कानपुर से निकलकर मैं और कमल एक रात अयोध्या रुके और फिर अगले दिन 30 नवंबर को गांव पहुंच गए। इस बार गांव से लंबा रुकना था। जिन योजनाओं को तैयार करने में कई वर्ष लगे थे, उन्हें अब जमीन पर उतारने का समय आ गया था। मैंने महसूस किया कि मैं एक समाजसेवी की तरह नहीं बल्कि एक मिलिट्री कमांडर की तरह सोच रहा हूं। यह थोड़ा अटपटा है, लेकिन यही सच है। व्यवस्था परिवर्तन मेरा स्ट्रैटेजिक उद्देश्य है जिसे गोविन्दजी रामराज्य या प्रकृति केन्द्रित विकास का समानार्थी मानते हैं। इस स्ट्रैटेजिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए मिशन तिरहुतीपुर का आपरेशनल प्लान बनाया गया है। अब गांव में इस आपरेशनल प्लान के अंतर्गत विविध प्रकार के टैक्टिकल लक्ष्यों पर काम करने की बारी थी।

युद्धशास्त्र की बात करें तो स्ट्रैटेजिक उद्देश्य पहाड़ की तरह स्थिर होते हैं। उनमें परिवर्तन की संभावना बहुत कम होती है। उन्हें प्राप्त करने के लिए समय-समय पर कई तरह के आपरेशनल प्लान बनाए जाते हैं। तुलनात्मक रूप से बदलाव की गुंजाइश इनमें अधिक होती है। इन्हें आप मिट्टी के पुराने टीले जैसा मान सकते हैं। सबसे निचले पायदान पर टैक्टिकल लक्ष्य होते हैं। किसी एक आपरेशनल प्लान को पूरा करने के लिए बहुत सारे छोटे-छोटे टैक्टिकल लक्ष्य तय करने पड़ते हैं। इनकी प्रकृति रेत की ढेरियों जैसी होती है। छोटी-छोटी बातों से भी इनका स्वरूप बदल जाता है। लड़ाई अपने शुद्ध रूप में टैक्टिकल लेवल पर ही दिखाई देती है। प्रायः यहीं ‘फॉग आफ वार’ की स्थिति उत्पन्न होती है।

‘फॉग आफ वार’ प्रत्येक युद्ध में घटित होता है। चाहे कोई कितना भी कुशल सेनापति हो, वह ‘फॉग आफ वार’ से नहीं बच सकता। जब लड़ाई शुरू होती है तो कुछ समय के लिए उसके सामने अंधेरा छा जाता है। स्थितियां नियंत्रण में नहीं होती हैं। उसे न तो अपनी और न ही दुश्मन की ताकत और कमजोरी का अंदाजा रह जाता है। कुल मिलाकर अनिर्णय और भ्रम की स्थिति होती है। यदि सेनापति अनुभवी है तो वह जल्दी ही इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेता है, जबकि अन्य इसमें फंसकर पराजय का दंश झेलते हैं।

‘फॉग आफ वार’ की स्थिति जिस तरह युद्ध के मैदान में पैदा होती है, उसी तरह यह हमारे दैनिक जीवन में भी उत्पन्न होती रहती है, विशेष रूप से तब, जब हम किसी नई परिस्थिति या चुनौती का सामना करते हैं। ऐसे में हमें लगता है कि हम कुहांसे और धुंध के बीच एक पहाड़ी रास्ते पर चल रहे हैं। हमें नहीं पता होता कि हमारा कौन सा कदम हमें अपने लक्ष्य की ओर ले जाएगा और कौन सा हमें खाईं में पटक देगा। हम एक अनुमान के सहारे आगे बढ़ते हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए हमें तुरंत फैसला लेना होता है। पहले की बनी-बनाई योजनाएं इस दौर में बहुत काम नहीं आतीं।

मिशन तिरहुतीपुर के संदर्भ में कहें तो टैक्टिकल लेवल पर हमारी कार्रवाई 1 दिसंबर, 2020 से शुरू हुई। कमल नयन ने फटाफट जनसंपर्क का मोर्चा संभाला, जबकि मैं घर पर ही रुककर निरीक्षण, समन्वय और संयोजन के काम में लग गया। तिरहुतीपुर में डेढ़ एकड़ जमीन पर कामचलाऊ परिसर तैयार करना मेरी पहली प्राथमिकता थी। बजट बहुत कम था, इसलिए मैं जिओडेसिक डोम से एक औपचारिक शुरुआत करना चाहता था। इसी सिलसिले में 6 दिसंबर को एक बार फिर कानपुर जाना हुआ।

