मानव सभ्यता की दशा और दिशा तय करने में युद्धों की बड़ी भूमिका रही है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि गीता के उपदेश किसी गुरुकुल में नहीं बल्कि युद्ध के मैदान में दिए गए थे। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन का मोह वास्तव में फॉग आफ वार का ही एक रूप था। अर्जुन को उससे बाहर निकालने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था। गीता का फलक बहुत बड़ा है। उसमें भ्रम, अनिश्चय और अज्ञान के अंधकार से बाहर निकलने के सारे सूत्र दिए गए हैं। चाहे आप संन्यासी हों, समाजसेवी हों, याेद्धा हों या कुछ और, मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में गीता के उपदेश कारगर हैं।

फॉग आफ वार की समस्या से निपटने के लिए पश्चिम में भी खूब विचार किया गया। आज से लगभग 150 वर्ष पहले प्रशियन मिलिट्री कमांडर Clausewitz ने इस पर विस्तार से लिखा, हालांकि उसकी बातें मुख्यतः सैनिक अभियानों पर ही केन्द्रित थीं। इसी मुद्दे पर 2003 में एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनी जिसका नाम है- The Fog of War: Eleven Lessons from the Life of Robert S. McNamara. इसमें फॉग आफ वार से निपटने के लिए जो 11 सूत्र बताए गए हैं, उनका आप अपने दैनिक जीवन में भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ये सूत्र इस प्रकार हैं-

  1. जो आपके सामने खड़ा है, उसके मन को पढ़ने की कोशिश करें।
  2. केवल तर्कबुद्धि से काम नहीं चलेगा।
  3. बहुत सारी बातें हमारे नियंत्रण से बाहर होती हैं।
  4. अपनी कार्यकुशलता को यथासंभव बढ़ाएं।
  5. कितनी ताकत झोंकनी है, इसका एक अनुपात तय करें।
  6. डेटा अर्थात सूचनाएं इकट्ठी करें।
  7. आप जो देख रहे हैं और जो मान रहे हैं, कई बार वे दोनों गलत होती हैं।
  8. अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार रहें।
  9. अच्छा करने के लिए आपको कई बार गलत भी करना पड़ता है।
  10. कभी हार नहीं मानना। आखिरी दम तक प्रयास करना।
  11. आप मानव स्वभाव को नहीं बदल सकते।

30 दिसंबर, 2020 की घटना के बाद इन सूत्रों को आजमाने का वक्त आ गया था। सामान्यतः मैं शाम 7.45 बजे पूजा पर बैठता हूं और 9 बजे तक सोने चला जाता हूं। लेकिन घटना वाली रात पूजा पर बैठने में विलंब हो गया। जब पूजा से उठा तो सोने की बजाए अपने लैपटाप पर कुछ लिखने बैठ गया। 1995 में कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद शायद पहली बार मुझे भारतीय दंड संहिता की धाराओं और लीगल ड्राफ्टिंग से जुड़े सिद्धांतों को फिर से देखने की जरूरत पड़ी। आजकल इंटनरेट का जमाना है, इसलिए किताबों की कमी महसूस नहीं हुई, क्योंकि सबकुछ आनलाइन उपलब्ध था। उस रात दो-तीन घंटे लगाकर मैंने अलग-अलग तरह के कागजात तैयार किए। सोने के पहले मैंने आगे की सारी रणनीति बना ली थी। अगले दिन सुबह 11 बजे स्थानीय थानेदार से मिला और उन्हें अपनी बात समझा दी। उसके बाद इलाके के कुछ और खास लोगों से भी मिला। मैं नहीं चाहता था कि मेरी ओर से ओवर रिऐक्शन हो लेकिन सावधानी जरूरी थी। इसलिए आजमगढ़ जिला मुख्यालय, लखनऊ और दिल्ली में भी अपने मित्रों को सूचित कर दिया।

इस पूरे प्रकरण में मुझे लगभग एक सप्ताह तक मानसिक उलझन रही लेकिन कमल और हर्ष की गतिविधियों पर इसका रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा। शूटिंग का जो बचा-खुचा काम था, उसे उन्होंने 1 जनवरी तक पूरा कर लिया। इसके अगले दिन जब दोनों गांव में गए तो गांव की औरतों, कमल की भाषा में कहें तो चाचियों ने उन्हें कहा कि अब ऐसे ही क्यों घूम रहे हो, बच्चों को पढ़ाते क्यों नहीं। इस पर कमल ने कहा कि कहां पढ़ाएं, हमारे पास जगह नहीं है। उस समय हमारी 1.5 एकड़ जमीन पर कुछ नहीं हो सकता था। वहां मिट्टी का काम हुआ था, लेकिन बच्चों के बैठने और पढ़ने लायक प्रबंध वहां नहीं थे।

