नेत्र जब नवजात का झाँका किया,
शिशु जब था समय को समझा किया;
पात्र की जब विविधता भाँपा किया,
देश की जब भिन्नता आँका किया !
हर घड़ी जब प्रकृति कृति देखा किया,
हर कड़ी की तरन्नुम ताका किया;
आँख जब हर जीव की परखा किया,
भाव की भव लहरियाँ तरजा किया !
रहा द्रष्टा पूर्व हर जग दरमियाँ,
बाद में वह स्वयं को निरखा किया;
देह मन अपना कभी वह तक लिया,
विलग हो आभास मैं पन का किया !
महत से आकर अहं को छू लिया,
चित्त को करवट बदलते लख लिया;
पुरुष जो भीतर छिपा प्रकटा किया,
परम- पित की पात्रता खोजा किया !
प्रश्न जब प्रति घड़ी जिज्ञासु किया,
निगम आगम का समाँ बाँधा किया;
‘मधु’ उसमें प्रभु अपना पा लिया,
प्राण के अपरूप का दर्शन किया !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’