साहित्यिक पत्रकारिता के नए आयाम

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता में थीम का महत्वपूर्ण होना स्वयं में समस्यामूलक है।हिन्दी की अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने फासीवाद, प्रेम,बेबफाई , साम्प्रदायिकता, आतंकवाद,भूमंडलीकरण आदि पर विशेषांक निकाले हैं। इन सभी विशेषांकों का एक ही साझा संदेश है कि हम विषय के बारे में, अपने बारे में कितना जानते हैं। इससे थीम केन्द्र में आई है और व्यक्ति का स्थानान्तरण हुआ है।

थीम के हिमायती भूल गए हैं कि साहित्य का थीम के आधार पर प्रसार नहीं होता। इससे अनुकरण,पैरोडी और साहित्यानुकरण होता है।

एक पत्रिका ने युवा रचनाकार विशेषांक निकाला तो बाकी पत्रिकाएं अनुकरण करके युवा लेखन पर विशेषांक निकाल रही हैं। किसी ने स्त्री या दलित पर विशेषांक निकाला तो बाकी पत्रिकाएं उससे बेहतर विशेषांक निकाल रही हैं। इस विशेषांक संस्कृति ने थीम को प्रतिष्ठित किया है विषय और व्यक्ति को अपदस्थ किया है। साहित्य में इस बहाने व्यक्ति का बहिष्कार हुआ है। विषय का अंत हुआ है।

पहले साहित्य और साहित्यिक पत्रिकाओं में लेखक के विज़डम और मासकल्चर के रूपों पर जोर था। इन दिनों साहित्य में आकर्षक,इकसार और रूढ़िबद्ध विषयों का महिमामंडन चल रहा है।

मसलन् यदि किसी दलित ने एक खास अंदाज में अपनी आत्मकथा में कुछ खास पक्षों को उठाया है तो हठात् दलित आत्मकथाओं में मिलते -जुलते चित्रों की बाढ़ आ गयी है। दलित और स्त्री आत्मकथाओं में एक खास किस्म का अंधानुकरण साफतौर पर देख सकते हैं। एक जमाना था साहित्य में विषय की विशिष्टता थी। विशिष्टता की जगह इन दिनों अंधानुकरण हो रहा है।

विषय से लेकर समस्या के ट्रीटमेंट तक इकसारता के कारण साहित्य से व्यक्ति की विदाई और विशिष्टता का अंत हो गया है। पहले पाठ का संबंध ऑब्जेक्ट के साथ था इन दिनों ऑब्जेक्ट की जगह फैशन ने ले ली है। थीम ने ले ली है। इन दिनों साहित्य थीम से थीम की ओर बढ़ रहा है। थीम से पैदा होने वाला साहित्य स्टीरियोटाईप और बोगस होता है चाहे उसे कितने ही बड़े लेखक ने लिखा हो। साहित्य का आधार अब जीवन नहीं थीम है और यही वह बिंदु है जहां साहित्य का अंत हो जाता है। दूसरी प्रवृत्ति निर्धारणवाद की है। इसमें स्त्री,युवा,दलित आदि को निर्धारणवादी ढ़ंग से पेश किया जा रहा है। अब कोई भी रचना मर्दवाद के आतंक-उत्पीड़न, वर्णाश्रम व्यवस्था के उत्पीड़न ,भूमंडलीकरण के उत्पीड़न के बिना नहीं लिखी जा रही।

साहित्य को ‘स्पेस’ के संदर्भ में देखें तो ऐसी रचनाएं ज्यादा आ रही हैं जिनमें ‘घर’ का चित्रण ज्यादा है। व्यक्तिगत ,करीबी बातों और लोगों का चित्रण ज्यादा हो रहा है। अब ऐसी रचनाएं कम लिखी जा रही हैं जिनमें सार्वजनिक स्पेस हो। साहित्य की स्टाईल की बजाय खास अंचल या भौगोलिक क्षेत्र पर बातें हो रही हैं।

एक जमाना था हिन्दी में लेखकगण समय पर बातें करते थे,युग पर बातें करते थे, अब समय को स्थान ने अपदस्थ कर दिया है। स्पेस का विकृतिकरण हो रहा है। इसे घर,बाहर, शहर,कामकाजी स्थान आदि के संदर्भ में देख सकते हैं।