इस समस्या का हल भी चाचियों के पास था। उन्होंने तुरंत गांव के भीतर ही एक-दो स्थान बताए और कहा कि वहीं बच्चों को जुटाकर पढ़ाओ। कमल ने अपने चारो ओर कसते हुए घेरे को महसूस कर उससे निकलने की एक और कोशिश की। उन्होंने कहा कि यहां के बच्चे इतने शरारती हैं कि उन्हें इकट्ठा करना उनके बस का नहीं है। इसका जवाब भी तुरंत मिल गया। चाचियों ने कहा कि वे खुद बच्चों को निर्धारित स्थान पर इकट्ठा करेंगी। कोई बदमाशी न करे, इसके लिए वे वहां डंडा लेकर बैठेंगी और उनकी चौकीदारी भी करेंगी। इस पर कमल और हर्ष ने कहा कि इतना हो जाएगा तो वे बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देंगे। फिर क्या था, गांव की चाचियों ने बच्चों को आनन-फानन में एक जगह जुटा दिया और 3 जनवरी से तिरहुतीपुर में पढ़ाई-लिखाई का एक नया दौर शुरू हो गया।

गांव के भीतर स्टडी सेंटर का आइडिया बड़ा मौलिक और स्वस्फूर्त था। इसे आकार देने में मेरी कोई खास भूमिका नहीं थी। लेकिन इससे मुझे बड़ी राहत मिली। स्कूल खोलने को लेकर मैं अपने ऊपर जो दबाव महसूस कर रहा था, उससे मुझे मुक्ति मिल गई। धीरे-धीरे पुलिस-थाना का मामला भी शांत पड़ चुका था। इसलिए अब मैं अपना पूरा ध्यान डाक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट लिखने में लगा सकता था।

इसी दौरान मैंने डोम के मसले पर भी एक फैसला लिया। जमीन पर मिट्टी डलवाने और अन्य़ छिट-पुट सामान खरीदने के बाद एक लाख रुपए में से जो पैसे बचे थे, उसमें अब एक प्रतीकात्मक डोम ही बन सकता था। मैंने सोचा चलो वही बना लें। लेकिन मेरे घर वालों ने मुझे ऐसा करने से मना किया। उन्होंने कहा कि इसका गलत संदेश जाएगा और संभावना है कि इसका मजाक भी उड़ाया जाए। घर के लोगों की राय अनुभव सिद्ध थी। इसलिए मन मारकर मैंने डोम बनाने के विचार को कुछ महीनों के लिए स्थगित कर दिया।

एक दिसंबर 2020 को जब हमने गांव में टैक्टिकल लेवल पर काम करना शुरू किया था, उस समय हमारी प्राथमिकता में बुनियादी ढांचे वाला आयाम सबसे ऊपर था। जिओडेसिक डोम का निर्माण इसी आयाम के तहत करना था। लेकिन चार जनवरी आते-आते हमारी प्राथमिकता बदल चुकी थी। अब हमारे लिया शिक्षा सबसे आगे थी। प्राथमिकता के मामले में हमने ईवेंट को दूसरे, मीडिया को तीसरे और बुनियादी ढांचे को चौथे स्थान पर रख दिया। मिशन तिरहुतीपुर के शेष 5 आयाम- संगठन, कृषि, उत्पादन, व्यापार और सेवा क्षेत्र फिलहाल कुछ महीनों के लिए हमारी प्राथमिकता में कहीं नहीं थे।

इस टैक्टिकल स्पष्टता के साथ मैंने 8 जनवरी तक मिशन तिरहुतीपुर की प्रस्तावित डाक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट को अंतिम रूप दे दिया। फिल्म की स्क्रिप्ट, शूटिंग, एडिटिंग और उसके अन्य पहलुओं पर मैंने, कमल और हर्ष ने खूब मेहनत की और अंततः 22 जनवरी, 2021 को यह फिल्म यूट्यूब पर रिलीज हो गई। फिल्म निर्माण को लेकर हम बहुत व्यस्त रहे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जनवरी में हम और कुछ नही कर रहे थे। इस महीने हमने शिक्षा और ईवेंट वाले पहलू पर कई जरूरी कदम उठाए। हमारी समस्याएं और हमारी चुनौतियां अभी कम नहीं हुई थीं, लेकिन हां भ्रम और अनिर्णय की स्थिति धीरे-धीरे कम हो रही थी। हमें लगने लगा कि अब जल्दी ही ‘फॉग आफ वार’ से बाहर आ जाएंगे।

इस डायरी में फिलहाल इतना ही। आगे की बात डायरी के अगले अंक में, इसी दिन इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।

विमल कुमार सिंह

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