राजनीति का नया दौर

राकेश श्रीवास्तव

यह हमारे लोकतांत्रिक विकास की असफलता ही है कि जनता दिल की सच्चाई (जाति और निजी स्वार्थों के बादलों को छांटकर) और गहराई से अपने नेता को नेता नहीं मानती है। जनता कितना अपने नेता को पहचानती है, अपने क्षेत्र के नेताओं और दलों तक उसकी कितनी पहुंच है, क्या जमीनी स्तर पर संस्थाएं जनता की आकांक्षाओं की गतिशीलता के माध्यम से शक्ल अख्तियार करती हैं? हम सब जानते हैं कि ऐसा नहीं है। इसी शून्य पर काले धन का विकास है। अब इसका चरम हो लिया। इसलिए भ्रष्टाचार और काले धन के विरोध में समकालीन भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरने और तब तक चलने की पूरी संभावना है, जब तक राजनीतिक व्यवस्था और संस्कृति में निर्णायक, गुणात्मक परिवर्तन न हो जाए। यही भविष्य की राजनीति है।

बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों के आंदोलनों के संदर्भ में सरकार और कांग्रेस पार्टी की ओर से अधिकारिक और गैर-अधिकारिक वक्तव्य जारी होते रहते हैं कि ये आंदोलन संसदीय राजनीति की अपेक्षित परंपराओं का अवमूल्यन कर रहे हैं। क्या सरकार और कांग्रेस यह कहना चाहती है कि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में बहस उठाने का अधिकार मात्र चुने हुए प्रतिनिधियों, और सामाजिक स्तर पर मुद्दों को गतिशील बनाने का अधिकार मात्र पंजीकृत राजनीतिक दलों को है। सरकार व कांग्रेस संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के बारे में एक अधकचरी बात खड़ी कर देशवासियों को भरमा रही है। सरकार जनता के सामने इस बात को छुपाये जा रही है कि दबाव समूहों की लोकतंत्र में क्या भूमिका है! क्या राजनीतिक दल शून्य में खड़े हो जाते हैं? कुछ सीमित मुद्दों पर जनसमर्थन की लामबंदी कर राजनीतिक व्यवस्था और शासन तंत्र पर उन्हें मनवाने का दबाव डालना दबाव समूह का काम है। अपेक्षया कुछ व्यापक मुद्दों पर अपेक्षया कुछ व्यापक क्षेत्र में जनसमर्थन की लामबंदी से कालांतर में राजनीतिक दल बनते हैं। लामबंदी के दौर में ये राजनीतिक दल और आंदोलन दबाव समूह ही होते हैं। दोनों ही लोकतंत्र की अनिवार्य प्रक्रियाएं हैं और बहुत साधारण सी बातें हैं। सरकार और कांग्रेस अगर बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को लोकतंत्र के आगे दैत्याकार हौवा की तरह खड़ा कर रही है तो यह दुष्प्रचार का प्रयास है। लोकतंत्र के लिए हानिकारक यह बात अधिक है, जो हमारी राजनीतिक संस्कृति और प्रक्रियाओं में दुष्प्रचार का महत्वपूर्ण औजार बन गया है।

सरकार और राजनीति मात्र चुने गए प्रतिनिधियों से नहीं चलती है। यह जनता और चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा विशेषज्ञ लोगों की सेवा लेने के विवेक से भी चलती है। सरकार के किसी मंत्री को जनता द्वारा सांसद या विधायक चुने होने और संसद या विधान-सभा की प्रक्रिया के माध्यम से मंत्री चुने होने के नाते अपने मंत्रालय में किसी विधेयक को बनाने या कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करने के लिए विशेषज्ञों की समिति बनाने का अधिकार होता है, और सरकार उस अधिकार का भरपूर प्रयोग करती है, और शासन-तंत्र को पेशेवर स्वरूप देने के पीछे लोकतंत्र के भीतर इस मान्य परंपरा का महत्वपूर्ण स्थान है। अगर जनता यह समझती है और जन-समर्थन प्रदर्शित करने के माध्यम से यह बताती है कि अन्ना हजारे और उनके दल के पास भ्रष्टाचार के सामाजिक-राजनीतिक चरित्र को समझने और उसके विरूध्द सांस्थानिकताएं खड़ी करने तथा लोकपाल बनाने की विशेषज्ञता तथा नैतिकता उपलब्ध है, तो यह समझना और यह प्रदर्शन जनता का विशेषाधिकार है। और स्वस्थ लोकतंत्र की बनावट जनता के नैसर्गिक अधिकारों के चतुर्दिक ही होती है।

सरकार साधारण सी पहल पर दुष्प्रचार का सहारा ले रही है। दूसरी ओर अनेक महत्वपूर्ण पर जटिल पहलू बहस में आने से रह जाते हैं। राजनीतिक-संस्कृति के महल की नींव में जनता का अवचेतन मन होता है। रामदेव या अन्ना का सा कोई आंदोलन जनता के मन पर सम्मोहन या भीड़ मनोविज्ञान का सा ऐसा प्रभाव न छोड़े कि राजनीतिक दल अमूल-चूल अवैध समझे जाएं। ठीक है। पर जनता का मन किसी मुद्दे पर यूं ही सम्मोहित नहीं होता।