स्त्री और दलित पर लिखी रचनाओं में स्टाइल के रूपों में पुरानी पितृसत्तात्मक अभिव्यक्ति शैली को चुनौती दी जा रही है। पुरानी पितृसत्तात्मक शैली और नयी शैली में क्या अंतर है। इस पर बातें नहीं हो रही हैं। इसी तरह दलित लेखन में कामुकता और वर्चस्व की स्मृतियों की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। उनके विभिन्न आख्यान या रूपक सामने आए हैं।

कामुकता और वर्चस्व की स्मृतियों का आना इस बात का संकेत है कि हमारा लेखक मीडिया इमेजों से गहरे प्रभावित है। मीडिया इमेजों के प्रभाव के कारण ही स्मृतियों को साहित्य में अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करता है। स्मृतियों का साहित्य मीठा होता है और उसकी खपत आसानी से हो जाती है। साहित्य में चीजों को माल बनाकर पेश करने की प्रवृत्ति ने उसकी खपत बढ़ा दी है। इस क्रम में संस्कृति और यथार्थ का अंतर मिटा है।

खासकर स्त्री और दलित केन्द्रित आत्मकथाओं में यथार्थ और संस्कृति का अंतर खत्म हो गया है। इन आत्मकथाओं के जरिए स्त्री के यथार्थ की बजाय संस्कृति पर ज्यादा बातें हो रही हैं। चित्रण में भी यथार्थ गौण है संस्कृति प्रमुख है। साहित्य के चित्रण में यथार्थ की जगह संस्कृति और विचार विशेष का आना और यथार्थ का गायब हो जाना साहित्य के वस्तुकरण की प्रक्रिया को सामने लाता है। इस तरह के साहित्य की रूपान्तरणकारी भूमिका नहीं होती। वह बिकता ज्यादा है,उसकी खपत ज्यादा होती है ,वह आलोचनात्मक नजरिए से रहित होता है। साहित्य का वस्तुकरण वस्तुतः परवर्ती पूंजीवाद के सास्कृतिक तर्कों की विजय है।

फ्रेडरिक जेम्सन ने लिखा है कि नए युग की विशेषता है कि हमारे कानों में इतिहास का आवाजें आनी बंद हो जाती हैं। इतिहास के प्रति बहरापन एक सामान्य फिनोमिना है। नए युग का विचारशास्त्र संस्कृति में सत्य की खोज कर रहा है। संस्कृति के परे सत्य के किसी भी आयाम को ये लोग नोटिस ही नहीं लेते।

सार्वजनिक इतिहास से हमारा संबंध कमजोर हुआ है और नए किस्म की निजी सामयिकता से उसे जोड़ दिया गया है। इसके कारण एक खास किस्म की उन्मादी भाषा का प्रयोग हो रहा है। साहित्य और मीडिया में शुद्ध भौतिक अनुभवों को उभारा जा रहा है। साहित्य में दैनन्दिन जीवन के सतही मनो अनुभवों और स्पेस केन्द्रित सांस्कृतिक भाषा के वैविध्यपूर्ण चित्रों की बाढ़ आयी हुई। बैचैनी के चित्र यथार्थ के बिना आ रहे हैं। नई संचार तकनीक का साहित्य पर गहरा असर हुआ है। नई तकनीक पुनर्रूत्पादन की तकनीक है। फलतः साहित्य सृजन कम और उसका पुनर्रूत्पादन ज्यादा हो रहा है।

उत्तर आधुनिक अवस्था में ‘साहित्य के अंत’ की भी घोषणा की गई है। इसका वास्तव में क्या अर्थ है इस ओर हमारे समीक्षकों ने कभी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। लेकिन एक परिवर्तन आया है साहित्य को विधाओं में वर्गीकृत करके पढ़ने की परंपरा का अंत हुआ है। साहित्य के पुराने वर्गीकरण और मानक अप्रासंगिक हो गए हैं।

मसलन् एक जमाना था साहित्य की कोटि में अखबार का लेखन नहीं आता था। लेकिन इधर यह नहीं कह सकते। सवाल उठता है स्व. प्रभाष जोशी का हिन्दी गद्य साहित्य का हिस्सा है या नहीं ? इसी तरह बड़े पैमाने पर साहित्येतर समस्याओं पर हिन्दी में लिखा जा रहा है वह साहित्य का हिस्सा है या नहीं ? विधाओं के दायरे भी टूट हैं, साहित्य में आए दिन नई विधाएं जन्म ले रही हैं। कल तक जिस लेखन को विधा नहीं मानते थे उसे अब विधा मानते हैं।

