-ललित गर्ग –

झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के एक गांव मे चोरी के आरोप में पकड़े गए युवक की भीड़ के हाथों पिटाई और मॉब लिंचिंग के बाद पुलिस हिरासत में मौत के मामले ने एक बार फिर समूचे राष्ट्र को शर्मसार किया है, इस मामले का मूल पकड़ना स्वाभाविक है। ऐसे उन्मादी भीड़ की हिंसा के मामले तूल पकड़ने ही चाहिए, क्योंकि वे राष्ट्रीय अस्मिता एवं गौरव को नीचा दिखाने के साथ ही अराजक माहौल को भी बयान करते हैैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस घटना को दुखद बताया लेकिन इसके लिये पूरे झारखंड राज्य को दोषी बताने को अशोभनीय माना। बात यहां व्यक्ति या किसी प्रान्त की नहीं, बल्कि हिंसक एवं अराजक होती मानसिकता की है, जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता। 
उन्मादी भीड़ के द्वारा जान लेने की घटनाएं पहले भी चिन्ता का कारण बनी है। मॉब लिंचिंग की ये घटनाएँ अब न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि असहनीय एवं शर्मनाक है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पहले ऐसी घटनाओं पर फटकारा है। केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी सरायकेला-खरसावां की घटना को जघन्य अपराध बताते हुए यह सही कहा कि लोगों को पीटकर नहीं, बल्कि गले लगाकर ही श्रीराम का जयघोष कराया जा सकता है। भीड़ ने चोरी कर रहे युवक को पकड़ा, यह तो ठीक किया, लेकिन यह किसने अधिकार दिया कि उसे पीट-पीटकर अधमरा कर दिया जाये और उसे जयश्री राम बोलने के लिए मजबूर किया जाये। यह अराजकता के नग्न प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं। आम जनजीवन की सामान्य-सी बातों को लेकर होने वाली हिंसा एवं अशांति की ऐसी घटनाओं का होना गंभीर चिन्ता का विषय है।  महावीर, बुद्ध, गांधी के अहिंसक देश में हिंसा का बढ़ना न केवल चिन्ता का विषय है बल्कि गंभीर सोचनीय स्थिति को दर्शाता है। भीड़ द्वारा लोगों को पकड़कर मार डालने की घटनाएं परेशान करने वाली हैं। सभ्य समाज में किसी की भी हत्या किया जाना असहनीय है लेकिन इस तरह से भीड़तंत्र के द्वारा कानून को हाथ में लेकर किसी को भी पीट-पीटकर मार डालना अमानवीयता एवं क्रूरता की चरम पराकाष्ठा है। आम आदमी ही नहीं, अब तो पुलिस, डॉक्टर और अन्य सरकारी-गैर सरकारी लोग भी भीड़ की हिंसा का शिकार बनने लगे हैैं। यह एक खतरनाक संकेत है। इस तरह की घटनाएं यही बताती हैैं कि कानून के शासन को अपेक्षित महत्व नहीं मिल रहा है। कानून हाथ में लेकर अराजक व्यवहार करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती, क्योंकि ऐसा व्यवहार शांति व्यवस्था को चुनौती देने के साथ ही देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को धूमिल एवं कलंकित करने वाला है। 
केंद्र और राज्य सरकारों को इसके प्रति जागरूक होना ही होगा कि भीड़ की हिंसा के मामले रुकें। इसके लिए पुलिस सुधारों पर ध्यान देना होगा। सारे देश का ध्यान खींचने वाली झारखंड की घटना में एक अमानवीय बात यह भी हुई कि पुलिस ने चोरी के आरोप में बुरी तरह पिटे तबरेज अंसारी को समय पर अस्पताल ले जाने की सुध नहीं ली। आखिर पुलिस-प्रशासन की ओर से जो सक्रियता अब दिखाई जा रही है वह समय रहते क्यों नहीं दिखाई गई? भीड़ की अराजकता पर अंकुश लगाने के साथ ही उस प्रवृत्ति पर भी रोक लगानी होगी जिसके तहत हिंसक घटनाओं को रोकने के बजाय उनके वीडियो बनाकर उन्हें सोशल मीडिया पर अपलोड करना बेहतर समझा जाता है। ऐसे वीडियो माहौल खराब करने का ही काम करते हैं।