कानपुर में मैंने अपने एक मित्र के सहयोग से जिओडेसिक डोम के कनेक्टर का सैंपल तैयार करवाया। डोम बनाने में बांस का उपयोग कैसे हो सकता है, यह समझने के लिए एक दिन सुरेश जी को साथ लेकर कानपुर की बांस मंडी भी गया। वहां हमने अलग-अलग किस्म के बांस और उनकी कीमत के बारे में जानकारी जुटाई। कानपुर से मैंने 5 लीटर पोलिएस्टर रेजिन भी खरीदा। फाइबर ग्लास फैब्रिक और थर्मोकोल के साथ इसका कई तरह से प्रयोग करना था। ये दोनों चीजें मैं पहले ही दिल्ली से ले आया था।

कानपुर में यह सब काम निपटाकर मैं 10 दिसंबर को गांव लौट आया। वापसी में मेरे साथ कार में सामान के साथ-साथ एक व्यक्ति भी थे। उनका नाम है हर्षवर्धन। बता दूं कि हर्षवर्धन मेरे सुपुत्र हैं। वह इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एजूकेशन एंड रिसर्च, मोहाली के छात्र हैं। कोरोना के कारण उनके संस्थान में आनलाइन पढ़ाई चल रही थी। इसे देखकर मैंने उन्हें प्रस्ताव दिया था कि गांव आकर अपनी क्लास करो और साथ में मिशन का भी काम करो। यह प्रस्ताव उन्हें जंच गया और अब वह मेरे साथ गांव आ रहे थे।

हर्ष ने गांव पहुंचते ही कमल के साथ काम करना शुरू कर दिया। दोनों गांव का एक बुनियादी सर्वे कर रहे थे। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं स्कूल खोलने वाला हूं। मैंने कहा कि नहीं, ऐसी तो कोई योजना नहीं है। इस पर दोनों ने मुझे बताया कि चारो ओर यही चर्चा है कि मैं स्कूल खोलने वाला हूं। इस सूचना ने मुझे थोड़ा परेशान कर दिया। स्पष्ट रूप से भ्रम की यह स्थिति मेरे और गांव वालों के बीच संवादहीनता के कारण पैदा हुई थी जो अपने आप में चिंता की बात थी।

मेरी चिंता धीरे-धीरे दूसरे मोर्चों पर भी बढ़ रही थी। 10 दिसंबर को गांव आते ही मैंने डोम के लिए काम शुरू करवा दिया था। लेकिन इसी बीच मुझे पता चला कि जिस जमीन पर डोम बनना है, वह बाढं में प्रायः डूब जाती है। इससे बचने का एक ही उपाय था कि जमीन को ऊंचा किया जाए। कोई विकल्प न होने के कारण मैंने 17 दिसंबर को एक जेसीबी बुलाकर उससे 40 मीटर लंबा, 16 मीटर चौड़ा और लगभग 3 फुट ऊंचा मिट्टी का एक प्लेटफार्म बनवाया। इसमें कुल 65,000 रूपए खर्च हो गए। इस अप्रत्याशित खर्चे से मेरा डोम का बजट बिल्कुल गड़बड़ हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब डोम का काम रोक दूं या आगे बढ़ाऊं और बढ़ाऊं तो कैसे बढ़ाऊं?

दूसरी ओर 20 दिसंबर तक कमल और हर्ष ने गांव के प्रारंभिक सर्वे और जनसंपर्क का काम पूरा कर लिया था और अब वे मिशन तिरहुतीपुर पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि मैं उसके लिए एक स्क्रिप्ट लिख दूं। चूंकि उस समय मैं कई चीजों में उलझा हुआ था, इसलिए मैंने उनसे कहा कि वे बिना स्क्रिप्ट के ही शूटिंग शुरू कर दें। मुझे लगा कि शूटिंग से लोगों का ध्यान थोड़ा बंटेगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। अगले दस दिनों में शूटिंग खत्म होते-होते स्कूल को लेकर भ्रम और बढ़ गया। लोगों ने शूटिंग को शिक्षा वाले आयाम से ही जोड़कर देखा।

ये सब उलझनें शायद पर्याप्त नहीं थीं कि भगवान ने 30 दिसंबर को एक और उलझन दे दी। हुआ ये कि कमल और हर्ष जब शूटिंग करके शाम को लौट रहे थे तो उनके साथ गांव के ही एक लड़के ने गाली-गलौज और बदतमीजी की। शाम को 6.30 बजे के आस-पास की यह घटना थी। इसकी उपेक्षा असंभव थी। इसलिए अगले तीन घंटे में हमारी ओर से क्षत्रियोचित प्रतिक्रिया हुई और मामला थाना-पुलिस तक पहुंच गया। जब यह सब हो रहा था तो मैंने महसूस किया कि मैं पूरी तरह से ‘फॉग आफ वार’ के बीच हूं। इस मौके पर मिशन के काम से भटकने की पूरी गुंजाइश थी।

इस डायरी में फिलहाल इतना ही। आगे की बात डायरी के अगले अंक में, इसी दिन इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।

विमल कुमार सिंह

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