मसलन ,निजी पत्र साहित्य का हिस्सा नहीं थे। लेकिन रामविलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’में पत्रों का इस्तेमाल किया और पत्रों का ही एक खण्ड बना दिया। अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने यही पद्धति अपनायी। इसी तरह नवजागरण संबंधी बहस में भी उन्होंने ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’नामक किताब लिखकर बड़े पैमाने पर साहित्येतर विषयों को साहित्य बना दिया। यही काम अपने से तरीके नामवर सिंह ने आलोचना पत्रिका के पुनर्प्रकाशन के साथ किया और उन्होंने आलोचना का फासीवाद विरोधी विशेषांक निकाला। कहने का तात्पर्य है कि साहित्य अब पुराने अर्थ को त्याग चुका है। नए रूप में साहित्य को लेखन के नाम से जाना जाता है। इसमें अब साहित्य और साहित्येतर का भेद नहीं रह गया है। विधाओं का वर्गीकरण नहीं रह गया है। विधाओं का भी लेखन की अवधारणा में विलय हो चुका है। अब सब कुछ लेखन है।

पहले साहित्य की सीमाएं थीं आज साहित्य की कोई सीमा नहीं है। अब साहित्य में सब कुछ शामिल है। साहित्य में यह परिवर्तन नयी संचार तकनीक आने के साथ आया है। कम्प्यूटर के आने साथ आया है। जिस तरह कम्प्यूटर में उससे पहले के सभी माध्यमों का विलय हो गया है, कनवर्जन हो गया। ठीक वैसे ही लेखन में सब विधाओं का विलय हो गया है। पहले रचना का एक ही अर्थ होता था ,यही कहा जाता था लेखक का काम है सत्य की खोज करना। लेकिन अब किसी भी रचना का एक अर्थ नहीं है। बल्कि अनेक अर्थों की चर्चा हो रही है। एक सत्य की नहीं एकाधिक सत्य की चर्चा हो रही है। एक व्याख्या नहीं व्याख्याओं का अनंत आकाश खुल गया है। इस पूरी प्रक्रिया में आलोचना, सत्य,व्याख्या आदि के संदर्भ में ‘सापेक्षतावाद’ घुस आया है। अब हम सापेक्ष रूप में विचार करते हैं। सत्य ,कथ्य और व्याख्या की एकाधिक अस्मिताओं पर जोर दिया जा रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पुराने साहित्य की धारणा का अंत हो गया है।

‘साहित्य के अंत’ की प्रक्रिया में ‘साहित्य’ पर नहीं ,साहित्य के सवालों पर बहस हो रही है। ‘साहित्य’ पर जब बातें कर रहे थे तो साहित्य समीक्षा के आधार पर लगातार कृति का विवेचन कर रहे थे,समीक्षा या आलोचना का विकास कर रहे थे। साहित्य के नियमों को लागू करते हुए बता रहे थे कि साहित्य की सीमा क्या है और रचना में साहित्येतर क्या है ? साहित्य को साहित्येतर से दूर रखने में आलोचना मदद कर रही थी। लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा।

हमारे साहित्यिक बंधु साहित्य के सवालों पर चर्चा करते हुए साहित्यालोचना के दायरे के बाहर चले गए हैं. अब साहित्य और साहित्येतर का विभाजन खत्म हो गया है। यह विभाजन और किसी ने नहीं साहित्य के दो महान आलोचकों रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने किया है। जब आप साहित्य की बजाय साहित्य के सवालों पर चर्चा रहे होते हैं तो साहित्य की सीमाओं को खत्म करते हैं। इस क्रम में साहित्य की अपनी कोई निजी पहचान नहीं रह जाती। अब तक यह कहा जाता था कि साहित्य की अपनी पहचान या अस्मिता होती है। लेकिन यह पहचान अब खत्म हो गयी है। अब हम नहीं जानते कि साहित्य की अस्मिता क्या है ? पहचान क्या है ? यही वह जगह है जहां पर साहित्यालोचना की जगह साहित्य सैद्धांतिकी आ गयी है। अब ज्यादा से ज्यादा साहित्यालोचना नहीं साहित्य की थ्योरी के आधार पर चर्चाएं हो रही हैं।

पहले ‘आलोचना’ लिखी जाती थी अब ‘परिप्रेक्ष्य’ की बातें हो रही हैं। आलोचना को परिप्रेक्ष्य ने अपदस्थ कर दिया है। इसका गहरा असर हुआ है। अब साहित्य में अनेक परिप्रेक्ष्यों के आधार पर मूल्यांकन किया जा रहा है। जैसे मार्क्सवाद,संरचनावाद,उत्तर आधुनिकतावाद, स्त्रीवाद आदि।