अगर संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था और सभी दलों को देखा जाए तो यह सही है कि ये संपूर्ण देश, दूर-दराज के क्षेत्रों और सभी वर्गों का राजनीतिक व्यवस्था के भीतर एकीकरण करने का माध्यम बनी है। कोई भी दल व्यापक रूप से अखिल भारतीय भले न हो पर संपूर्ण देश के हर क्षेत्र, शहरों और गांवों में कहीं न किहीं राजनीतिक दलों की मौजूदगी है। यह हमारे समाज का लोकतांत्रिक राजनीतिक विकास है। पर इस राजनीतिक विकास के विरोधाभासों में ही रामदेव और अन्ना सरीखे आंदोलनों की अभूतपूर्व सफलता के बीज, जनता को कुंठाओं और आकांक्षाओं के रूप में छिपे हैं।

भारतीय समाज में राजनीतिक दलों का विकास सदियों के उद्विकास के क्रम में नहीं हुआ है। यह जनता के मध्य अपरिचित अवधारणा थी। इसलिए राजनीतिक दलों में नेतृत्व का बनना और जनसमर्थन को गतिशील बनाना, यह दोनों प्रक्रियाएं समाज में पहले से मौजूद जाति व्यवस्था, जमींदारी, मठ व्यवस्था आदि से एक अनुकूलता स्थापित कर के संभव हो सकी। आनन-फानन में बने और विकासित हुए नेताओं ने राजनीतिक संरचनाओं पर पारंपारिक आध्यात्मिक मूल्य नियंत्रण की पुरानी व्यवस्था को बिखेर दिया, लोकप्रियतावादी राजनीति को बढ़ावा दिया। कालेधन का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य प्रतियोगी लोकप्रियतावाद ही है। यानी अपने राजनीतिक विरोधी के लोकप्रियतावाद की प्रतियोगिता में अपना लोकप्रियतावाद खड़ा करना, और मुद्दा आधारित समाज-व्यापी कार्यकर्ताओं के तंत्र के अभाव में धन के बल पर जन-समर्थन जुटाना। इस प्रक्रिया का सकारात्मक पक्ष यह है कि भारत में संरचना के रूप में लोकतंत्र सफल और स्थाई हो सका। इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि इस लोकतंत्र की गुणवत्ता बुरी है, और कालाधन और भ्रष्टाचार इसका मूलाधार बन गया है। तमाम राजनीतिक दलों में योग्यता और जायज करिश्माई आधारों पर नेतृत्व के कैडर में गतिशीलता का अभाव, आंतरिक लोकतंत्र का अभाव, स्वयं के ऊपर धर्म, अध्यात्म व अन्य बाह्य संस्थाओं के नैतिक-आध्यात्मिक प्रभाव का अभाव वह प्रमाण है कि हमारी राजनीति काले धन के रथ पर आगे बढ़ती है। एक विशेष राजनीतिक संस्कृतिक ने शक्ल अख्तियार कर ली है, कि राजनीति में होने का मतलब कुछ विशेष प्रकार के चारित्रिक गुण का होना है, और राजनीति का अर्थ समाज की प्रतिभाओं को गतिशील करना सीमित अर्थ में रह गया है, व्यापक अर्थ में यह प्रतिभाओं को कुंठित करने का माध्यम हो गई है। यही वह बिंदु है जहां पर जनता कुंठित है। लोकतंत्र इस रूप में सफल जरूर है कि जनता वोट देकर नेता बना रही है, पर इस रूप में असफल है कि जनता दिल की सच्चाई (जाति और निजी स्वार्थों के बादलों को छांटकर) और गहराई से अपने नेता को नेता नहीं मानती है। इसलिए भ्रष्टाचार और काले धन का विरोध समकालीन भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा मुद्दा बनकर तब तक चल सकता है, जब तक राजनीतिक व्यवस्था और संस्कृति में निर्णायक, गुणात्मक परिवर्तन न हो जाए। यही भविष्य की राजनीति है। इस प्रक्रिया में कालांतर में भारतीय राजनीति की शुचिता और मौलिकता बहाल होगी।

बाबा रामदेव और अन्ना हजारे सरीखे आंदोलनों के प्रति राजनीतिक दलों को सर्जनात्मक भूमिका में देर-सवेर आना ही होगा। तत्कालीन रूप से अन्ना हजारे का आंदोलन दबाव समूह ही है। इस रूप में ही उसे स्वयं को संगठित और प्रभावी बनाए रखना चाहिए। बाबा रामदेव अपने अध्यात्म और योग के करिश्मे से योग-शिविरों के कार्यकर्ताओं और भाग लेने वालों की गिनती 10 करोड़ को अपने कार्यकर्ताओं की संख्या बताएं और मन में शीघ्र राजनीतिक दल बनने की चाहत पालें, तो यह वही गलती होगी जो अन्य राजनीतिक दलों ने अन्य किसी करिश्मे को राजनीतिक जनाधार में परिवर्तित करके की है, क्योंकि करिश्मा और वास्तविक राजनीतिक जनाधार के बीच के फासले को ही भ्रष्टाचार और कालाधन पाटता है। ऐसे में बाबा रामदेव भिन्न न रह पाएंगे।

