राजनीती में जहाँ चापलूसी, स्वार्थ, गुंडागर्दी, अपराधी व नेताओं का गठजोड़ हावी है, इन बातों को याद कौन करेगा किसे फुर्सत है.आये दिन पढ़ने को मिलता है कि कभी कहीं तो कभी कहीं जंदिरा राजीव पट. नेहरू की मुर्तिया अपनी धुल उतरने का ही इंतजार करती रही. गांधी बाबा का हाल भी कोई ज्यादा अच्छा नहीं.आज की नयी फेसबुकिआ पीढ़ी को तो मोबाइल से नज़र हटाने को फुर्सत नहीं.पर यह हमारे लिए शर्म की ही बात है कि जिन लोगों ने खून बहा हमें आजादी दिलाई आज उन्हें हाशिए पर डालते जा रहें है. जरुरत यह भी है कि ऐसी तिथि के पहले से ही कुछ जागृति लाइ जाये.

  2. दुखद स्थिति यह है कि संसद भवन के समारोह में – नेताजी सुभाष बोसे की जन्म समारोह – में कोई भी सांसद नहीं आये – एक अडवाणी जी के सिवाय. इस का मतलब यह है की ये समारोह सब एक रस्म अदायगी हैं – किसी को किसी से कोई हार्दिक लगाव नहीं है . मायावती के लिए तो नेताजी का अर्थ शायद मुलायम सिंह से होगा – सुभाष बोसे को तो वे जानती नहीं होंगी . हैम तो इतना ही कह सकते हैं कि भगवान् इन सब को सद्बुद्धि दे

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