विकास के नए परिवेश में ढलते गांव

पुरूषोत्तम लाल निषाद

किसी भी राज्य के विकास का पैमाना उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास से ही तय किया जाता रहा है। औद्योगिक विकास के बावजूद आज भी भारत को गांवों का देश ही माना जाता है क्योंकि इसकी एक बड़ी आबादी अब भी शहरों से ज्यादा गांव-देहात में ही निवास करती है। ऐसे में विकास की धारा को गांवों तक पहुंचाना सभी सरकार की पहली प्राथमिकता रही है। इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ऐतिहासिक लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी विकास पर सबसे अधिक जोर देते हुए इसके लिए मिलकर काम करने पर जोर दिया। खास बात यह है कि उन्होंने विकास से जुड़े मसलों को राष्ट्रीरय सुरक्षा के मुद्दों जितनी अहमियत बताई। जो इस बात की ओर स्पष्टस इशारा था कि विकास को साथ लिए बगैर हम स्वंय को विकसीत राष्ट्र की श्रेणी में खड़ा करने का ख्वाब केवल हवा में ही तैयार कर सकते हैं। हम दुनिया में हथियारों की होड़ में खुद को आगे करने में लगे हुए हैं। इसके लिए हमने विकास के उस पैमाने को पीछे छोड़ दिया जो वास्तव में हमारी पहचान है। शेयर बाजार, मुद्रास्फिती और देखा जाए तो तरक्की की जिस राह पर हम स्वयं को पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं वह महानगरों तक ठीक है। जबकि गांव तक विकास की धारा को पहुंचाने के लिए बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे पहलुओं को भी साथ लेकर चलना आवश्यंक है। जो धीरे धीरे अपनी जगह बना रहा है।

बदलते परिदृश्यन में शिक्षा भी अब विकास का पैमाना तय करने का सशक्त माध्यम बन चुका है। विशेषकर भारत जैसे विकासषील राश्ट्र के लिए उसके नागरिकों का शिक्षित होना बहुत मायने रखता है। अन्तराष्ट्रीतय मामलों के जानकार और जवाहरलाल नेहरू विश्वरविद्यालय के प्रोफेसर तुलसी राम के अनुसार युरोप और अमेरिका विकास के मामले में इसलिए भी आगे है क्योंकि वहां शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा है। जबकि दक्षिण एशिया और अफ्रिका विश्वव के अन्य देषों से इसलिए पिछड़ा हुआ है क्योंकि यहां शिक्षा को उम्मीद से कम प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन अब इन क्षेत्रों विशेषकर भारत में शिक्षा के प्रति सोंच में धीरे धीरे बदलाव आ रहे हैं। गांव गांव तक शिक्षा की लौ पहुंचाने की सरकार की कोशिशें रंग ला रही हैं। राष्ट्रीगय साक्षरता मिशन, शिक्षा का अधिकार, सभी के लिए शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा जैसे कार्यक्रमों की सफलता ने गांवों को भी विकास के नए परिवेश में ढ़ालने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके प्रचार-प्रसार ने ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के ख्यालात को बदलने में जहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है वहीं कई अंधविश्वारस और सामाजिक कुरीतियों को भी खत्म किया है।

किताबी ज्ञान सिर्फ ज्ञान ही देता है लेकिन जब इसका व्यवहारिक तौर पर प्रयोग किया जाता है तो वही विशय पूर्ण रुप से परिपक्व हो जाती है। भारत के ऐसे कई ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां शिक्षा के प्रचार प्रसार की सफलता का व्यवहारिक प्रयोग देखा जा सकता है। बात चाहे राजधानी दिल्ली से सटे हरियाणा की हो जहां सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न करता खाप पंचायत का अपने तुगलकी फरमान से अलग हटकर दहेज लेने वालों का सामाजिक बहिश्कार का फैसला हो या फिर छत्तीसगढ़ जैसा नक्सल प्रभावित क्षेत्र जहां लड़के और लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके नक्सलियों के लिए यह राज्य मजबूत गढ़ बन चुका है। इसके बावजूद यहां शिक्षा के प्रचार ने गांव में जागरूकता को बढ़ाया है। राज्य के कांकेर जिला के एक गांव बैजनपुरी में भ्रमण के दौरान इस बात का अहसास हुआ कि बंदूक के साए के बीच यहां सामाजिक विकास चरम पर है। जब ग्रामिणों से मिले, उनसे बाते हुई तो कई बुराईयां और अच्छाईयां उभर कर सामने आयी। बातचीत से पता चलता है कि आज गांव के लोग प्रबुद्ध और जागरुक हो चुके हैं। वे लोग सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहें हैं। ग्राम में प्राइमरी से हायर सेकेंड्ररी स्कूल की सुविधा है। ग्राम पंचायत सहकारी समिती, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और पोस्ट ऑफिस भी उपलब्ध है।