अन्ना हजारे के प्रति अपील और उनका जनाधार उनकी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता की पृष्ठभूमि पर टिका है। अगर ये अपनी लोकप्रियता को तेजी से संगठन में रूपान्तरित करने का प्रयास करेंगे, तो हर जिले-प्रांत में इन्हें उसी धन-बल और ‘तेज-तर्रार’ नेताओं का सहारा लेना होगा। अखिल भारतीय नैतिक भावनात्मक अपील और हर स्तर पर सीमित अपने जैसे सदस्यों वाला अखिल भारतीय ढांचा इन्हें प्रभावी दबाव-समूह बनाकर रख सकेगा। बाबा रामदेव के करिश्मे का निर्माण उनके योग-गुरु होने और आध्यात्मिक आधार पर हुआ है। यह समीचीन है कि भारतीय परंपरा में सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता धार्मिक-आध्यात्मिक प्रभावों से बे-मेल कभी नहीं रही। गांधी के आगमन से पूर्व विवेकानन्द और सैकड़ों मनीषियों ने धार्मिक-आध्यात्मिक धरातल पर वैयक्तिक उत्थान के संदेश के साथ सामूहिकता की उर्जा को भी संगठित किया था, जो उर्जा कालांतर में सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता धार्मिक-आध्यात्मिक प्रभावों से बे-मेल कभी न रही। गांधी के आगमन से पूर्व विवेकानन्द और सैकड़ों मनीषियों ने धार्मिक-आध्यात्मिक धरातल पर वैयक्तिक उत्थान के संदेश के साथ सामूहिकता की उर्जा को भी संगठित किया था, जो उर्जा कालांतर में सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता में सपांतरित हुई। आज-भी अगर ‘सिविलियन स्पेस’ की हम व्यापक परिभाषा करें तो सुदुर किसी क्षेत्र का कोई आम आदमी अपने सामूहिक आस्तित्व के संदर्भ में किसी राजनीतिक दल, एन. जी. ओ. या सामाजिक संगठन से उतना अधिक नहीं ‘टिलेट’ करता है जितना किसी आध्यात्मिक गुरु से। और आध्यात्मिक गुरु से ‘टिलेट’ करने की यह प्रक्रिया उसकी धार्मिक- आध्यात्मिक आस्था से उतर उसके सामाजिक-राजनीतिक सामूहिकता का भी एक भाग होती है। देश में आधुनिकता का विमर्श धार्मिक-आध्यात्मिक सामाजिक संगठनों के मंच से शुरू हुआ, तब-ऐ लेवर स्वतंत्रता के 63 वर्षों के बाद भी यह स्थिति है, तो यह यह मान लेने का पर्याप्त कारण है कि जनता की धार्मिक- आध्यात्मिक रूझान का उपयोग भारतीय राजनीति की शुचिता की बहाली में हो सकता है। धार्मिक-आध्यात्मिक मठ पारम्परिक भारत में सभी स्थानों पर धार्मिक आस्था के साथ शक्ति का केंद्र रहे हैं और राजनीतिक दलों ने स्वयं के लिए शक्ति प्राप्त करने में यानी वोट जुटाने में उन मठों का उपयोग किया है। बदले में मठों ने काली राजनीतिक शक्ति और काला धन प्राप्त किया है, जिससे लोकप्रियता के नाजायज रूप से भी गुणिज किया है। अब शायद जनता और हमारी राजनीति परिपक्वता के उस धरातल पर नजर आ रही है कि धार्मिक आध्यात्मिक करिश्मा उसे भरमाने का नहीं बल्कि जनता समाज और राजनीति की आध्यात्मिक शुचिता का माध्यम बने।

जब भारत के तमाम राजनीतिक दल एक और विशुध्द सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर जनसमर्थन जुटाने और गहन रूप से समाज में बैठा संगठन खड़ा करने और दूसरी ओर धार्मिक-आध्यात्मिक व अन्य राजनीति इतर परम्पराओं से अनुशासित होने और ऊर्जा ग्रहण करने का शउंर सीख जाएंगे तब सही मायने में राजनीतिक दल नेताओं का निर्माणकर्ता, समाज की उर्जाओं के संवाहक बनेंगे, और तब उनमें फूट, रंजिशों, साजिशों, भ्रष्टाचार पर निर्भरता न रहेगी। दलों में नेतृत्व के निर्माण के लिए आंतरिक चुनाव की प्रक्रियाओं और ‘गुरु सरीखे’ उच्चतर नेतृत्व द्वारा मनोनयन की प्रक्रियाओं में विरोधाभास न रहेगा।

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