-प्रो. संजय द्विवेदी

मेरे गुरू, मेरे अध्यापक प्रो. कमल दीक्षित के बिना मेरी और मेरे जैसे तमाम विद्यार्थियों और सहकर्मियों की दुनिया कितनी सूनी हो जाएगी यह सोचकर भी आंखें भर आती हैं। वे ही ऐसे थे जो एक साथ पत्रकारिता,संपादन, अध्यापन,लेखन और अध्यात्म को साध सकते थे। उन्होंने मनचाही जिंदगी जी और मनचाहा किया। घूमना-फिरना,मिलना- जुलना और पत्रकारिता में नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिए अहर्निश प्रयास को उन्होंने अपना मिशन बना लिया था।

मेरी जिंदगी में उनका होना एक आत्मिक और आध्यात्मिक छांव थी। वे सच में तो मेरे अध्यापक थे, किंतु बाद के दिनों में वे सचमुच मेरे ‘गुरु’ बन गए। उनके सान्निध्य में बैठना, चर्चा करना और हमेशा कुछ नवनीत लेकर लौटना मेरी भोपाल की दिनचर्या का आवश्यक अंग था। वे मुझे बहुत कुछ करते हुए देखना चाहते थे,प्रेरित करते थे और नए विचार देते थे। मैं जीवन में जैसा और जितना कर पाया, उसमें उनकी बड़ी भूमिका है। उनका मेरी तरफ बहुत उम्मीदों से देखना मुझे डरा देता था, लगता था कि सर की महान अपेक्षाओं की पूर्ति पर खरा कैसे उतरूंगा। लेकिन वे थे कि थकते नहीं थे। एक के बाद दूसरे लक्ष्य की ओर झोंक देते। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में हूं जिन लोगों से सर से पत्रकारिता का पहला पाठ बढ़ा। मेरी बीजे और एमजे की पढ़ाई उनके सान्निध्य में हुई। मैं लखनऊ से बीए करके भोपाल में नए खुले पत्रकारिता विश्वविद्यालय में दाखिल हुआ था, बहुत सी उम्मीदों के साथ, बहुत सारे सपनों के साथ। यहां प्रो. दीक्षित हमारे विभागाध्यक्ष थे। हमने उप्र के विश्वविद्यालय देखे थे, जहां सौ एकड़ से कम विश्वविद्यालय की कल्पना ही नहीं होती। बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों को देखा हो तो और भी जोरदार मनोवैज्ञानिक झटके लगते थे, जब हम पहली बार त्रिलंगा की एक छोटी सी कोठी में चल रहे पत्रकारिता विश्वविद्यालय को देखते थे। जब हम अंदर प्रवेश करते थे, कुछ कक्षाएं करते थे, हमारा यह भ्रम जाता रहता था कि विश्वविद्यालय बड़े परिसरों से ‘बड़े’ होते हैं। श्री राधेश्याम शर्मा हमारे कुलपति थे, डा. सच्चिदानंद जोशी हमारे कुलसचिव, दीक्षित सर एचओडी, डा. श्रीकांत सिंह हमारे हास्टल वार्डन और अध्यापक । लोगों को भले भरोसा न हो, हमने कुलपति से लेकर अपने अध्यापकों के घरों न सिर्फ प्रवेश पाया, भोजन-जलपान किया और ढेर सा प्यार पाया। ऐसा स्नेह और संरक्षण बड़े आकार के संस्थान चाहकर भी नहीं दे सकते, जहां एचओडी के दर्शन भी ‘देव दर्शन’ होते हों। इन प्यार भरी थपकियों से पले-बढ़े हम और हमारे साथी आज भी एमसीयू की यादों को भुला नहीं पाते।

 प्रो. दीक्षित का हमेशा हंसता हुआ चेहरा, उनकी सरलता और हमारी शैतानियों को नजरंदाज करने की उनकी अभूतपूर्व क्षमता आज भी हमारी आंखें पनीली कर जाती हैं। वे गजब के अध्यापक थे। उनके पास कोई नोट्स नहीं होते थे, उनकी कक्षाएं एक घंटे के निर्धारित समय से अक्सर तीन घंटे पार कर जातीं। पर वे हमें कभी बोर नहीं करती थीं। ऐसा लगता था सर सारी पत्रकारिता आज ही पढ़ा देंगें और हम अभी यहां से निकले नहीं कि संपादक हो जाएंगें। ज्यादातर के साथ ऐसा हुआ भी, जिनमें मैं भी एक था। पिछले कुछ दिनों से सर मूल्यआधारित पत्रकारिता के लिए बेहद सक्रिय थे। उन्होंने एक संगठन बनाया ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’, उसकी पत्रिका भी निकाली ‘मूल्यानुगत मीडिया’। सर पिछले 2009 से यह कहते आ रहे थे कि मुझे इस संगठन से जुड़ना चाहिए। मुझे लगता था मैं अपने विश्वविद्यालयीन दायित्वों से इतना घिरा हूं , संगठन में समय नहीं दे पाऊंगा। उन्हें मना करता रहा। पिछले साल कुछ ऐसा हुआ कि सर को कैंसर की बीमारी हुई। हम उनके साथ बैठते थे। एक दिन बहुत कातर स्वर में उन्होंने कहा कि संजय तुम संगठन का काम देखो। सर की आवाज में जाने क्या असर था, मैंने उन्हें सदस्यता का चेक बनाकर तुरंत दिया। कुछ ही महीनों में इंदौर में मूल्यानुगत मीडिया का अधिवेशन था, सर बहुत बीमार थे। फिर भी आए और उस सम्मेलन में मुझे संगठन का अध्यक्ष बना दिया गया। मैं अवाक् था किंतु गुरू आज्ञा की अवहेलना का साहस नहीं था। इस घटना को अभी साल भर भी नहीं हुए हैं। सर बहुत कठिन उत्तराधिकार मेरे कंधों पर सौंपकर जा चुके हैं।

