पहाड़ी कोरवा की जिंदगी में नई सुबह

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पहाड़ी कोरवा
पहाड़ी कोरवा
पहाड़ी कोरवा

मनोज कुमार
यह शायद पहला मौका होगा जब पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के जीवन में इतनी सारी खुशी उनके हिस्से में आयी है. अब से पहले तक उपेक्षा और तकलीफ के सहारे उनकी जिंदगी बसर हो रही थी. जंगलों पर निर्भर रहने वाले ये पहाड़ी कोरवा की चिंता करती तो हर सरकार दिखती लेकिन कागज पर और यह पहली पहली बार हुआ है जब कागज नहीं, बात नहीं बल्कि सच में उनके हक में कुछ दिखाया है तो राज्य की रमन सरकार ने. राज्य सरकार ने इन आदिवासियों की जिंदगी बदलने के लिए शिक्षा से रोजगार और कोठी में अनाज से लेकर स्वच्छता तक का ध्यान रखा है. अब कोई आदिवासी खुले में शौच के लिए नहीं जाता है और न ही किसी आदिवासी को जंगल में खाने की तलाश करने की जरूरत है. आदिवासी बच्चियों के लिए शिक्षा का रास्ता खुल गया है तो युवा आदिवासियों को रोजगार मिलने लगा है.
बेहद ही गरीबी में पले बढ़े मंगल सिंह ने कभी सोचा भी नही था कि एक दिन वह खुद की मोटर साइकिल चलायेगा और तीर धनुष की जगह उसके हाथों में मोबाइल रहेगा। घर में कलर टीवी रखेगा और आराम से अपना जीवन बितायेगा। उसे तो लगता था कि बड़े होकर उसे भी हाथों में तीर कमान पकडक़र जंगल में चार,तेंदू तोडऩे, महुआ बीनने जाना पड़ेगा। जब तक हाथ में कोई नौकरी नही थी,पहाड़ी कोरवा मंगल का दिन जंगलों में घूमते फिरते गुजरता था। लेकिन छत्तीसगढ़ शासन द्वारा पहाड़ी कोरवाओं सहित राज्य के विशेष पिछड़ी जनजाति पांचवीं और आठवीं पास युवकों को चतुर्थ श्रेणी पद पर शासकीय नौकरी देने की पहल ने कोरबा जिले के अनेक पहाड़ी कोरवाओं की तस्वीर और तकदीर ही बदल दी। शासकीय सेवा में आने के साथ ही इनके जीवनयापन का तरीका तो बदला ही, जंगलों के आसपास रहने की वजह से अपना पूरा दिन जंगल में ही इधर उधर घूम-फिरकर बिताने की मानसिकता भी बदल गई। शिक्षा एवं विकास की मुख्यधारा से दूर रहने की सदियों से बनी एक तरह की धारणा इनके दिमाग से दूर होने के साथ-साथ नौकरी ने इन्हें और आगे बढऩे के लिये प्रेरित किया। अब नौकरी मिलने के बाद आठवी पास पहाड़ी कोरवा मंगल सिंह खुद भी इस साल दसवी की परीक्षा दे रहा है और अपने सभी बच्चों को रोजाना स्कूल भेजता है। परिवार को भी खुशहाल रखता है।
कोरबा विकासखंड के वनांचल ग्राम आंछीमार में रहने वाले 15 सदस्यों दो पहाड़ी कोरवा भाईयों ने अपने परिवार के लिए तय किया भले ही कुछ कमरे न बन पाये,लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी शौचालय है। पहाड़ी कोरवा भाईयों ने लगभग 40 हजार रूपये खर्च कर अपने ही घर के पीछे शौचालय का निर्माण कराया। परिवार के सभी सदस्य अब इस शौचालय का उपयोग करते है। गांव में पहाड़ी कोरवा परिवार की इस सोच ने कुछ अन्य लोगों को भी सीख दी है। कुछ परिवार है जो स्वयं के पैसे से अपना घर संवारने के साथ ही शौचालय निर्माण भी करा रहे है। बहोरन सिंह ने बताया कि कुछ समय पष्चात भले ही सरकार की ओर से नि:शुल्क में शौचालय बन जाता,लेकिन हमने इंतजार नही किया। शौचालय के महत्व को जानने के बाद उसे भी आभास हुआ कि सचमुच शौचालय तो हर घर में बहुत जरूरी है। उसने अपने भाई से बात किया और दोनों ने शौचालय निर्माण में आने वाले खर्च को बराबर हिस्से में बांट कर काम शुरू कराया। आज घर परिवार के सभी सदस्य उस शौचालय का उपयोग करते है।
