विजयदशमी के दिन 26 अक्टूबर, 2020 को सुबह-सुबह गोविन्दाचार्य जी मेरे घर पर आ गए थे। जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं, तिरहुतीपुर ग्राम पंचायत में दो गांव हैं- एक सुंदरपुर कैथौली और दूसरा तिरहुतीपुर। मेरा घर सुंदरपुर कैथौली में है जबकि गोविन्दजी का औपचारिक कार्यक्रम तिरहुतीपुर गांव में रखा गया था जो मेरे घर से लगभग डेढ़ किमी दूर है। वैसे तो यह दूरी ज्यादा नहीं है लेकिन दोनों गांवों के बीच में बहने वाली बेसो नदी के कारण इसकी अनुभूति अधिक होती है। दुर्भाग्यवश कुछ महीने पहले नदी पर बना पुराना पुल टूट गया था जिसके कारण इस दूरी का एहसास और बढ़ गया था। टूटे पुल की बात से मैं थोड़ा चिंतित भी था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि गोविन्दजी को तिरहुतीपुर कैसे ले जाया जाए?

उधर गोविन्दजी मेरी चिंता से बेखबर गांव में आकर प्रशन्न थे। वे जल्दी ही मेरे परिवार के सभी सदस्यों से घुलमिल गए। बता दूं कि गांव में मेरा एक संयुक्त परिवार है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में संयुक्त परिवार की परंपरा अभी भी जीवित है। हालांकि इसके स्वरूप में बहुत बदलाव आ गया है। पहले जहां यह अतिशय केन्द्रित व्यवस्था हुआ करती थी, वहीं अब इसने ढीले-ढाले संघात्मक ढांचे का रूप ले लिया है। लेकिन जिस तेजी से स्थिति बदल रही है, उसे देख कर लगता है कि यह व्यवस्था अपने मौजूदा स्वरूप में बहुत देर तक नहीं चल पाएगी।

गांव में हमारा परिवार जिस घर में रहता है उसे दादाजी ने 1967 में बनवाया था। घर पर्याप्त बड़ा है, लेकिन पुराने डिजाइन का है। इसे एक किसान परिवार की जरूरत के हिसाब से बनाया गया था। उस समय पुरुष लोग प्रायः घर के बाहर दालान में ही रहते थे। मकान कुछ इस तरह बना है कि पुरुषों को आज भी आमतौर पर घर के बाहर ही रहना पड़ता है। इसमें किसी को कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन अपनी किताबों और लैपटाप के साथ मेरे लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं था। इसलिए मैंने अपने लिए एक कमरे का इंतजाम कर लिया था।

26 अक्टूबर को गोविन्दाचार्य जी मेरे गांव में पहली बार नहीं आए थे। इसके पहले जुलाई 2018 में वे यहां आ चुके थे। उस बार जिज्ञासावश वे तिरहुतीपुर में कुछ लोगों से मिलने गए थे। तब गांव घूमते हुए अपने एक खेत की ओर इशारा करके मैंने मजाक में कहा था कि गोविन्दजी यहां आपका एक आश्रम बने तो कैसा रहेगा? गोविन्दजी मेरी बात सुन कर कुछ बोले नहीं, बस मुस्कुराते हुए जमीन के उस टुकड़े को देखने लगे जिस पर उस समय धान की फसल लहलहा रही थी।

अप्रैल, 2020 में जब गोविन्दजी ने तिरहुतीपुर को अपना स्थायी निवास बनाने का निर्णय लिया तो मुझे तुरंत वह जमीन और आश्रम वाली बात याद आ गई। इसके बाद मैंने घर वालों से बात करके लगभग डेढ़ एकड़ का वह भूखंड गोविन्दजी के प्रयोग के लिए मांग लिया। तब से लेकर अब तक वह जमीन खाली पड़ी है। कह सकते हैं कि वह जमीन अब गोविन्द जी की प्रतीक्षा कर रही है कि वे वहां आएं और अपना आश्रम बना कर केवल उस गांव को ही नहीं बल्कि देश के सभी गांवों को उम्मीद की एक नई रोशनी दिखाएं।

जब मैं 17 अक्टूबर, 2020 को गांव पहुंचा तो मेरे मन में किसी औपचारिक कार्यक्रम की कोई योजना नहीं थी। मैं तो बस इतना चाह रहा था कि गोविन्दजी आएं और कुछ दिन रहकर गांव को नजदीक से देखें। किंतु घर वालों को यह पर्याप्त नहीं लग रहा था। वे एक औपचारिक कार्यक्रम भी चाह रहे थे। मेरी भी इच्छा थी कि एक औपचारिक कार्यक्रम हो, लेकिन उससे जुड़े खर्चों को सोचकर मैं चुप था। जब इस मामले में घर वालों की ओर से ही पहल की गई तो मुझे बहुत खुशी हुई।