एक हजार से अधिक की आबादी वाले इस गांव में लोगों की विचारधारा में परिवर्तन हुआ है। सुभाष सरकार एक विकलांग है लेकिन सरकारी स्कीमों से बखूबी वाकिफ है। वह विकलांगों की सहायता के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे योजनाओं का न सिर्फ लाभ उठा रहा है बल्कि गांव के अन्य विकलांगों को भी इसका लाभ दिलाने में मदद करता है। छठी पास सुभाष अपनी शिक्षा का भरपूर लाभ उठा रहा है। सुनील बड़े गर्व से बताता है कि गांव में विवाह के संबंध में बड़ा परिवर्तन आया है। गांव में कहीं भी बाल विवाह नहीं होता है। पहले की अपेक्षा अब माता पिता और समाज शादी के लिये लड़की-लड़का का परिपक्वता होना अनिवार्य समझते है। किसी विशेषज्ञ की तरह समझाता है कि जब तक पेड़ परिपक्व नहीं होगा तब तक उसका फल उपयोगी नहीं होगा। इसलिए लड़की की उम्र 18 वर्श तथा लड़के का 21 से अधिक होना अनिवार्य हैं। इस साल गांव में 12 से अधिक शादियां हुई हैं और सभी विवाहित जोड़े परिपक्व थे।

62 वर्ष की रधिया बताती है कि 60-70 के दशक में बहुत कम उम्र में विवाह हो जाते थे। मेरी भी बचपन में शादी हुई उसी परंपरा को निभाते हुए मैनें अपने बच्चों का शादी 16-17 वर्श में ही कर दिया। लेकिन अब मेरा मानना है कि जमाना बदल गया है। लड़के-लड़की की शादी न सिर्फ 18 के बाद करनी चाहिए बल्कि उन्हें अपना वर चुनने की आजादी भी मिलनी चाहिए। अशिक्षा के कारण ही लोग लड़कियों का बोझ समझते हैं। लेकिन हमारे गांव में अब ऐसी मानसिकता वालों की कोई जगह नहीं है। ब्रीज लाल का कहना है कि अब शिक्षा का स्तर बढ़ने और शासन के आदेश ने सब कुछ बदल दिया। जहां तक मेरी राय है लड़की की उम्र 21 और लड़के का उम्र 25 कर देना चाहिए। लड़कियां भी लड़को की तरह सम्मान की हकदार हैं। लड़के यदि धन हैं तो लड़की बहुमूल्य धन है। गांव वालों को हम दो, हमारे दो की भावना समझ में आ चुकी है। लगनबाई, फूलेश्वदरबाई, नर्मदाबाई, सरला, कुलेष्वर सिंह समेत कई ग्रामीणों ने बताया कि यकीनन अब लड़के-लड़की, माता-पिता, परिवार-समाज सब विवाह के उम्र जानने लगे हैं। युवा वर्ग स्वेच्छा से जीवन साथी बनाने लगे है। अंधविश्वाहस गांव में सबसे अधिक हावी होती है। यहां भी है लेकिन धीरे धीरे लोग इस मकड़जाल से निकल रहे हैं।

शिक्षा का प्रभाव अब गांव के कृषि व्यवस्था में भी प्रभावी साबित हो रहा है। किसान अपने अनाज उत्पादन के लिए कृषि वैज्ञानिकों से सलाह मशविरा कर फसल उगा रहे हैं। सरकार की ओर से भी उन्हें जागरूक करने के लिए ब्लॉक स्तर पर कृषि मेला का आयोजन किया जाता है। किसानों में कृषि जागरूकता वेनुजवेला के शावेज की उस नीति की याद दिलाता है जिसमें उन्होंने क्यूबा से हजारों प्रशिक्षित शिक्षकों को उंचे वेतन पर नियुक्त कर शिक्षा के प्रसार के माध्यम से देश में अनाज उत्पादन में बढ़ोतरी की थी। बहरहाल गांव में आ रहे बदलाव न सिर्फ सकारात्मक पहल है बल्कि देश के विकास में भी सहायक सिद्ध होंगे। लेकिन इस बात का विषेश ख्याल रखना होगा कि विकास केवल मॉल और हर ग्रामीण के हाथ में मोबाईल सुविधा पहुंचाने की नीति तक ही सीमित न रह जाए। (चरखा फीचर्स)

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