मजेदार बात यह है कि हिन्दी में आलोचना के मसलों को पूरी तरह दुरूस्त भी नहीं कर पाए थे कि अचानक आलोचना को परिप्रेक्ष्य ने अपदस्थ कर दिया। अब परिप्रेक्ष्य के आधार पर साहित्य में व्यक्त सत्य को तय किया जा रहा है। परिप्रेक्ष्य अलग हैं तो सत्य भी भिन्न होगा। इसके कारण दुनिया भी अलग दिखाई देगी। दुनिया का अलग-अलग हिस्सा दिखाई देगा।

मसलन् स्त्रीवादी और मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य को ही लें ,इसके मानने वाले ‘लिंग’ और ‘वर्ग’ के अलावा और किसी भी बात पर ध्यान नहीं देते। वे अन्य पक्षों की अनदेखी करते हैं। व्यवस्था में ‘लिंग’ और ‘वर्ग’ के अलावा भी चीजें हैं जिन्हें हमें देखना चाहिए। वे साहित्य को ‘लिंग’ और ‘वर्ग’ के सीमित दायरे में ऱखकर देखते हैं, साहित्य का दायरा बहुत बड़ा है,स्त्री साहित्य और मार्क्सवादी साहित्य या दलित साहित्य के दायरे की तुलना में। फलतः साहित्य में टुकड़ों या अंशों पर बातें हो रही हैं,समग्रता में साहित्य पर बातें नहीं हो रहीं। इसी अर्थ में साहित्य का अंत हुआ है।

परिप्रेक्ष्य में देखने की यह खूबी काफी पहले से चली आ रही है इसमें उत्तर आधुनिकतावाद के आने से मामला दूसरी दिशा में चला गया है। जितने भी परिप्रेक्ष्य प्रचलन में हैं उनमें राजनीति गहरे समायी हुई है। राजनीति के बिना इन पर बातें करना संभव नहीं है।

इस समूची प्रक्रिया का साहित्य के पठन-पाठन पर भी गहरा असर हुआ है। अब साहित्य के विभाग नहीं होते, बल्कि उनकी जगह साहित्यिक अध्ययन के विभाग होते हैं। साहित्यिक अध्ययन विभाग बनते ही अनुसंधान और अध्ययन के क्षेत्र में हिंसा,दमन, उत्पीडन, विभाजन आदि राजनीतिक केटेगरी का अध्ययन प्रमुख हो गया है।

अब कोई शोध ऐसा नहीं होता जिसका ठोस आधार राजनीति न हो। अब प्रत्येक निर्णय राजनीतिक आधारों पर हो रहा है। राजनीतिक आधार पर सोचने का परिणाम निकला है कि अब कोई चीज निश्चित नहीं है। टिकाऊ नहीं है। राजनीति के अलावा अन्य पहलुओं को छिपाया जा रहा है।

जब कोई चीज निश्चित नहीं है तो अब अनुमानाधारित दर्शन,काल्पनिक साहित्य और रेडिकल गणित पर जोर दिया जा रहा है और इसी क्रम में गेम या खेल की सैद्धांतिकी सामने आई है।

गेम थ्योरी के आधार पर खास सीमा के बाद ज्ञान,विचार,अनुभव आदि को ठेल दिया जाता है। लेकिन राजनीतिक एक्शन को लक्ष्य से नहीं हटाया जा सकता। चूंकि चीजें राजनीति से जुड़ी हैं अतः संदर्भ को वास्तव होना चाहिए। बिना वास्तव संदर्भ के राजनीति की व्याख्या संभव नहीं होती। इस क्रम में वास्तव पर संदेह नहीं किया जा सकता। अथवा यह भी कह सकते हैं कि कुछ सवाल उठाए ही नहीं जा रहे। ऐसी स्थिति में जो भी मूल्यांकन करेंगे उसके लिए वास्तव के बाहर जाने की जरूरत पड़ेगी।

हमें चलताऊ तुलनाओं, प्रतिगामी उपेक्षाभाव, अतार्किकता, सांस्थानिकता, बौद्धिकता विरोध, अराजनीति आदि से बचना होगा। वास्तव पर निर्भर आलोचना लिखेंगे तो राजनीति और स्कॉलरशिप दोनों में संतुलन बना रहेगा।

1 COMMENT

  1. बहुत बढ़िया लेख है. इस पर चर्चा होनी चाहिए खुले दिमाग से. इस में उठाये गए मुद्दों और सवालों को लेकर.

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