मॉब लिंचिंग की घटनाओं का लम्बा सिलसिला है, कभी सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे फर्जी मेसेज पर यकीन करके भीड़ द्वारा दो लोगों को पीट-पीट के हत्या कर दी जाती है तो कभी बच्चा चोरी के संदेह में पेशे से साउंड इंजीनियर नीलोत्पल दास और गुवाहाटी के ही व्यवसायी अभिजीत को मार दिया जाता है। कभी गौमांस खाने के तथाकथित आरोपी को मार डाला जाता है, कभी किसी की गायों को वधशाला ले जाने के संदेह में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है। काश कि ऐसी कोई सख्त कार्रवाही पहले की गयी होती, तो शायद तमाम अन्य घटनाओं की कड़ी में सरायकेला-खरसावां जिले के बाइस वर्षीय तबरेज अंसारी जुड़ने से बच जाता। सच यह भी है कि ऐसे मामले न अदालतों की सख्ती से रुकने वाले, न सरकारी कमेटियां बनाने से या नये कानून बनाने से। ऐसी घटनाएं उस दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही रुक सकती हैं, जहां पुलिस तंत्र को सरकारी मशीनरी के रूप में नहीं, स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से काम करने देने पर सहमति होगी और सत्ता के इशारे पर उसका नाचना बंद होगा। 
माॅब लिंचिंग के प्रत्येक मामले की बिना किसी किंतु-परंतु निंदा एवं भत्र्सना होनी भी जरूरी है। पीड़ित अथवा हमलावर की जाति या फिर उसका मजहब देखकर उद्वेलित होना या न होना ठीक नहीं। तबरेज अंसारी के परिवार को न्याय मिले, इसकी चिंता करते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्याय की दरकार मथुरा के उस लस्सी विक्रेता के परिवार को भी है जो चंद दिनों पहले भीड़ की हिंसा का शिकार बना है। हिंसा-हत्या के मामलों में साम्प्रदायिकता या जातीयता का चश्मा चढ़ाकर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आदत उतनी ही खराब है जितनी यह कि अगर घटना भाजपा शासित राज्य में हो तो सीधे प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा किया जाए और गैर-भाजपा शासित राज्य में हो तो फिर स्थानीय प्रशासन से भी सवाल पूछने की जहमत न उठाई जाए। राजनीति की छांव तले होने वाली भीड़तंत्र की वारदातें हिंसक रक्तक्रांति का कलंक देश के माथे पर लगा रही हैं चाहे वह एंटी रोमियो स्क्वायड के नाम पर हो या गौरक्षा के नाम पर। कहते हैं भीड़ पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। वह आजाद है, उसे चाहे जब भड़काकर हिंसक वारदात खड़ी की जा सकती है। उसे राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है जिसके कारण वह कहीं भी कानून को धत्ता बताते हुए मनमानी करती है। भीड़ इकट्ठी होती है, किसी को भी मार डालती है। जिस तरह से भीड़तंत्र का सिलसिला शुरू हुआ उससे तो लगता है कि एक दिन हम सब इसकी जद में होंगे। दरअसल यह हत्यारी मानसिकता को जो प्रोत्साहन मिल रहा है उसके पीछे एक घृणा, नफरत, संकीर्णता और असहिष्णुता आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का भी संकेत है।
भीड़तंत्र का हिंसक, अराजक एवं आक्रामक होना अनुचित और आपराधिक कृत्य है। भीड़ कभी भी आरोपी को पक्ष बताने का अवसर ही नहीं देती और भीड़ में सभी लोग अतार्किक तरीके से हिंसा करते हैं। कभी-कभी ऐसी हिंसक घटनाएं तथाकथित राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक लोगों के उकसाने पर कर दी जाती है। ऐसे कृत्य से कानून का उल्लंघन तो होता ही है भारत की अहिंसा एवं विश्वबंधुत्व की भावना भी ध्वस्त होती है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा देने का हक कानून को है, न कि जनता उसको तय करेगी। अपराधी को स्वयं सजा देना कानूनी तौर पर तो गलत है ही, नैतिक तौर पर भी अनुचित है और ये घटनाएं समाज के अराजक होने का संकेत है। लेकिन यहां प्रश्न यह भी है कि व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर क्यों हो रहा है? सवाल यह भी है कि हमारे समाज में हिंसा की बढ़ रही घटनाओं को लेकर सजगता की इतनी कमी क्यों है? असल जरूरत न कमेटी बनाने की है और न नये कानून बनाने की बल्कि ऐसा सख्त संदेश देने की है कि फिर न कोई तबरेज अंसारी मारा जाए। ताकि कोई नेता फिर जहरीले बोल न बोल पाए। जरूरत कड़वे एवं भडकाऊ बयान देने वाले नेताओं एवं अकर्मण्य एवं उदासीन बने पुलिस कर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किये जाने की है, ताकि इन डरावनी एवं त्रासद घटनाओं की पुनर्रावृत्ति न हो सके। 

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 (ललित गर्ग)
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