वह बात जो सबके दिल को छू गईः

शुरुआती चर्चा के बाद 26 अक्टूबर वाले कार्यक्रम की कमान मेरे छोटे चाचा शरद सिंह ने अपने हाथ में ले ली। उन्होंने तिरहुतीपुर में घर-घर जाकर कार्यक्रम की सूचना दी और सबको दशहरा के दिन शाम 4 बजे उसी डेढ़ एकड़ जमीन पर जुटने के लिए कहा जिसे मैंने मिशन तिरहुतीपुर के लिए घर वालों से मांगा था।

तिरहुतीपुर गांव में केवट, राजभर और मुसहर जाति के लोग रहते हैं। वहां शिक्षा का स्तर बहुत दयनीय है। गोविन्दाचार्य का नाम वहां किसी ने नहीं सुना था। इसलिए मेरे सामने समस्या थी कि गोविन्दजी का परिचय किस रूप में करवाऊं। हालांकि यह समस्या चाचा जी को नहीं थी। उन्होंने सबको बताना शुरू किया कि गोविन्दाचार्य एक बड़े नेता हैं और वे तिरहुतीपुर को गोद लेकर गांव का विकास करेंगे। मैंने चाचाजी को ‘विकास’ के मुद्दे पर जब सावधान किया तो उन्होंने अपनी प्रस्तुति का अंदाज बदल दिया। इसके बाद जब गांव वाले पूछते कि नेताजी क्या करेंगे तो चाचाजी कहते कि दशमी के दिन शाम को आकर उन्हीं के मुंह से सुन लेना। बात कुछ रहस्यमय हो गई थी, इसलिए गांव में सब गोविन्दाचार्य जी को सुनने के लिए उत्सुक थे।

तिरहुतीपुर में कार्यक्रम की तैयारी 26 अक्टूबर की सुबह से ही शुरू हो गई थी। जब शाम होने को आई तो गोविन्दजी सहित हम सब पैदल ही कार्यक्रम स्थल की ओर चल दिए। हमें नदी पार करने में कोई समस्या नहीं हुई क्योंकि टूटे हुए पुल को बिजली के खंभों के सहारे कामचलाऊ बना लिया गया था। गाड़ियां आर-पार नहीं जा सकती थीं, लेकिन पैदल नदी पार करने में कोई दिक्कत नहीं थी।

जब हम कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे, तब तक गांव के लोग, विशेष रूप से महिलाएं और बच्चे वहां पहले ही पहुंच गए थे। सब जानना चाहते थे कि दिल्ली वाले नेता जी इस गांव को गोद लेकर क्या करेंगे। मंच पर विराजमान स्थानीय वक्ताओं ने गोविन्दजी की जब तारीफ करनी शुरू की तो उनकी अपेक्षाएं और बढ़ गईं। लेकिन गोविन्दजी ने माइक संभालते ही जैसे वज्रपात सा कर दिया। उन्होंने साफ-साफ कहा कि वे गांव को गोद नहीं लेंगे। यह बात सुन कर सब लोग हक्के-बक्के रह गए। मेरे चाचाजी कुछ ज्यादा ही परेशान हो गए, क्योंकि गोद लेने वाली बात उन्होंने ही सबको बताई थी। लेकिन यह परेशानी ज्यादा देर नहीं रही। गोविन्दजी ने तुरंत स्पष्ट किया कि वे गांव को गोद में नहीं ले रहे, बल्कि खुद गांव की गोद में बैठने के लिए आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि 100 साल पहले उनके पुरखे अपने गांव से बिछुड़ गए थे और आज तिरहुतीपुर के रूप में उन्हें फिर से एक गांव मिल गया है।

गोविन्दजी की ये भाव भरी बातें सबको बहुत अच्छी लगीं। सब खुश थे, लेकिन एक बात को लेकर मैं परेशान था। मुझे मालूम था कि फिलहाल हम गांव के लोगों की एक भी अपेक्षा पूरी करने वाले नहीं हैं। हमारी प्राथमिकता और गांव वालों की प्राथमिकता में अभी कहीं कोई मेल नहीं था।

इस बार की डायरी में इतना ही। आगे के घटनाक्रम को बताने के लिए मैं फिर आऊंगा, इसी दिन इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।

विमल कुमार सिंह
संयोजक, मिशन तिरहुतीपुर

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