इसी तरह गत साल माउंटआबू में आयोजित मीडिया सम्मेलन के लिए उन्होंने कहा और मैं चला गया। जबकि इसके पहले वे कई बार कहते रहे मैं नहीं जा सका। माउंटआबू में उन्होंने सप्ताह भर मेरी बहुत चिंता की। हमें बातचीत का बहुत समय मिला। छात्र जीवन के बाद साथ रहने का, दोनों समय साथ भोजन करने का। मैंने उन्हें निकट से देखा वे पूरी तरह अध्यात्म को समर्पित हो चुके थे। सिर्फ मूल्य आधारित समाज और मीडिया का सपना उनकी आंखों में तैरता था। मुझे उनकी कई बातें अव्यवहारिक भी लगती थीं, हमारे प्रतिवाद भी होते, किंतु वे अडिग और अविचल। कहते थे रास्ता यही है। एक सुंदर दुनिया इन्हीं मूल्यों से बनेगी। नहीं तो असंभव है। वहां अपनी गहरी आस्था के चलते उन्होंने कहा “संजय यह बाबा का दरबार है। यहां से लौटकर तुम्हें बहुत बड़ा पद मिलेगा। उनकी कृपा तुम पर है पर तुम यहां लेट आए। लौटकर देखना।” मुझे इन बातों पर इस तरह का विश्वास नहीं है। पर सर के सामने खामोशी ही ठीक थी। पर मैंने अनुभव किया माउंट आबू से लौटने के बाद मेरे भी अच्छे दिन आए। सर की नजर में यह बाबा का आशीर्वाद है। मैं इसे गुरू कृपा के रूप में भी देखता हूं। मैंने अपने शिक्षक और गुरु की जबसे सुननी प्रारंभ की, मुझे भी आध्यात्मिक शक्तियों को आशीष मिल रहा है। प्रकृति मेरे साथ न्याय करती नजर आती है।

ऐसे गुरुवर न जाने कितनी कहानियां हैं। एक याद जाती है तो तुरंत दूसरी आती है। उनका न होना मेरी जिंदगी में ऐसा शून्य है, जिसे भरना संभव नहीं है। पिछले साल मेरे दादा जी की पुण्य स्मृति में गांधी भवन, भोपाल में आयोजित कार्यक्रम में वे खराब स्वास्थ्य के बाद भी आए और कहा “मैं बीमार नहीं हूं, मेरा शरीर बीमार है।” उनका आत्मविश्वास विलक्षण था। इस आयु में भी लेखन, प्रवास, संपादन और मिलने-जुलने से उन्होंने परहेज नहीं किया। हाल में भी भारतीय जनसंचार संस्थान की आनलाइन गोष्ठी में भी वे हमारे साथ जुड़े और सुंदर संबोधन दिया। उनकी अनुपस्थिति को स्वीकारना कठिन है। लगता है वे आएंगें और कहेंगें “पंडत कुछ करो। ऐसे ही जिंदगी गुजर जाएगी।” मुझे उनके पुत्र और मेरे भाई गीत दीक्षित, बहूरानी और बच्चों का चेहरा याद आ रहा है। उन सबने सर को बहुत दिल से संभाला और चाहा कि वे मनचाही जिंदगी जिएं। गीत ने सबको जोड़कर सर की पुस्तक विमोचन पर हम सबको जोड़ा और भव्य आयोजन में उनके तमाम दोस्त और साथी जुड़े। हम सब और गीत भाई की इच्छा थी सर मुस्कराएं और खुश रहें। मेरी फेसबुक पोस्ट पर अपनी श्रध्दांजलि व्यक्त करते हुए पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर ने ठीक ही लिखा है-“ मध्यप्रदेश ने दो पीढ़ियों को संस्कारित करने वाला एक मूल्यनिष्ठ पत्रकार, संपादक और मीडिया प्राध्यापक खो दिया है। ” सच में सर एक संस्कारशाला थे, पाठशाला और एक पूरी जिंदगी। उनके साथ बिताए समय ने हमें समृद्ध किया है, अब उनकी यादें ही हमारा संबल हैं।

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