पहाड़ी कोरवा परिवारों की जिंदगी गुलाबी गुलाबी हो गई है. अन्त्योदय गुलाबी राशन कार्ड ने इनकी जिंदगी के मायने ही बदल दिए हैं. एक समय वह भी था जब हर दिन खानाबदोश की तरह भोजन की तलाश में पहाड़ी कोरवा परिवारों को भटकना पड़ता था। आज वे आराम से अपने घरों में रहते हैं. आज इस गुलाबी राशन कार्ड से सभी पहाड़ी कोरवा परिवारों को एक रूपये की दर से प्रतिमाह 35 किलो चावल मिल जाता है। इससे घर के चूल्हे भी जल जाते हैं और भूखे पेट सोने की नौबत भी नहीं आती। शासन ने इनकी सुध ली। एक स्थान पर ही ठहराव के लिए आशियाना बनाकर दिया। शिक्षा से जोडऩे स्कूल खोले। आंगनबाड़ी खोला गया। अंधेरा दूर करने के लिए जहां तक संभव था सडक़, बिजली पहुंचाई गई और दुर्गम इलाकों में सौर उर्जा के माध्यम से इनके बसाहटों को रोशन किया गया। आर्थिक रूप से कमजोर कोरवाओं को बचत से जोडऩे एवं कम कीमत पर चावल उपलब्ध कराकर इनके आर्थिक बोझ को कम करने की दिशा में शासन द्वारा सभी कोरवा परिवारों का अन्त्योदय गुलाबी राशन कार्ड बनाया गया है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2012 अन्तर्गत प्रत्येक माह के 7 तारीख को चावल उत्सव के समय 1 रूपये की दर से 35 किलो चावल दिया जाता है। ग्राम छातासरई के पहाड़ी कोरवा पाकाराम ने बताया कि अभी भी अनेक कोरवा हैं जो जंगल जाते हैं। इंदिरा आवास बनाये जाने से अब निश्चित ठिकाना बन गया है, पहले तो बस भटकते रहते थे। उसने बताया कि वे हर माह उचित मूल्य की दुकान में एक रूपए चावल नि:शुल्क दिए जाने वाले अमृत नमक और कम कीमत पर मिलने वाले शक्कर, मिट्टी तेल, चना के पैकेट लेने नीचे आते हैं।
उच्च शिक्षा की राह में अग्रसर हुई पहाड़ी कोरवा छतकुंवर की उड़ान अब चाहे जहां पर थमे। लेकिन उसके इस कदम से कोरवा जनजातियों की उन बालक-बालिकाओं को भी आगे पढ़ाई करने की प्रेरणा मिलेगी जो पांचवीं,आठवीं पढऩे के बाद बीच में ही अपना स्कूल जाना छोड़ देते हंै। लंबे समय तक उच्च शिक्षा से दूर कोरवा समाज की इस बेटी ने 12वीं पास कर कालेज की दहलीज को छुआं है। छात्रा छतकुंवर ऐसे छात्रों के लिये एक मिसाल भी है। इनके पिता बहोरन सिंह ने सिर्फ कक्षा पांचवीं तक ही पढ़ाई किया है। इस गांव से स्कूल की दूरी 6 किलोमीटर और कालेज की दूरी 7 किलोमीटर है। पहाड़ी कोरवा छात्रा कु. छतकुंवर जब हाई स्कूल पहुंची तो मुख्यमंत्री सरस्वती साइकिल योजना के तहत उसे नि:शुल्क साइकिल मिली थी। उस साइकिल से बारहवीं तक की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्रा छतकुंवर अब उसी साइकिल से कालेज भी जाने लगी है। आगे पढऩे और आगे बढऩे की ललक ने छात्रा को जहंा कालेज तक पहुंचाया वहीं सरस्वती साइकिल योजना से स्कूल में मिली नि:शुल्क साइकिल से कालेज का सपना भी पूरा हो रहा है।
यह बदलाव कागज पर नहीं है बल्कि सच का बदलाव है. मंगल हो या छतकुंवर, सबकी जिंदगी बदल रही है क्योंकि सरकार ने इनके प्रति अपनी सोच बदली तो जिंदगी बदल बदल सी गई है. पहाड़ी कोरवा समाज की जिंदगी में बदलाव एक समुदाय की जिंदगी में बदलाव नहीं बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में बदलाव की बयार है.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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